क्रान्ति का बिगुल बज उठा…
इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारतवासियों ने एक दिन के लिए भी पराधीनता स्वीकार नहीं की, आक्रमणकारी चाहे जो हो; भारतीय वीरों ने संघर्ष की ज्योति को सदा प्रदीप्त रखा. कभी वे सफल हुए, तो कभी अहंकार, अनुशासनहीनता या जातीय दुरभिमान के कारण विफलता हाथ लगी. अंग्रेजों को भगाने का पहला संगठित प्रयास वर्ष 1857 में हुआ था. इसके लिए 31 मई को देश की सब छावनियों में एक साथ धावा बोलने की योजना बनी थी; पर दुर्भाग्यवश, यह विस्फोट मेरठ में 10 मई को ही हो गया. अतः यह योजना सफल नहीं हो सकी और स्वतन्त्रता 90 साल पीछे खिसक गयी.
वर्ष 1856 के बाद अंग्रेजों ने भारतीय सैनिकों को गाय और सुअर की चर्बी लगे कारतूस दिये, जिन्हें मुंह से खोलना पड़ता था. हिन्दू गाय को पूज्य मानते थे और मुसलमान सुअर को घृणित. इस प्रकार अंग्रेज दोनों को ही धर्मभ्रष्ट कर रहे थे. सैनिकों को इसके बारे में कुछ पता नहीं था. दिल्ली से 70 कि.मी. दूर स्थित मेरठ उन दिनों सेना का एक प्रमुख केन्द्र था.
वहां छावनी में बाबा औघड़नाथ का प्रसिद्ध शिवमन्दिर था. इसका शिवलिंग स्वयंभू है अर्थात, वह स्वाभाविक रूप से धरती से ही प्रकट हुआ है. इस कारण मन्दिर की सैनिकों तथा दूर-दूर तक हिन्दू जनता में बड़ी मान्यता थी. मन्दिर के शान्त एवं सुरम्य वातावरण को देखकर अंग्रेजों ने यहां सैनिक प्रशिक्षण केन्द्र बनाया. भारतीयों का रंग अपेक्षाकृत सांवला होता है, इसी कारण यहां स्थित पल्टन को ‘काली पल्टन’ और इस मन्दिर को ‘काली पल्टन का मन्दिर’ कहा जाने लगा.
मराठों के अभ्युदय काल में अनेक प्रमुख पेशवाओं ने अपनी विजय यात्रा प्रारम्भ करने से पूर्व यहां पूजा-अर्चना की थी. इस मन्दिर में क्रान्तिकारी लोग दर्शन के बहाने आकर सैनिकों से मिलते और योजना बनाते थे. कहते हैं कि नानासाहब पेशवा भी साधु वेश में हाथी पर बैठकर यहां आते थे. इसलिए लोग उन्हें ‘हाथी वाले बाबा’ कहते थे. नानासाहब, अजीमुल्ला खाँ, रंगो बापूजी गुप्ते आदि ने 31 मई को क्रान्ति की सम्पूर्ण योजना बनाई थी. छावनियों व गांवों में रोटी और कमल द्वारा सन्देश भेजे जा रहे थे; पर अचानक एक दुर्घटना हो गयी.
29 मार्च को बंगाल की बैरकपुर छावनी में मंगल पांडे के नेतृत्व में कुछ सैनिकों ने समय से पूर्व ही विद्रोह का बिगुल बजाकर कई अंग्रेज अधिकारियों का वध कर दिया. इसकी सूचना मेरठ पहुंचते ही अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय सैनिकों से शस्त्र रखवा लिये. सैनिकों को यह बहुत खराब लगा. वे स्वयं को पहले ही अपमानित अनुभव कर रहे थे चुकिं, मेरठ के बाजार में घूमते समय अनेक वेश्याओं ने उन पर चूडि़यां फेंककर उन्हें कायरता के लिए धिक्कारा था.
बंगाल में हुए विद्रोह से उत्साहित तथा वेश्याओं के व्यवहार से आहत सैनिकों का धैर्य जवाब दे गया. उन्होंने 31 मई की बजाय 10 मई, 1857 को ही हल्ला बोलकर सैकड़ों अंग्रेजों को मार डाला. उनके नेताओं ने अनुशासनहीनता के दुष्परिणाम बताते हुए उन्हें बहुत समझाया; पर वे नहीं माने. मेरठ पर कब्जा कर वे दिल्ली चल दिये. कुछ दिन तक दिल्ली भी उनके कब्जे में रही. इस दल में लगभग 250 सैनिक वहाबी मुस्लिम थे. उन्होंने दिल्ली जाकर बिना किसी योजना के उस बहादुरशाह ‘जफर’ को क्रान्ति का नेता घोषित कर दिया, जिसके पैर कब्र में लटक रहे थे.
इस प्रकार समय से पूर्व योजना फूटने से अंगे्रज संभल गये और उन्होंने क्रान्ति को कुचल दिया. मेरठ छावनी में प्राचीन सिद्धपीठ का गौरव प्राप्त ‘काली पल्टन का मन्दिर’ आज नये और भव्य स्वरूप में खड़ा है. वर्ष 1996 ई. में जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी कृष्णबोधाश्रमजी के हाथों मन्दिर का पुनरुद्धार हुआ.
प्रभाकर कुमार.
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The bugle of revolution rang.
History is witness to the fact that Indians did not accept subjugation even for a single day, whoever the aggressor may be; Indian heroes always kept the flame of struggle burning. Sometimes they were successful, sometimes they failed due to arrogance, indiscipline, or caste pride. The first organized attempt to drive out the British took place in the year 1857. For this, a plan was made to attack all the cantonments of the country simultaneously on 31st May; But unfortunately, this blast took place in Meerut only on 10th May. Hence this plan could not be successful and independence was pushed back by 90 years.
After the year 1856, the British gave Indian soldiers cartridges with cow and pig fat, which had to be opened through the mouth. Hindus considered cows to be worshipable and Muslims considered pigs disgusting. In this way, the British were corrupting both of them. The soldiers did not know anything about it. 70 km from Delhi Meerut located far away was a major center of the army in those days.
There was a famous Shiva temple of Baba Aughadnath in the cantonment. Its Shivling is Swayambhu, that is, it has appeared naturally from the earth itself. For this reason, the temple had great recognition among the soldiers and the Hindu people far and wide. Seeing the peaceful and picturesque environment of the temple, the British built a military training center here. The complexion of Indians is relatively dark, which is why the Paltan located here came to be known as ‘Kali Paltan’ and this temple as ‘Kali Paltan ka Mandir’.
During the rise of Marathas, many prominent Peshwas had worshiped here before starting their victory journey. In this temple, revolutionary people used to meet the soldiers on the pretext of darshan and make plans. It is said that Nanasaheb Peshwa also used to come here sitting on an elephant in the guise of a monk. That’s why people used to call him ‘Hathi Wale Baba’. Nanasaheb, Azimullah Khan, Rango Bapuji Gupte, etc had made a complete plan of revolution on 31st May. Messages were being sent in cantonments and villages by bread and lotus, But suddenly an accident happened.
On March 29, some soldiers under the leadership of Mangal Pandey in the Barrackpore cantonment of Bengal killed many British officers by sounding the bugle of rebellion ahead of time. As soon as the information about this reached Meerut, the British officers got the Indian soldiers to keep their arms. The soldiers found it very bad. He was already feeling humiliated because, while roaming in the market of Meerut, many prostitutes threw bangles at him and cursed him for cowardice.
Encouraged by the rebellion in Bengal and hurt by the behavior of prostitutes, the patience of the soldiers paid off. Instead of May 31, he killed hundreds of Britishers on May 10, 1857, by making a hue and cry. Their leaders explained a lot to them by telling them the ill effects of indiscipline, But they did not agree. After capturing Meerut, he went to Delhi. Delhi also remained under their control for a few days. About 250 soldiers in this team were Wahhabi Muslims. He went to Delhi without any plan and declared that Bahadurshah ‘Zafar’ was the leader of the revolution, whose feet were hanging in the grave.
In this way, due to the premature bursting of the plan, the British were careful and they crushed the revolution. The ‘Kali Paltan Ka Mandir’, which was the glory of the ancient Siddhapeeth in Meerut Cantonment, is standing today in a new and grand form. In the year 1996 AD, the temple was renovated by the hands of Jagadguru Shankaracharya Swami Krishnabodhashramji.
Prabhakar Kumar.