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बेबसी का पिटारा…

छूटी हुई डोर

रामू का जीवन उसकी छोटी सी ज़मीन और उस पर उगाई जाने वाली फसल के इर्द-गिर्द घूमता था. सूरज की पहली किरण के साथ वह खेत पर पहुँच जाता और दिन भर मिट्टी को अपने हाथों से सहलाता. उसकी पत्नी, सीता, घर और बच्चों की देखभाल करती, और शाम को दोनों मिलकर दिन भर की थकान मिटाते हुए अगले दिन की उम्मीदों के ताने-बाने बुनते. उनके जीवन की डोर बड़ी सरल और सीधी थी, जो उनकी मेहनत और संतोष से बंधी हुई थी.

लेकिन इस साल, प्रकृति ने अपना क्रूर चेहरा दिखाया. मानसून समय पर नहीं आया. आसमान सूखा रहा और धरती प्यासी तड़पती रही. रामू ने हर संभव प्रयास किया – पुराने कुएँ से थोड़ा-बहुत पानी निकालकर पौधों को सींचा, देवताओं से प्रार्थना की, गाँव के बुजुर्गों से सलाह ली. लेकिन सब व्यर्थ गया. सूरज की तपिश और पानी की कमी ने उसकी हरी-भरी फसल को धीरे-धीरे पीला और फिर भूरा कर दिया. उसकी आँखों के सामने, उसकी उम्मीदें मुरझा गईं.

जब आखिरकार यह स्पष्ट हो गया कि इस साल कुछ भी नहीं बचेगा, रामू के भीतर एक अजीब सी खालीपन छा गया. वह खेत पर जाता, सूखी मिट्टी को हाथों में लेता और घंटों गुमसुम बैठा रहता. सीता की चिंतित आँखें उसे देखती रहतीं, लेकिन वह उनसे नज़रें नहीं मिला पाता था. उसे लगता था जैसे उसके हाथों से कुछ बहुत महत्वपूर्ण छूट गया है, एक ऐसी डोर जो उसके और उसके परिवार के जीवन को आपस में बाँधे हुए थी.

यह छूटी हुई डोर सिर्फ फसल की बर्बादी नहीं थी. यह रामू के आत्मसम्मान की डोर थी, जो उसे एक सक्षम किसान होने का गौरव देती थी. यह उसके परिवार की सुरक्षा की डोर थी, जो उन्हें दो जून की रोटी और एक छत मुहैया कराती थी. जब फसल बर्बाद हुई, तो यह सारी डोरें एक-एक करके उसके हाथों से फिसलने लगीं.

सबसे ज़्यादा उसे अपने बच्चों की चिंता सता रही थी. उनकी मासूम आँखें, जो हमेशा खाने की उम्मीद से चमकती थीं, अब उदासी से भरी रहने लगी थीं. रात को जब वे भूखे पेट सोते, तो रामू की छाती पर एक अनकहा बोझ महसूस होता. वह पिता होकर भी उनकी भूख मिटाने में असमर्थ था. यह बेबसी उसे अंदर ही अंदर खाए जा रही थी.

उसने गाँव के साहूकार से कर्जा लेने की हिम्मत जुटाई. वह जानता था कि साहूकार का ब्याज बहुत ज़्यादा होता है, लेकिन उसके पास कोई और चारा नहीं था. एक-एक करके उसने गाँव के हर उस व्यक्ति से गुहार लगाई जिससे उसे थोड़ी भी मदद की उम्मीद थी. लेकिन हर जगह उसे निराशा ही मिली. लोगों के पास या तो खुद ही कमी थी, या फिर वे एक गरीब किसान पर भरोसा करने को तैयार नहीं थे जिसकी फसल पहले ही बर्बाद हो चुकी थी.

हर अस्वीकृति के साथ, रामू की बेबसी और गहरी होती गई. उसे लगने लगा जैसे वह एक ऐसे कुएँ में गिरता जा रहा है जिसकी कोई तली नहीं है. उसकी आवाज़ खो गई थी, उसकी आँखों की चमक बुझ गई थी. वह अपनी पत्नी और बच्चों से भी ठीक से बात नहीं कर पाता था. उसे शर्म आती थी, अपनी असफलता पर गुस्सा आता था, और सबसे ज़्यादा अपनी लाचारी पर दुख होता था. उसकी यह मनःस्थिति एक ऐसे पिटारे की तरह बन गई थी जिसमें सिर्फ निराशा और लाचारी भरी हुई थी. हर बीतते दिन के साथ, इस पिटारे का बोझ बढ़ता जाता था. रामू को लगता था कि वह इस बोझ के तले दब जाएगा.

एक दिन, जब वह खेत के किनारे उदास बैठा था, गाँव के एक बुजुर्ग, जिनका नाम शंकर दादा था, उसके पास आए. शंकर दादा ने रामू के कंधे पर हाथ रखा. उनकी आँखों में सहानुभूति थी. उन्होंने रामू से उसकी परेशानी के बारे में पूछा. रामू पहले तो चुप रहा, लेकिन फिर उसकी आँखों से आँसू छलक पड़े और उसने अपनी सारी व्यथा शंकर दादा को बता दी. शंकर दादा ने रामू की बात ध्यान से सुनी और फिर हौसला बढ़ाते हुए कहा, “बेटा, यह वक्त भी गुजर जाएगा. जीवन में सुख-दुख तो आते-जाते रहते हैं. हिम्मत मत हारो. तुम अकेले नहीं हो जिसकी फसल बर्बाद हुई है. पूरे गाँव पर इस सूखे का असर पड़ा है.”

शंकर दादा ने रामू को कुछ अनाज दिया जो उन्होंने पिछले साल बचाकर रखा था. उन्होंने यह भी कहा कि गाँव के कुछ लोग मिलकर एक छोटा सा काम शुरू करने की सोच रहे हैं, और उसमें रामू भी शामिल हो सकता है. उस दिन, रामू को पहली बार अपनी बेबसी के अँधेरे में उम्मीद की एक छोटी सी किरण दिखाई दी. उसे महसूस हुआ कि भले ही एक डोर छूट गई हो, लेकिन जीवन में और भी डोरें हैं जिन्हें थामा जा सकता है. शंकर दादा के शब्दों और उनकी मदद ने रामू के भीतर एक नई ऊर्जा का संचार किया. उसकी बेबसी का पिटारा थोड़ा हल्का ज़रूर हुआ था, उसमें अब सिर्फ निराशा नहीं, बल्कि एक धुँधली सी उम्मीद भी झाँक रही थी.

यह सिर्फ एक शुरुआत थी. रामू को अभी भी बहुत मुश्किलों का सामना करना था, लेकिन उस दिन उसे यह एहसास हो गया कि अकेले नहीं है और हार मान लेना कोई विकल्प नहीं है. छूटी हुई डोर का दर्द तो हमेशा रहेगा, लेकिन अब उसे नई डोरें थामने और अपने परिवार के लिए फिर से उम्मीद का ताना-बाना बुनने का हौसला मिल गया था.

शेष भाग अगले अंक में…,

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