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मन का टिस…

अध्याय 1: धुंधलका और दबी आह

कमरे की खिड़की से झांकती धुंधली धूप, शीला के चेहरे पर उतरकर भी कोई गर्माहट नहीं ला पाई. साठ वसंत देख चुकी आँखों में एक अनकही उदासी तैर रही थी, जैसे किसी पुराने गीत की भूली हुई धुन. बाहर, गुलमोहर के पेड़ पर चिड़िया चहचहा रही थी, जीवन की एक सहज लय, जिससे शीला का मन कहीं दूर, किसी और ही ताल पर बंधा था.

आज सुबह भी वही टीस उठी थी, जो बरसों से उसके हृदय के किसी कोने में दबी बैठी थी – एक हल्की, पर स्थायी पीड़ा. यह किसी तेज दर्द की तरह नहीं थी, जो चीख उठे, बल्कि एक भीतरी कसक थी, जैसे किसी अनकहे शब्द का बोझ. मन का यह टीस, उसे अक्सर अतीत के गलियारों में खींच ले जाता था, उन धुंधले पलों में जहाँ खुशियाँ अधूरी रह गईं और सपने अधूरे छूट गए.

उसने अपनी चाय का प्याला उठाया, भाप उसके चेहरे से टकराई, पर उसकी ठंडक मन तक पहुँचती नहीं जान पड़ी. चाय की पहली चुस्की के साथ, उसे याद आया – रवि.

रवि… नाम भर ही एक मीठी वेदना जगा जाता था. कॉलेज के दिन, बेफिक्री की हँसी, किताबों के बीच चोरी-छिपे देखे गए सपने… और फिर, वह अचानक चला गया था. बिना कोई स्पष्टीकरण दिए, बिना अलविदा कहे. सिर्फ एक खालीपन छोड़कर, जो समय के साथ गहरा होता गया.

उस दिन, जब रवि ने कहा था कि उसके पिता का तबादला शहर से बाहर हो गया है, शीला के मन में एक अजीब सी आशंका हुई थी. उसने पूछा था, “और तुम?” रवि ने बस टाल दिया था, एक हल्की सी मुस्कान के साथ. वह मुस्कान, जो अब याद आती थी तो एक काँटे की तरह चुभती थी.

फिर कभी कोई खबर नहीं आई. शीला ने बहुत इंतज़ार किया. हर चिट्ठी, हर अनजान दस्तक पर उसका दिल धड़कता था. पर रवि कभी नहीं लौटा. धीरे-धीरे, इंतज़ार धुंधला पड़ गया, और उसकी जगह ले ली मन की उस टीस ने – ‘काश…’

काश उसने उस दिन रवि से और पूछा होता.

काश उसने अपने प्यार का इज़हार कर दिया होता.

काश…

उसने प्याला मेज़ पर रख दिया. बाहर, धूप अब थोड़ी तेज़ हो गई थी. बच्चे खेलते हुए सुनाई दे रहे थे. जीवन आगे बढ़ रहा था, अपनी गति से. सिर्फ शीला थी, जो कभी-कभी उस मोड़ पर ठहर जाती थी, जहाँ रवि उससे बिछड़ गया था.

उसने उठकर खिड़की बंद कर दी. कमरे में एक शांत, स्थिर अँधेरा छा गया. यह अँधेरा, कहीं न कहीं उसके मन के भीतर पसरे हुए उस भाव का ही प्रतिरूप था – एक शांत, पर गहरी उदासी.

क्या यह टीस कभी जाएगी? क्या कभी वह उस बोझ से मुक्त हो पाएगी जो बरसों से उसके हृदय पर टिका है? यह सवाल आज भी उतना ही अनसुलझा था, जितना बरसों पहले था.

शेष भाग अगले अंक में…,

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