
गंगा किनारे बसा छोटा सा गाँव था, शांति और स्नेह की छाया में लिपटा हुआ. इस गाँव में रामलाल और उनकी पत्नी जमुना देवी का भरा-पूरा संसार था. दो बेटे थे उनके – बड़ा, सुरेश, जो शहर में पढ़-लिखकर इंजीनियर बना था, और छोटा, रमेश, जो खेती-बाड़ी में अपने पिता का हाथ बँटाता था. जमुना देवी ममता की मूरत थीं, पति और दोनों बेटों के लिए उनका हृदय स्नेह से लबालब भरा रहता था. रामलाल भले और कर्मठ व्यक्ति थे, जिन्होंने अपनी मेहनत से थोड़ी-बहुत संपत्ति जोड़ी थी, एक छोटा सा घर और कुछ खेत.
समय का चक्र घूमता रहा और एक दिन रामलाल इस दुनिया से विदा हो गए. जमुना देवी पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. उनके जीवन का सहारा छिन गया था. इस शोक के सागर में डूबी माँ को अपने बेटों से आस थी, खासकर सुरेश से, जो पढ़ा-लिखा और समझदार था.
परंतु, सुरेश के मन में कुछ और ही चल रहा था. पिता की मृत्यु के बाद, वह गाँव आया और माँ को मीठी-मीठी बातों में फंसाना शुरू कर दिया. उसने शहर के बड़े-बड़े सपनों का जाल बुना, जिसमें निवेश करने पर ढेर सारा धन कमाने की बातें थीं. जमुना देवी, अपने बेटे की बातों पर सहज ही विश्वास कर बैठीं. उन्हें क्या पता था कि जिस बेटे को उन्होंने अपनी उँगली पकड़कर चलना सिखाया था, वही आज उनकी जमा-पूंजी हड़पने की साजिश रच रहा है.
एक दिन, सुरेश ने धोखे से सारे कागजात पर जमुना देवी के अंगूठे के निशान लगवा लिए. विधवा माँ को तब पता चला जब उनके हाथ खाली हो चुके थे, घर और खेत सब सुरेश के नाम हो गए थे. उनका संसार उजड़ गया था, अपनों ने ही उन्हें बेसहारा कर दिया था.
शेष भाग अगले अंक में…,