अलौकिक…
सनातन संस्कृति में कार्तिक के महीने को बड़ा ही शुभ और पावन व निर्मल माना जाता है.वैज्ञानिक दृष्टि से भी देखा जाय तो यह एक विशेष महिना होता है वहीं, काल व गणना की दृष्टि से देखा जय तो यह महिना ऋतू परिवर्तन या यूँ कहें कि ऋतू का संधि काल चल रहा है.
संधि काल के समय में भारतवर्ष के पूरब में बसा पौराणिक राज्य बिहार में एक विशेष पर्व का आयोजन घर-घर में हो रहा है. वैसे तो इस पर्व की चर्चा पौराणिक ग्रंथों में भी की गई है. सनातन धर्म के प्रत्यक्ष देवता भगवान् अच्युत, रवि, तेजोरूप, हिरण्यगर्भ्, दीप्तमूर्ती, भानु, विश्वरूप की पूजा व आराधना की जा रही है. ज्योतिष और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो दोनों के अपने-अपने तर्क हैं. लेकिन, सूर्य जो ग्रहों का राजा है उसकी आराधना संधि काल के समय में ही होती है. वर्ष में दो बार संधि काल से रूबरू होतें हैं और इन्ही संधि काल में जगत के राजा की आराधना नए फसल से होती है.
चार दिवसीय आराधना काल की शुरुआत नहाय-खाय से होती है जबकि दुसरे दिन नदी स्नान कर दिन में निर्जला उपवास सहित व्रत से जुड़ी सामग्रियों को इकठ्ठा व प्रसाद बनाने की प्रक्रिया आरम्भ होती है. इस दौर में महिलाओं द्वारा गाये लोक गीतों से वातावरण गुंजामान होता है. संध्या के समय प्रत्यक्ष भगवान् की पूजा अर्चना कर मीठा भोजन (कहीं-कहीं नमकीन भोजन) वो भी गुड़ (गन्ने के रस से बना) में बने भोजन को भगवान् अच्युत, रवि, तेजोरूप, हिरण्यगर्भ्, दीप्तमूर्ती, भानु, विश्वरूप को अर्पण कर प्रसाद खातें व खिलते है.
इसके बाद तीसरे दिन व्रती निर्जला उपवास कर पुन: प्रसाद बनाते हैं और संध्या के समय (जब सूर्य अस्त हो रहें हों) भगवान् अच्युत, रवि, तेजोरूप, हिरण्यगर्भ्, दीप्तमूर्ती, भानु, विश्वरूप को अस्ताचलगामी अर्घ्य देते हैं और में लोक गीतों से वातावरण गुंजामान होता है. वहीं कहीं-कहीं कोसी भी भरा जाता है. व्रत के चौथे दिन भगवान् अच्युत, रवि, तेजोरूप, हिरण्यगर्भ्, दीप्तमूर्ती, भानु, विश्वरूप को उगते सूर्य को अर्घ्य व हवन कर व्रती अपना उपवास तोड़ते या यूँ कहें की व्रत का समापन करते हैं.
“छठ” जिसका वैज्ञानिक और सांस्कृतिक व पौराणिक महत्व होता है, इस दिन एक विशेष खगोलीय परिवर्तन होता है, इस समय पराबैगनी किरणें (Ultra Violet Rays) पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्रीत हो जाती है. बताते चलें कि, सूर्य के प्रकाश के साथ उसकी पराबैगनी किरण भी चंद्रमा और पृथ्वी पर आती हैं. सूर्य का प्रकाश जब पृथ्वी पर पहुँचता है, तो पहले वायुमंडल मिलता है चुकिं, वायुमंडल में प्रवेश करने पर उसे आयन मंडल मिलता है. पराबैगनी किरणों का उपयोग कर वायुमंडल अपने ऑक्सीजन तत्त्व को संश्लेषित कर उसे उसके एलोट्रोप ओजोन में बदल देता है, इस प्रकार सूर्य की पराबैगनी किरणों का अधिकांशत: पृथ्वी के वायुमंडल में ही अवशोषित हो जाता है और पृथ्वी की सतह पर नगण्य भाग ही पहुंच पाता है. सामान्य अवस्था में मनुष्यों पर उसका कोई विशेष हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि उस धूप द्वारा हानिकारक कीटाणु भी नष्ट हो जाते हैं, जिससे मनुष्य के जीवन को लाभ ही मिलता है.