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चौपाई :-
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जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई ।।
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ ।।
वाल्व्याससुमनजीमहाराज श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि, हनुमानजी के पूछने पर विभीषणजी ने माता के दर्शन की सब युक्तियाँ बताईं. तब पवनपुत्र हनुमानजी ने विभीषणजी से विदा लेकर चले. फिर हनुमानजी ने पहले मसक (मच्छर) का रूप धरकर अशोक वन में गए जहाँ माता सीताजी रहती थी.
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि जामा।।
कृस तन सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि, हनुमानजी अशोक वन में माता सीताजी को देखकर मन में ही प्रणाम किया. उन्हें बैठे-बैठे ही रात्री के चारों प्रहर बीत जाते हैं. मातासीता का शरीर दुबला हो गया है सिर(माथे) पर जटाओं की एक वेणी(लट) है और हृदय में श्रीरघुनाथजी के गुण समूहों का जाप करती रहती हैं.
दोहा :-
निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि,श्री जानकीजी आँखों को अपने चरणों(पैरों)में लगाए हुए नीचे की और देख रहीं हैं और मन ही मन श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में लीन हैं. माता जानकी के दुःख को देखकर पवनपुत्र हनुमानजी बहुत ही दु:खी हुए.
चौपाई :-
तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई।।
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि, हनुमान् जी वृक्ष के पत्तो में छिप रहे और विचार करने लगे की हे भाई! क्या करूँ. कैसे माता का दुःख दूर करूँ ? ठीक उसी समय बहुत सी स्त्रियो को साथ लिए सज-धजकर रावण वहाँ आया.
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा।।
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि, उस दुष्ट ने सीता जी को बहुत प्रकार से समझाया साथ ही साम, दाम, भय और भेद भी दिखलाया. रावण ने कहा कि – हे सुमुखि ! सुनो मंदोदरी आदि सब रानियो को…
तव अनुचरीं करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा।।
तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि, रावण ने कहा कि मैं अपनी सभी रानियों को तुम्हारी दासी बना दूँगा, यह मेरा प्रण है. तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही ! अपने परम स्नेही कोसलाधीश श्री रामचन्द्रंजी का स्मरण करके जानकी जी तिनके की आड़ में परदा करके कहने लगी.
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा।।
अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि, हे दशमुख ! सुनो, जुगनू के प्रकाश से कभी कमलिनी खिल सकती है? जानकी जी फिर कहती है- तुम अपने लिए भी ऐसा ही मन में समझ ले रे दुष्ट ! तुझे श्री रघुवीर के बाण की खबर नहीं है.
सठ सूने हरि आनेहि मोहि। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि, रे पापी ! तुने मुझे सूने में हर लाया है. रे अधम! निर्लज्ज! तुझे लज्जा नहीं आती है?
दोहा :-
आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि, अपने को जुगनू के समान और श्रीरामचंद्रजी को सूर्य के समान सुनकर साथ ही माता सीताजी के कठोर वचनो को सुनकर रावण तलवार निकालकर बड़े गुस्से में आकर बोला…
चौपाई :-
सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना।।
नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि, सीता ! तूने मेरा अपमान किया है. मैं चाहूँ तो अभी तेरा सिर इस कठोर कृपाण से काट डालूँगा. नही तो अब भी समय है जल्दी मेरी बात मान ले. हे सुमुखि ! अगर तुने मेरी बात नहीं मानी तो तुझे अपने जीवन से हाथ धोना पड़ेगा.
स्याम सरोज दाम सम सुंदर। प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर।।
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा। सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि, तब माता सीताजी ने कहा – हे दशग्रीव! प्रभु की भुजा जो श्याम कलम की माला के समान सुंदर और हाथी की सूँड के समान पुष्ट तथा विशाल है. या तो वह भुजा ही मेरे कंठ में पड़ेगी या तेरी भयानक तलवार ही. अरे शठ ! सुनो, यही मेरा सच्चा प्रण है.
चंद्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल संजातं।।
सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि, माता सीताजी कहती हैं- हे चन्द्रहास(तलवार)! श्रीरघुनाथजी के विरह कि अग्नि से उत्पन्न मेरी बड़ी भारी जलन को तू हर ले. हे तलवार ! तू शीतल, तीव्र और श्रेष्ठ धारा बहाती है इसीलिए तू मेरे दुःख के बोझ को हर ले.
सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनयाँ कहि नीति बुझावा।।
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई। सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि, माता सीताजी ये वचन सुनते ही रावण मारने के लिए दौड़ा. तभी मय दानव की पुत्री(बेटी) मन्दोदरी ने नीति कहकर उसे समझाया. तब रावण ने सभी दासियो को बुलाकर कहा कि जाकर सीता को बहुत प्रकार से भय दिखलाओ.
मास दिवस महुँ कहा न माना। तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि, यदि महीने भर में यह मेरा कहा न माने तो मैं इसे तलवार निकालकर मार डालूँगा.
दोहा :-
भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद।
सीतहि त्रास देखावहि धरहिं रूप बहु मंद ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि, यह कहकर रावण अपने महल में चला गया. वहीँ,राक्षसियो के समूह बहुत से बुरे रूप धरकर सीता जी को भय दिखलाने लगी.
चौपाई :-
त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका।।
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि, उन राक्षसियो के समूह में एक त्रिजटा नाम की राक्षसी थी. उसने सबो को बुलाकर अपना स्वप्न सुनाया और कहा कि सीताजी की सेवा करके अपना कल्याण कर लो.
सपनें बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी।।
खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि, त्रिजटा नाम की राक्षसी ने कहा कि, मैंने स्वप्न में देखा कि, एक बंदर ने लंका जला दी साथ ही राक्षसो की सारी सेना मार डाली. वहीँ, रावण नंगा है और गदहे पर सवार. उसके सिर मुँडे हुए है और बीसो भुजाएँ कटी हुई है.
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लंका मनहुँ बिभीषन पाई।।
नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई ।।
यह सपना में कहउँ पुकारी। होइहि सत्य गएँ दिन चारी।।
तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि, इस प्रकार से वह दक्षिण यमपुरी की दिशा की ओर जा रहा है और मानो लंका विभीषण ने पाई है. नगर मे श्रीरामचन्द्रजी की दुहाई. तभी प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने सीता जी को बुला भेजा है.
वालव्याससुमनजीमहाराज, महात्मा भवन,
श्रीरामजानकी मंदिर, राम कोट,
अयोध्या. 8544241710.