देवशयनी या पद्मनाभा एकादशी…
सत्संग की समाप्ति के बाद कुछ भक्तों ने महाराज जी से पूछा कि, महाराज जी आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की जो एकादशी होती है उस एकादशी के व्रत की महिमा व विधि के बारे में बताएं. महाराज जी सूना है कि, एकादशी के दिन ही शंखाचुड दैत्य मारा गया था.
वाल व्यास सुमन जी महाराज कहते हैं कि, हिंदी वर्ष के चौथे महीने को आषाढ़ माह के नाम से जानते हैं इस महीने के नक्षत्र पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ होता है और इस महीने में चन्द्रमा इन्हीं नक्षत्रों में रहता है. आषाढ़ का महीना बड़ा ही पावन, पवित्र और पुण्यदायी होता है. महाराज जी कहते हैं कि, आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की जो एकादशी होती है उस एकादशी का नाम देवशयनी या पद्मनाभ एकादशी कहते हैं. सूर्य के मिथुन राशि में आने पर ये एकादशी आती है, और इसी दिन से चातुर्मास का भी आरंभ माना जाता है. इस दिन से भगवान श्री हरि विष्णु क्षीर सागर में शयन (सोते) करते हैं, लगभग चार माह बाद तुला राशि में सूर्य के जाने पर उन्हें जगाया जाता है, उस दिन को देवोत्थानी एकादशी भी कहा जाता है. इस बीच के अंतराल को ही चातुर्मास कहा जाता है.
महाराज जी कहते हैं कि, पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार, श्री हरि विष्णु इसी दिन से चार महीने (चातुर्मास) तक पाताल के राजा बलि के द्वार पर निवास करके कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी को लौटते हैं, इस दिन को ‘देवशयनी’ तथा कार्तिक शुक्लपक्ष एकादशी को प्रबोधनी एकादशी कहा जाता है. इस समय जितने भी शुभ कर्म है, वे सभी त्याज्य होते हैं. संस्कृत के धार्मिक साहित्यानुसार हरि शब्द सूर्य, चन्द्रमा, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त होता है. हरिशयन का तात्पर्य(मतलब) इन चार माह में बादल और वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाना उनके शयन का ही दोत्यक होता है. इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीर की शक्ति भी क्षीण या सो जाती है. वैज्ञानिकों के अनुसार चातुर्मास्य में (मुख्यतः वर्षा ऋतु में) विविध प्रकार के कीटाणु अर्थात सूक्ष्म रोग उत्पन्न हो जाते हैं, जल की बहुलता और सूर्य-तेज का भूमि पर अति अल्प प्राप्त होना ही इनका प्रमुख कारण होता है.
वाल व्यास सुमन जी महाराज कहते हैं कि, नारदजी ने एक बार श्री नारायण से पूछा कि, भगवन मुझे एकादशी के महात्यम के बारे में बताने की कृपा करें- तब श्री नारायण ने कहा कि- मुने यह एकादशी व्रत देवताओं के लिए भी दुर्लभ है यह श्रीकृष्ण प्रीति का जनक तथा तपस्वियों का श्रेष्ठ तप है. जैसे देवताओं में श्रीकृष्ण, देवियों में प्रकृति, वर्णों में ब्राह्मण तथा वैष्णवों में भगवान शिव श्रेष्ठ है उसी प्रकार व्रतों में एकादशी व्रत श्रेष्ठ होता है. महाराज जी कहते हैं कि, ब्रह्मवैवर्त पुराण में देवशयनी एकादशी के विशेष महात्म्य का वर्णन किया गया है. इस व्रत से प्राणी की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं और साधक के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं. यदि साधक चातुर्मास व्रत का पालन विधिपूर्वक करता है तो उसे महाफल प्राप्त होता है. महाराज जी कहते हैं कि, धार्मिक ग्रंथो के अनुसार आषाढ़ शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि को शंखासुर दैत्य मारा गया था. अत: उसी दिन से आरम्भ करके भगवान चार मास तक क्षीर समुद्र में शयन करते हैं, और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं. पुराण के अनुसार भी यह कहा गया है कि, भगवान श्रीहरि ने वामन रूप में दैत्य बलि के यज्ञ में तीन पग धरती दान के रूप में मांगे, भगवान ने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया, दुसरे पग में सम्पूर्ण स्वर्ग लोक ले लिया, और तीसरे पग में बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर पग रखने के लिए कहा. इस प्रकार के दान से भगवान ने प्रसन्न होकर पाताल लोक का अधिपति बना दिया और कहा वर मांगो, बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में नित्य निवास करें. बलि के बंधन में बंधा देख उनकी भार्या लक्ष्मी ने बलि को ही अपना भाई बना लिया और भगवान से बलि के वचन से मुक्त करने का अनुरोध किया. इसी दिन से भगवान विष्णुजी द्वारा वर का पालन करते हुए तीनों देवता 04-04 माह सुतल में निवास करते हैं.
पूजन सामाग्री: –
वेदी, कलश, सप्तधान, पंच पल्लव, रोली, गोपी चन्दन, गंगा जल, दूध, दही, गाय के घी का दीपक, सुपाड़ी, शहद, पंचामृत, मोगरे की अगरबत्ती, ऋतू फल, फुल, आंवला, अनार, लौंग, नारियल, नीबूं, नवैध, केला और तुलसी पत्र व मंजरी.
एकादशी व्रत विधि: –
एकादशी के दिन प्रातःकाल जागें, इसके बाद घर की साफ-सफाई तथा नित्य कर्म से निवृत्त होकर, स्नान कर पवित्र जल का घर में छिड़काव करें. घर के पूजन स्थल अथवा किसी भी पवित्र स्थल पर प्रभु श्री हरि विष्णु की सोने, चाँदी, तांबे अथवा पीतल की मूर्ति की स्थापना करें, उसके बाद उनका षोड्शोपचार सहित पूजन करें. इसके बाद भगवान विष्णु को पीतांबर आदि से विभूषित करें, तत्पश्चात व्रत कथा भी सुननी चाहिए, इसके बाद आरती कर प्रसाद वितरण करें. अंत में सफेद चादर से ढँके गद्दे-तकिए वाले पलंग पर श्री विष्णु को शयन कराना चाहिए. जो व्यक्ति इन चार महीनों के लिए अपनी रुचि अथवा अभीष्ट के अनुसार नित्य व्यवहार के पदार्थों का त्याग और ग्रहण करना चाहिए. देह शुद्धि या सुंदरता के लिए परिमित प्रमाण के पंचगव्य का, वंश वृद्धि के लिए नियमित दूध का, सर्वपापक्षयपूर्वक सकल पुण्य फल प्राप्त होने के लिए एक मुक्त, नक्तव्रत, अयाचित भोजन या सर्वथा उपवास करने का व्रत ग्रहण करना चाहिए.
ध्यान दें…. एकादशी की रात्री को जागरण अवश्य ही करना चाहिए, दुसरे दिन द्वादशी के दिन सुबह ब्राह्मणों को अन्न दान व दक्षिणा देकर इस व्रत को संपन्न करना चाहिए.
अवश्य त्याग करें: –
मधुर स्वर के लिए गुड़ का, दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति के लिए तेल का, शत्रुनाशादि के लिए कड़वे तेल का, सौभाग्य के लिए मीठे तेल का, स्वर्ग प्राप्ति के लिए पुष्पादि भोगों का, प्रभु शयन के दिनों में सभी प्रकार के मांगलिक कार्य जहाँ तक हो सके नहीं करना चाहिए. पलंग पर सोना, पत्नी का संग करना, झूठ बोलना, मांस, शहद और दूसरे का दिया दही-भात आदि, भोजन करना, मूली, पटोल एवं बैंगन आदि का भी त्याग कर देना चाहिए.
कथा: –
देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया कि, सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे. उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी. किंतु भविष्य में क्या हो जाए, यह कोई भी नहीं जानता था. अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि, उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है. उनके राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा. इस दुर्भिक्ष (अकाल) से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई, धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिंडदान, कथा-व्रत आदि की भी कमी हो गई, जब भी मुसीबत पड़ती है तो, धार्मिक कार्यों में मानव की रुचि कहाँ रह जाती है. प्रजा ने राजा के पास जाकर अपनी वेदना प्रकट की और दुहाई दी.
राजा तो इस स्थिति को लेकर पहले से ही दुःखी थे, वे सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौन- सा पाप-कर्म किया है, जिसका दंड मुझे इस रूप में मिल रहा है? फिर इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए, वहाँ विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुँचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया. ऋषिवर ने आशीर्वचनोपरांत कुशल क्षेम पूछा, और फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का प्रयोजन जानना चाहा. तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा, ‘महात्मन’ सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हुआ मैं भी अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूँ. आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है, कृपया इसका समाधान करें.’ यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा, ‘हे राजन सब युगों से सबसे उत्तम यह सतयुग है, इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है.
इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त होता है, ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य जाति को तप करने का अधिकार नहीं है, जबकि आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है, यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है. जब तक वह काल को प्राप्त नहीं होगा, तब तक यह अकाल शांत नहीं होगा. अकाल की शांति उसे मारने से ही संभव है.’ किंतु राजा का हृदय एक नरपराधशूद्र तपस्वी का शमन करने को तैयार नहीं हुआ. उन्होंने कहा ‘हे देव मैं उस निरपराध को मार दूँ, यह बात मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है, कृपा करके आप कोई और उपाय बताएँ.’ महर्षि अंगिरा ने कहा कि, ‘आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत करें, इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी.’ राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया. व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलाधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया.
एकादशी का फल: –
एकादशी प्राणियों के परम लक्ष्य, भगवद भक्ति, को प्राप्त करने में सहायक होती है. यह दिन प्रभु की पूर्ण श्रद्धा से सेवा करने के लिए अति शुभकारी एवं फलदायक माना गया है. इस दिन व्यक्ति इच्छाओं से मुक्त हो कर यदि शुद्ध मन से भगवान की भक्तिमयी सेवा करता है तो वह अवश्य ही प्रभु की कृपापात्र बनता है.
वाल व्यास सुमन जी महाराज,
महात्मा भवन, श्रीरामजानकी मंदिर,
राम कोट, अयोध्या.
सम्पर्क:- 8709142129.