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बेबसी का पिटारा…

रामू की नई राह

शंकर दादा के शब्दों और उनकी दी हुई थोड़ी सी मदद ने रामू के भीतर दबी हुई उम्मीद की चिंगारी को हवा दी. उस रात, वह घर लौटा तो उसकी आँखों में पहले वाली उदासी नहीं थी. सीता ने भी उसकी बदली हुई मनोदशा को महसूस किया और राहत की साँस ली.

अगले दिन, रामू शंकर दादा से मिला और उस नए काम के बारे में पूछा जिसका उन्होंने जिक्र किया था. शंकर दादा ने बताया कि गाँव के कुछ लोग मिलकर गाँव में ही एक छोटा सा तालाब खुदवाने की योजना बना रहे थे. सूखे के कारण गाँव में पानी की बहुत कमी हो गई थी, और यह तालाब न केवल सिंचाई के लिए पानी देगा बल्कि गाँव के जल स्तर को भी सुधारेगा. इस काम के लिए कुछ मजदूरों की ज़रूरत थी और शंकर दादा ने रामू का नाम भी सुझाया था.

रामू तुरंत इस काम के लिए तैयार हो गया. उसे मिट्टी खोदने का अनुभव था और उसे यह भी लग रहा था कि इस काम से न केवल उसे कुछ पैसे मिलेंगे बल्कि वह गाँव के लिए भी कुछ उपयोगी कर पाएगा. अगले दिन से ही रामू और गाँव के कुछ अन्य लोग मिलकर तालाब खोदने के काम में जुट गए.

यह काम आसान नहीं था. तपती धूप में घंटों मिट्टी खोदना थका देने वाला था, लेकिन रामू के मन में एक नई ऊर्जा थी. वह जानता था कि वह सिर्फ अपने परिवार के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे गाँव के लिए काम कर रहा है. हर फावड़ा मिट्टी निकालने के साथ, उसे अपनी बेबसी पर थोड़ी जीत महसूस होती थी.

सीता भी घर पर खाली नहीं बैठी थी। शंकर दादा और गाँव की अन्य महिलाओं की मदद से उसने कुछ पापड़ और अचार बनाना शुरू कर दिया. रामू जब शाम को घर लौटता तो वह उन पापड़ों और अचारों को गाँव में बेच आता था. इससे उन्हें कुछ और पैसे मिल जाते थे जिससे घर का खर्च चलाने में मदद मिलती थी.

धीरे-धीरे, रामू और सीता की मेहनत रंग लाने लगी. तालाब का काम आगे बढ़ रहा था और उनके पास कुछ पैसे भी जमा होने लगे थे. रामू ने उस नई उम्मीद को एक बीज की तरह सींचा था और अब वह अंकुरित होने लगा था. उसने साहूकार से लिए हुए पुराने कर्ज़ के बारे में भी पता किया और धीरे-धीरे उसे चुकाने की योजना बनाई. अब वह उस बोझ से थोड़ा मुक्त महसूस कर रहा था जो पहले उसे हर पल दबाता रहता था.

अगले साल, मानसून समय पर आया और गाँव में अच्छी बारिश हुई. तालाब में पानी भर गया और रामू ने फिर से अपने खेत में फसल बोई. इस बार उसकी मेहनत रंग लाई और उसकी फसल अच्छी हुई.

रामू कभी भी उस बुरे वक्त को नहीं भूला जब उसकी डोर छूट गई थी. उस अनुभव ने उसे सिखाया था कि जीवन में मुश्किलें आती रहती हैं, लेकिन हिम्मत और एकजुटता से उनका सामना किया जा सकता है. शंकर दादा की मदद और गाँव के लोगों के साथ मिलकर काम करने के अनुभव ने उसे यह भी सिखाया कि समुदाय की शक्ति कितनी बड़ी होती है.

उस नई उम्मीद के साथ, रामू ने न केवल अपने परिवार को गरीबी से बाहर निकाला बल्कि गाँव के विकास में भी अपना योगदान दिया. वह अब एक निराश और बेबस किसान नहीं था, बल्कि एक मेहनती और आशावादी व्यक्ति था जिसने अपनी छूटी हुई डोर को फिर से थाम लिया था, बल्कि और मजबूत डोरों से अपने जीवन को बांध लिया था.

शेष भाग अगले अंक में…,

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