उपन्यासकार दुर्गा प्रसाद खत्री
दुर्गा प्रसाद खत्री हिन्दी के प्रसिद्ध तिलिस्मी उपन्यासकार थे. उनका जन्म 12 जुलाई 1895 को वाराणसी (भूतपूर्व काशी) में हुआ था. उनके पिता का नाम प्रख्यात तिलस्मी उपन्यासकार देवकीनन्दन खत्री था.
वर्ष 1912 ई. में विज्ञान और गणित में विशेष योग्यता के साथ स्कूल लीविंग परीक्षा उन्होंने पास कर उन्होंने लिखना आरंभ किया और डेढ़ दर्जन से अधिक उपन्यास लिखे.
तिलस्मी उपन्यास में दुर्गा प्रसाद खत्री ने अपने पिता की परंपरा को आगे बढ़ाया वहीं , जासूसी उपन्यासों में राष्ट्रीय भावना और क्रांतिकारी आंदोलन को प्रतिबिम्बित किया.
कृतियाँ: –
तिलस्मी ऐयारी उपन्यास,
जासूसी उपन्यास – सुवर्णरेखा, स्वर्गपुरी, सागर सम्राट् साकेत.
उनके उपन्यासों में – प्रतिशोध, लालपंजा, रक्तामंडल, सुफेद शैतान जासूसी उपन्यास होते हुए भी राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत हैं और भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन को प्रतिबिंबित करते हैं.
दुर्गा प्रसाद खत्री ने सामाजिक और राष्ट्रीय समस्याओं को जासूसी वातावरण के साथ ऐयारी जासूसी-परंपरा को मिलाकर एक नई परंपरा को विकसित करने की कोशिस की.
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फ़िल्म निर्देशक बिमल राय
बिमल राय (12 जुलाई 1909 – 8 जनवरी 1966) भारतीय सिनेमा के एक प्रतिष्ठित फिल्म निर्देशक, निर्माता और पटकथा लेखक थे. वे भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग के महत्वपूर्ण स्तंभों में से एक थे और उन्होंने कई प्रतिष्ठित और प्रशंसित फिल्मों का निर्माण किया।
बिमल राय का जन्म 12 जुलाई, 1909 को पूर्व बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) के एक ज़मींदार परिवार में हुआ था और वे बंगाली सिनेमा से हिंदी सिनेमा में आए थे. उनकी फिल्मों में समाज के विभिन्न मुद्दों का गहरा चित्रण मिलता है और वे अक्सर मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक न्याय के विषयों पर आधारित होती हैं.
प्रमुख फिल्मों: –
दो बीघा ज़मीन (1953): – यह फिल्म एक गरीब किसान की कहानी है जो अपनी जमीन बचाने के लिए संघर्ष करता है. इस फिल्म ने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की और कई पुरस्कार जीते.
देवदास (1955): – शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित यह फिल्म एक त्रासदीपूर्ण प्रेम कहानी है, जिसमें दिलीप कुमार ने मुख्य भूमिका निभाई.
परिणीता (1953): – शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित एक और सफल फिल्म, जिसमें अशोक कुमार और मीना कुमारी ने मुख्य भूमिकाएं निभाईं.
बंदिनी (1963): – यह फिल्म एक महिला कैदी की कहानी है, जिसमें नूतन ने प्रमुख भूमिका निभाई. इस फिल्म को भी काफी सराहा गया और इसे कई पुरस्कार मिले.
सुजाता (1959): – यह फिल्म एक अछूत लड़की की कहानी है जो समाज में अपने स्थान के लिए संघर्ष करती है. नूतन और सुनील दत्त ने इसमें मुख्य भूमिकाएं निभाईं.
बिमल राय की फिल्मों में उत्कृष्ट कथानक, संवेदनशील निर्देशन और समाज के यथार्थ का सजीव चित्रण देखने को मिलता है. उनकी फिल्मों ने भारतीय सिनेमा को एक नई दिशा दी और वे आज भी सिने-प्रेमियों के बीच बेहद लोकप्रिय हैं. उनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा और भारतीय सिनेमा में उनकी धरोहर अमूल्य है.
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अभिनेत्री सुलक्षणा पंडित
सुलक्षणा पंडित एक भारतीय अभिनेत्री और पार्श्व गायिका हैं, जिन्होंने 1970 – 80 के दशक में हिंदी सिनेमा में अपनी पहचान बनाई. उनका जन्म 12 जुलाई 1954 को हुआ था. वे प्रसिद्ध संगीतकार और गायक परिवार से संबंध रखती हैं; उनके भाई जतिन-ललित एक प्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी हैं और उनकी बहन विजयता पंडित भी एक अभिनेत्री हैं.
प्रमुख फ़िल्में: –
उलझन (1975): – इस फिल्म में उन्होंने संजीव कुमार के साथ काम किया और अपनी अभिनय क्षमता का प्रदर्शन किया।
आंधी (1975): – इस फिल्म में उन्होंने एक छोटी लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. यह फिल्म भारतीय राजनीति पर आधारित थी और सुचित्रा सेन और संजीव कुमार ने मुख्य भूमिकाएं निभाईं.
अपना बना लो (1982): – इस फिल्म में सुलक्षणा ने मुख्य भूमिका निभाई और उनके साथ राज बब्बर और दीपक पाराशर थे.
संकल्प (1975): – इस फिल्म में उन्होंने अपने अभिनय से दर्शकों का दिल जीता.
सुलक्षणा पंडित एक पार्श्व गायिका के रूप में भी जानी जाती हैं. उन्होंने कई फिल्मों में अपनी आवाज दी और उनकी गायकी को भी काफी सराहा गया.
प्रमुख गाने: –
“तुम्हें दिल से कैसे जुदा हम करेंगे” (आंधी),
“बेमिसाल है ये प्यार” (ईमान धर्म),
“बंधन टूटे ना” (कार्तिकेय),
सुलक्षणा पंडित का कैरियर और उनका योगदान भारतीय सिनेमा और संगीत में महत्वपूर्ण है. उनकी प्रतिभा और समर्पण के कारण उन्हें आज भी प्रशंसकों और सिनेमा प्रेमियों द्वारा याद किया जाता है.
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क्रिकेटर और कमेंटेटर संजय मांजरेकर
संजय मांजरेकर एक पूर्व भारतीय क्रिकेटर और वर्तमान क्रिकेट कमेंटेटर हैं. उनका जन्म 12 जुलाई 1965 को मुम्बई, महाराष्ट्र में हुआ था. वे अपने समय के प्रमुख बल्लेबाजों में से एक थे और अब क्रिकेट के प्रमुख विश्लेषकों और कमेंटेटरों में से एक हैं.
संजय मांजरेकर ने अपने क्रिकेट कैरियर में भारत के लिए 37 टेस्ट और 74 वनडे मैच खेले. उनका टेस्ट कैरियर 1987 – 96 तक रहा और वनडे कैरियर 1988 -96 तक चला. वे दाएं हाथ के बल्लेबाज थे और मिडल ऑर्डर में खेलते थे.
संजय मांजरेकर ने टेस्ट क्रिकेट में 37 मैच खेले जहां उन्होंने 37.14 की औसत से 2043 रन बनाएं जिनमे, 04 शतक और 09 अर्धशतक हैं वहीं , वनडे क्रिकेट में 74 मैच खेले जहां उन्होंने 33.23 की औसत से 1994 रन बनाएं जिनमे, 01 शतक और 15 अर्धशतक है.
उपलब्धियां: –
1989-90 पाकिस्तान दौरा: – संजय मांजरेकर ने पाकिस्तान के खिलाफ टेस्ट सीरीज में 569 रन बनाए, जिसमें दो शतक और दो अर्धशतक शामिल थे. इस प्रदर्शन ने उन्हें प्रमुख बल्लेबाजों में शामिल किया।
वेस्टइंडीज दौरा 1991: – इस दौरे पर मांजरेकर ने अपने उत्कृष्ट बल्लेबाजी कौशल का प्रदर्शन किया, खासकर तेज गेंदबाजों के खिलाफ.
क्रिकेट से संन्यास लेने के बाद, संजय मांजरेकर ने क्रिकेट कमेंट्री और विश्लेषण में अपना कैरियर बनाया. वे स्टार स्पोर्ट्स, ईएसपीएन और अन्य प्रमुख स्पोर्ट्स नेटवर्क के साथ जुड़े हुए हैं. उनकी विश्लेषणात्मक क्षमता और क्रिकेट ज्ञान ने उन्हें एक प्रतिष्ठित कमेंटेटर बना दिया है. उनके कमेंट्री स्टाइल में स्पष्टता और क्रिकेट की गहरी समझ देखने को मिलती है.
संजय मांजरेकर ने “Imperfect” नामक एक आत्मकथा भी लिखी है, जिसमें उन्होंने अपने क्रिकेट कैरियर और व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों को साझा किया है. इस पुस्तक को क्रिकेट प्रेमियों द्वारा अच्छी तरह से सराहा गया है.
संजय मांजरेकर का योगदान क्रिकेट के मैदान पर और उसके बाहर, दोनों ही जगह महत्वपूर्ण है. उनकी बल्लेबाजी और कमेंट्री ने उन्हें भारतीय क्रिकेट का एक प्रमुख चेहरा बना दिया है.
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सुंदर पिचाई
सुंदर पिचाई, जिनका पूरा नाम पिचाई सुंदरराजन है, एक भारतीय-अमेरिकी व्यवसायी हैं जो गूगल एलएलसी और इसकी पैरेंट कंपनी अल्फाबेट इंक. के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (CEO) हैं. उनका जन्म 10 जून 1972 को मदुरै, तमिलनाडु, भारत में हुआ था.
सुंदर पिचाई की प्रारंभिक शिक्षा जवाहर विद्यालय, अशोक नगर, चेन्नई में हुई. उन्होंने आईआईटी खड़गपुर से मेटलर्जिकल इंजीनियरिंग में बी.टेक किया, जहाँ उन्हें ‘सिल्वर मेडल’ भी मिला. इसके बाद, उन्होंने स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी से मैटेरियल्स साइंस और इंजीनियरिंग में एम.एस. की डिग्री प्राप्त की और फिर व्हार्टन स्कूल, यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिल्वेनिया से एमबीए किया, जहाँ उन्हें ‘साइबर्ट स्कॉलर’ और ‘पामर स्कॉलर’ के खिताब से नवाजा गया.
सुंदर पिचाई 2004 में गूगल में शामिल हुए. उन्होंने गूगल टूलबार और गूगल क्रोम जैसे प्रमुख उत्पादों के विकास का नेतृत्व किया. क्रोम आज दुनिया का सबसे अधिक उपयोग किया जाने वाला वेब ब्राउज़र है. पिचाई की नेतृत्व क्षमता और नवाचार के प्रति उनकी दृष्टि ने उन्हें गूगल में तेज़ी से ऊंचाइयों तक पहुंचाया. वे 2015 में गूगल के सीईओ बने, और 2019 में अल्फाबेट के सीईओ भी बन गए.
प्रमुख उपलब्धियां: –
गूगल क्रोम: – पिचाई के नेतृत्व में विकसित, गूगल क्रोम ने वेब ब्राउज़िंग के अनुभव को नया आयाम दिया और गूगल को एक प्रमुख इंटरनेट कंपनी के रूप में स्थापित किया.
एंड्रॉइड: – उन्होंने एंड्रॉइड डिवीजन का भी नेतृत्व किया, जिसने गूगल को मोबाइल ऑपरेटिंग सिस्टम के क्षेत्र में भी एक अग्रणी खिलाड़ी बनाया.
उन्होंने गूगल ड्राइव और जीमेल जैसे उत्पादों के विकास में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. पिचाई को कई बार फॉर्च्यून मैगज़ीन की ‘बिजनेस पर्सन ऑफ द ईयर’ लिस्ट में शामिल किया गया. वर्ष 2019 में, वे फॉर्च्यून की ‘वर्ल्ड्स ग्रेटेस्ट लीडर्स’ लिस्ट में शामिल हुए.
सुंदर पिचाई की पत्नी का नाम अंजलि पिचाई है, जो आईआईटी खड़गपुर में उनकी सहपाठी थीं. उनके दो बच्चे हैं। पिचाई का व्यक्तिगत जीवन बेहद साधारण और निजी है, और वे अपनी सादगी और विनम्रता के लिए जाने जाते हैं.
सुंदर पिचाई का जीवन और कैरियर कई युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत है. उन्होंने अपनी मेहनत, लगन और दूरदृष्टि से वैश्विक स्तर पर एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है और भारतीय मूल के लोगों को गर्व महसूस कराया है.
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सदाबहार अभिनेता राजेंद्र कुमार
राजेंद्र कुमार, जिन्हें “सदाबहार अभिनेता” के नाम से जाना जाता है, भारतीय सिनेमा के एक प्रमुख और लोकप्रिय अभिनेता थे. उनका जन्म 20 जुलाई 1929 को सियालकोट (अब पाकिस्तान) में हुआ था और उनका असली नाम राजेंद्र कुमार तुली था. भारतीय फिल्म उद्योग में वे अपने उत्कृष्ट अभिनय और बेहतरीन फिल्मों के लिए जाने जाते हैं.
राजेंद्र कुमार ने 1950 के दशक में फिल्मी कैरियर की शुरुआत की और 1960 के दशक में वे बॉलीवुड के सबसे बड़े स्टार्स में से एक बन गए. उनकी फिल्मों को दर्शकों ने बहुत पसंद किया और उन्होंने बॉक्स ऑफिस पर लगातार हिट फिल्में दीं.
प्रमुख फिल्मों: –
मदर इंडिया (1957): – यह फिल्म भारतीय सिनेमा की सबसे प्रतिष्ठित फिल्मों में से एक है. राजेंद्र कुमार ने इसमें नरगिस के बेटे की भूमिका निभाई थी.
धूल का फूल (1959): – इस फिल्म में राजेंद्र कुमार ने मुख्य भूमिका निभाई थी और यह फिल्म बड़ी हिट साबित हुई.
संगम (1964): – राज कपूर और वैजयंतीमाला के साथ इस फिल्म में राजेंद्र कुमार ने अपनी उत्कृष्ट अभिनय क्षमता का प्रदर्शन किया.
आरजू (1965): – साधना और राजेंद्र कुमार की यह फिल्म एक रोमांटिक क्लासिक है.
सूरज (1966): – यह फिल्म भी बहुत बड़ी हिट साबित हुई और इसमें उन्होंने वैजयंतीमाला के साथ अभिनय किया.
राजेंद्र कुमार ने अपने कैरियर में कई पुरस्कार जीते, जिनमें प्रमुख हैं: –
फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड: – भारतीय सिनेमा में उनके योगदान को मान्यता देने के लिए उन्हें यह पुरस्कार दिया गया.
पद्म श्री: – भारत सरकार ने उन्हें 1969 में इस सम्मान से नवाजा.
राजेंद्र कुमार का विवाह शुक्ला से हुआ और उनके तीन बच्चे हैं: बेटा कुमार गौरव, जो खुद भी एक अभिनेता हैं, और दो बेटियां, दीप्ति और कंचन. राजेंद्र कुमार का परिवार उनके कैरियर में हमेशा उनके साथ खड़ा रहा.
राजेंद्र कुमार की लोकप्रियता और उनका प्रभाव आज भी भारतीय सिनेमा में महसूस किया जाता है. उन्हें “जुबली कुमार” का खिताब भी मिला क्योंकि उनकी कई फिल्में लगातार सिल्वर जुबली हिट साबित हुईं. उनकी फिल्मों और उनके अभिनय का जादू आज भी दर्शकों के दिलों में बसा हुआ है.
राजेंद्र कुमार का निधन 12 जुलाई 1999 को मुंबई में हुआ, लेकिन उनकी यादें और उनका योगदान भारतीय सिनेमा में हमेशा जिंदा रहेंगे.
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पहलवान दारा सिंह
दारा सिंह, जिनका पूरा नाम दारा सिंह रंधावा था, भारतीय पहलवान और अभिनेता थे. उनका जन्म 19 नवंबर 1928 को अमृतसर, पंजाब के धरमूचक गाँव में हुआ था. वे भारतीय कुश्ती के एक प्रमुख चेहरा थे और बाद में उन्होंने भारतीय फिल्म और टेलीविजन उद्योग में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया.
दारा सिंह ने अपने कुश्ती कैरियर की शुरुआत बहुत कम उम्र में की. उन्होंने 1940 के दशक में कुश्ती में कदम रखा और 1950 – 60 के दशक में वे अपने कुश्ती के कारनामों के लिए प्रसिद्ध हो गए.
कुश्ती कैरियर: –
रुस्तम-ए-हिंद: – दारा सिंह ने 1954 में रुस्तम-ए-हिंद का खिताब जीता, जो भारतीय कुश्ती का सबसे प्रतिष्ठित खिताब है.
रुस्तम-ए-रंगून: – उन्होंने रंगून (अब यांगून, म्यांमार) में भी कुश्ती प्रतियोगिताएं जीतीं और उन्हें रुस्तम-ए-रंगून का खिताब मिला.
कॉमनवेल्थ चैंपियन: – वर्ष 1959 में दारा सिंह ने कॉमनवेल्थ चैंपियनशिप जीती, जिससे उनकी अंतरराष्ट्रीय पहचान बनी.
डब्ल्यूडब्ल्यूई और अन्य अंतरराष्ट्रीय कुश्ती मुकाबले: – दारा सिंह ने अमेरिका, कनाडा, जापान और अन्य देशों में भी कुश्ती मुकाबलों में भाग लिया और उन्होंने कई अंतरराष्ट्रीय पहलवानों को हराया.
कुश्ती के बाद, दारा सिंह ने अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत की. वे 1960 -70 के दशक में भारतीय सिनेमा के एक प्रमुख एक्शन हीरो बने.
प्रमुख फिल्मों: –
किंग कांग (1962): – इस फिल्म में दारा सिंह ने मुख्य भूमिका निभाई और यह फिल्म बहुत बड़ी हिट साबित हुई.
फौलाद (1963): – यह भी एक बड़ी हिट थी और इसमें दारा सिंह का अभिनय दर्शकों को बहुत पसंद आया.
धर्मेंद्र और मीना कुमारी के साथ कई फिल्में: – दारा सिंह ने धर्मेंद्र और मीना कुमारी जैसे बड़े सितारों के साथ भी काम किया.
दारा सिंह ने टेलीविजन पर भी काम किया और उन्हें विशेष पहचान मिली महाभारत (1988-90) में हनुमान की भूमिका निभाने के लिए. उनका हनुमान का किरदार आज भी दर्शकों के दिलों में बसा हुआ है. दारा सिंह का विवाह बच्चन कौर से हुआ था और उनके दो बेटे और तीन बेटियाँ हैं. उनका बेटा विंदू दारा सिंह भी एक अभिनेता और पहलवान है.
पुरस्कार और सम्मान: –
पद्मश्री (1998): – भारतीय सरकार ने दारा सिंह को पद्मश्री से सम्मानित किया.
वर्ल्ड कुश्ती एंटरटेनमेंट (WWE) हॉल ऑफ फेम: – वर्ष 2018 में उन्हें मरणोपरांत WWE हॉल ऑफ फेम में शामिल किया गया.
दारा सिंह का निधन 12 जुलाई 2012 को मुंबई में हुआ. उनके निधन से भारतीय खेल और मनोरंजन जगत में एक युग का अंत हो गया, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है. दारा सिंह ने अपने अद्वितीय कौशल और परिश्रम से कुश्ती और सिनेमा दोनों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. उनकी जीवन यात्रा कई लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत है.
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खलनायक और चरित्र अभिनेता प्राण
प्राण, जिनका पूरा नाम प्राण कृष्ण सिकंद था, भारतीय सिनेमा के एक प्रमुख खलनायक और चरित्र अभिनेता थे. उनका जन्म 12 फरवरी 1920 को दिल्ली में हुआ था. प्राण ने अपने अद्वितीय अभिनय कौशल और विशिष्ट शैली से हिंदी फिल्म उद्योग में एक अलग पहचान बनाई.
प्राण का जन्म एक धनी पंजाबी परिवार में हुआ था. उनके पिता लक्ष्मी नारायण सिकंद एक सरकारी ठेकेदार थे. प्राण की शिक्षा लाहौर, देहरादून और मीरुत में हुई. उन्होंने अपनी कैरियर की शुरुआत बतौर फोटोग्राफर की थी, लेकिन किस्मत ने उन्हें फिल्म उद्योग की ओर मोड़ दिया.
प्राण ने 1940 में पंजाबी फिल्म “यमला जट” से अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत की. इसके बाद, उन्होंने कई पंजाबी और हिंदी फिल्मों में काम किया. विभाजन के बाद, वे मुंबई आ गए और हिंदी फिल्म उद्योग में खुद को स्थापित किया. प्राण का कैरियर सात दशकों तक चला और उन्होंने लगभग 350 फिल्मों में काम किया.
प्रमुख फिल्मों: –
जंजीर (1973): – इस फिल्म में प्राण ने “शेर खान” की भूमिका निभाई, जो आज भी भारतीय सिनेमा के सबसे यादगार किरदारों में से एक है.
मधुमती (1958): – इस फिल्म में उनके अभिनय को काफी सराहा गया.
उपकार (1967): – इस फिल्म में उन्होंने मलंग चाचा की भूमिका निभाई, जो बेहद प्रसिद्ध हुई.
पूरब और पश्चिम (1970): – इस फिल्म में उनके द्वारा निभाया गया किरदार भी काफी लोकप्रिय हुआ.
प्राण ने अपने कैरियर के अधिकांश हिस्से में खलनायक की भूमिकाएं निभाईं. उनके अभिनय की विशेषता थी उनकी संवाद अदायगी और विशिष्ट स्टाइल, जो उन्हें अन्य खलनायकों से अलग बनाती थी. वे एक ऐसे खलनायक थे जिन्हें दर्शक प्यार और नफरत दोनों करते थे.
वर्ष 1970 और 1980 के दशक में, प्राण ने चरित्र भूमिकाएं निभानी शुरू कीं और इन भूमिकाओं में भी अपनी छाप छोड़ी. उनकी भूमिकाएं अधिकतर प्रेरणादायक और सहायक भूमिकाएं थीं, जैसे कि ‘जंजीर’ में शेर खान और ‘उपकार’ में मलंग चाचा.
प्राण को अपने उत्कृष्ट अभिनय के लिए कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए. उनमें से कुछ प्रमुख हैं: –
फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार: – उन्होंने यह पुरस्कार कई बार जीता.
फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड: – वर्ष 1997 में उन्हें यह सम्मान मिला.
पद्म भूषण: – वर्ष 2001 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया.
दादा साहेब फाल्के अवार्ड: वर्ष 2013 में उन्हें भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान से नवाजा गया.
प्राण का निधन 12 जुलाई 2013 को मुंबई में हुआ. उनके निधन से भारतीय सिनेमा में एक युग का अंत हो गया, लेकिन उनकी फिल्मों और उनके द्वारा निभाए गए यादगार किरदारों के माध्यम से वे हमेशा याद किए जाएंगे.
प्राण का योगदान भारतीय सिनेमा में अद्वितीय है और उनके अभिनय का जादू आज भी दर्शकों के दिलों में बसा हुआ है. उनके किरदार, चाहे वह खलनायक हो या चरित्र अभिनेता, भारतीय सिनेमा के इतिहास में अमर रहेंगे.
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व्यंग्य कवि हुल्लड़ मुरादाबादी
हुल्लड़ मुरादाबादी, जिनका असली नाम रणजीत सिंह था, भारतीय हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध व्यंग्य कवि थे, उनका जन्म 29 मई 1942 को मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ था. अपने हास्य और व्यंग्य से भरपूर कविताओं के माध्यम से उन्होंने भारतीय समाज और राजनीति पर तीखा प्रहार किया और लोगों को हंसाते-हंसाते गहरे संदेश दिए.
हुल्लड़ मुरादाबादी का जन्म एक सामान्य परिवार में हुआ था. उनकी प्रारंभिक शिक्षा मुरादाबाद में ही हुई और उन्होंने स्नातक की पढ़ाई भी वहीं से पूरी की. उनके पिता एक सरकारी अधिकारी थे और घर में साहित्य का माहौल था, जिससे वे प्रारंभ से ही साहित्य की ओर आकर्षित हुए.
हुल्लड़ मुरादाबादी ने अपनी कविताओं में समाज और राजनीति की विडंबनाओं को बड़े ही मनोरंजक और हास्यपूर्ण अंदाज में प्रस्तुत किया. उनके व्यंग्य और हास्य कविताएं जनमानस में बेहद लोकप्रिय थीं। उनके काव्य संग्रहों और काव्य पाठों ने उन्हें व्यापक पहचान दिलाई.
प्रमुख काव्य संग्रहों: –
“हास्य व्यंग्य के हुल्लड़”: – इस संग्रह में उनकी प्रमुख हास्य कविताओं का संकलन है.
“हुल्लड़ हुलास”: – यह उनकी व्यंग्य कविताओं का एक और प्रसिद्ध संग्रह है.
“हुल्लड़ की हंसी”: – इस संग्रह में उनकी हंसी से भरी कविताओं का संग्रह है, जो समाज के विभिन्न पहलुओं पर कटाक्ष करती हैं.
प्रसिद्ध कविताएँ: –
“राम का डर”: – इस कविता में उन्होंने भगवान राम के प्रति भारतीय समाज की श्रद्धा और भय को व्यंग्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया है.
“साठा सो पाठा”: – इस कविता में उन्होंने बुजुर्गों के अनुभव और ज्ञान को हास्यपूर्ण तरीके से दर्शाया है.
“नेता जी का चश्मा”: – इस कविता में उन्होंने नेताओं की दोगली नीति और उनकी वादाखिलाफी को व्यंग्य के माध्यम से उजागर किया है.
हुल्लड़ मुरादाबादी को उनके साहित्यिक योगदान के लिए कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए. उन्हें हिंदी साहित्य के क्षेत्र में विशेष रूप से हास्य और व्यंग्य के लिए याद किया जाता है. उनकी कविताओं में समाज की गहरी समझ और राजनीतिक चेतना का प्रतिबिंब मिलता है.
हुल्लड़ मुरादाबादी का निधन 12 जुलाई 2014 को हुआ. उनके निधन से हिंदी साहित्य में हास्य और व्यंग्य के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण युग का अंत हो गया. उनकी कविताएँ आज भी पाठकों और श्रोताओं को हंसाने और सोचने पर मजबूर करती हैं.
हुल्लड़ मुरादाबादी का योगदान हिंदी साहित्य और विशेष रूप से हास्य और व्यंग्य के क्षेत्र में अमूल्य है. उनकी कविताएँ न केवल मनोरंजन प्रदान करती हैं, बल्कि समाज की वास्तविकताओं को भी उजागर करती हैं. वे हिंदी साहित्य के एक महत्वपूर्ण स्तंभ थे और उनकी रचनाएँ हमेशा याद की जाएंगी.