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व्यक्ति विशेष

भाग – 155.

नूर जहाँ जहाँगीर

नूर जहाँ जिनका वास्तविक नाम मेहरून्निसा था. और वो मुग़ल सम्राट जहाँगीर की पत्नी थीं. उनका जन्म 31 मई 1577 को हुआ था और उनके पिता का नाम मिर्ज़ा ग़ियास बेग था, जो बाद में अब्दुल हसन अंसारी के नाम से भी जाने गए.

मेहरून्निसा का विवाह पहले शेर अफ़ग़ान खान से हुआ था, लेकिन शेर अफ़ग़ान की मृत्यु के बाद, 1611 में, उनकी मुलाकात जहाँगीर से हुई और उन्होंने विवाह किया. विवाह के बाद, जहाँगीर ने उन्हें ‘नूर जहाँ’ (अर्थात् ‘दुनिया का प्रकाश’) का खिताब दिया.

नूर जहाँ एक अत्यंत प्रभावशाली महिला थीं. वह न केवल एक रानी थीं, बल्कि एक कुशल राजनीतिज्ञ, रणनीतिकार, और कलाकार भी थीं. उन्होंने मुग़ल दरबार में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए और कई बार सम्राट जहाँगीर के स्थान पर शासन भी किया. उनके कार्यों और नीतियों ने मुग़ल साम्राज्य को स्थिरता और समृद्धि प्रदान की.

नूर जहाँ ने कई वास्तुकला परियोजनाओं को भी प्रोत्साहित किया और उनके समय में कई सुंदर बाग़-बग़ीचे और इमारतें बनाई गईं. उनकी कला और संस्कृति के प्रति गहरी रुचि थी और उन्होंने मुग़ल कला को समृद्ध किया. नूर जहाँ की मृत्यु 1645 में हुई थी.

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वीरांगना अहिल्याबाई होल्कर

अहिल्याबाई होल्कर एक महान मराठा शासिका थीं, जिन्होंने अपने न्यायप्रिय और धर्मपरायण शासन के लिए ख्याति पाई. उनका जन्म 31 मई 1725 को चौंडी, अहमदनगर, महाराष्ट्र में हुआ था. उनके पिता का नाम मनकोजी शिंदे था, जो एक साधारण किसान थे.

अहिल्याबाई का विवाह खांडेराव होल्कर से हुआ था, जो इंदौर के होल्कर राज्य के उत्तराधिकारी थे. उनके ससुर, मल्हारराव होल्कर, मराठा साम्राज्य के एक प्रमुख सेनानायक थे. वर्ष 1754 में खांडेराव की मृत्यु के बाद, अहिल्याबाई ने राज्य की बागडोर संभाली.

वर्ष 1767 में मल्हारराव होल्कर की मृत्यु के बाद, अहिल्याबाई ने औपचारिक रूप से इंदौर की सत्ता संभाली. उन्होंने अपने शासनकाल में न्याय, धर्म, और प्रजा के कल्याण को सर्वोपरि रखा. उनकी शासन व्यवस्था में किसानों और व्यापारियों को विशेष रूप से प्रोत्साहित किया गया. उन्होंने अपने राज्य में अनेक सड़कों, कुओं, मंदिरों और धर्मशालाओं का निर्माण कराया.

अहिल्याबाई होल्कर का शासनकाल समाज सुधार के लिए भी जाना जाता है. उन्होंने महिलाओं की शिक्षा और उनके अधिकारों के लिए कार्य किया. वह धार्मिक स्थलों की पुनर्निर्माण और विकास में भी सक्रिय रहीं. काशी विश्वनाथ मंदिर, सोमनाथ मंदिर, और कई अन्य प्रमुख धार्मिक स्थलों का पुनर्निर्माण उनके प्रयासों का हिस्सा थे.

अहिल्याबाई होल्कर एक अत्यंत धर्मपरायण, न्यायप्रिय और दृढ़निश्चयी महिला थीं. उनका व्यक्तित्व संयम, साहस, और उदारता का प्रतीक था. उनका शासनकाल 1795 में उनकी मृत्यु तक चला, और उनके योगदान और नीतियों के कारण इंदौर और आसपास के क्षेत्रों में स्थिरता और समृद्धि आई.

अहिल्याबाई होल्कर को उनकी महानता, सेवा और न्यायप्रियता के लिए आज भी भारत में एक महान वीरांगना और आदर्श शासिका के रूप में स्मरण किया जाता है.

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संगीत निर्देशक वनराज भाटिया

वनराज भाटिया एक भारतीय संगीत निर्देशक और संगीतकार थे, जिन्होंने भारतीय फिल्म, टेलीविजन, और थिएटर में अपने योगदान के लिए ख्याति पाई. उनका जन्म 31 मई 1927 को मुंबई में हुआ था और उनकी शिक्षा मुंबई और लंदन में हुई थी.

 भाटिया ने मुंबई विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक की डिग्री प्राप्त की और इसके बाद लंदन के रॉयल एकेडमी ऑफ म्यूजिक से संगीत में डिग्री हासिल की. उन्होंने पेरिस में प्रसिद्ध संगीतकार नादिया बुलांजे के साथ भी अध्ययन किया.

 भाटिया का कैरियर शुरुआत में विज्ञापन फिल्मों और रेडियो जिंगल्स से हुआ. उन्होंने 7000 से अधिक जिंगल्स के लिए संगीत तैयार किया, जिनमें से कई आज भी लोकप्रिय हैं.

भाटिया ने भारतीय सिनेमा के समानांतर और कला फिल्मों में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उनकी प्रमुख फिल्मों में “अंकुर,” “भूमिका,” “मंथन,” “जाने भी दो यारों,” और “तमस” शामिल हैं. उनके संगीत ने इन फिल्मों को विशेष और यादगार बनाया. वह श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी जैसे प्रसिद्ध फिल्मकारों के साथ अक्सर काम करते थे.

भाटिया ने टेलीविजन धारावाहिकों के लिए भी संगीत तैयार किया, जिनमें “यात्रा,” “भारत एक खोज,” और “मालगुडी डेज़” शामिल हैं. उन्होंने कई नाटकों के लिए भी संगीत रचना की और उन्हें थिएटर के क्षेत्र में भी सराहा गया.

भाटिया को कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, और पद्म श्री शामिल हैं. उनके योगदान को भारतीय संगीत और कला जगत में अत्यधिक सराहा गया.

वनराज भाटिया का निधन 7 मई 2021 को हुआ. उनकी संगीत यात्रा और योगदान को भारतीय कला और सिनेमा में हमेशा याद किया जाएगा. वनराज भाटिया ने अपने अद्वितीय संगीत और रचनात्मकता के माध्यम से भारतीय संगीत को एक नई दिशा दी और उनके कार्यों ने कई पीढ़ियों को प्रेरित किया.

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निर्देशक राज खोसला

राज खोसला भारतीय सिनेमा के एक फिल्म निर्देशक थे, जिन्होंने 1950 – 80 के दशक के बीच कई हिट फिल्में दीं. उनका जन्म 31 मई 1925 को पंजाब, भारत में हुआ था. राज खोसला को उनकी विशिष्ट निर्देशन शैली, सस्पेंस थ्रिलर, म्यूजिकल और रोमांटिक फिल्मों के लिए जाना जाता है.

राज खोसला का फिल्मी कैरियर शुरुआत में गुरुदत्त के सहायक निर्देशक के रूप में हुआ. उन्होंने गुरुदत्त के साथ काम करके निर्देशन की बारीकियाँ सीखीं और जल्द ही अपने निर्देशन का कैरियर शुरू किया. खोसला ने विभिन्न शैलियों में फिल्में बनाई, लेकिन वह विशेष रूप से सस्पेंस थ्रिलर और म्यूजिकल फिल्मों के लिए जाने जाते हैं.

प्रमुख फिल्में:  –

सीआईडी (1956):  – गुरुदत्त के प्रोडक्शन में बनी इस फिल्म में देव आनंद ने मुख्य भूमिका निभाई और इसे काफी सराहा गया.

वो कौन थी? (1964):  – साधना और मनोज कुमार अभिनीत यह फिल्म सस्पेंस थ्रिलर थी और इसका संगीत आज भी लोकप्रिय है.

मेरा साया (1966):  – साधना और सुनील दत्त की इस फिल्म में सस्पेंस और म्यूजिक का अद्भुत संगम था.

दो रास्ते (1969):  – राजेश खन्ना और मुमताज़ अभिनीत यह फिल्म एक पारिवारिक ड्रामा थी और इसे काफी सफलता मिली.

मैं तुलसी तेरे आंगन की (1978):  – यह फिल्म विमल मिश्रा द्वारा लिखी गई थी और इसमें विनोद खन्ना और नूतन ने मुख्य भूमिका निभाई.

राज खोसला की फिल्मों में सस्पेंस, रोमांस और म्यूजिक का अद्भुत संगम होता था. उनकी फिल्मों में गीत-संगीत का विशेष महत्व था और वह कहानी को म्यूजिक के माध्यम से आगे बढ़ाने में माहिर थे. साधना, देव आनंद और मुमताज़ जैसे कई बड़े सितारों के साथ उन्होंने यादगार फिल्में दीं. राज खोसला को उनके योगदान के लिए कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए. उनकी फिल्मों ने भारतीय सिनेमा को नई दिशा दी और उन्हें हमेशा एक उत्कृष्ट निर्देशक के रूप में याद किया जाएगा.

राज खोसला का निधन 9 जून 1991 को हुआ. उनके द्वारा बनाई गई फिल्में और उनका योगदान भारतीय सिनेमा में हमेशा जीवित रहेगा. उनकी निर्देशन शैली और फिल्मों ने न केवल उनकी पीढ़ी को बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी प्रेरित किया.

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लाला जगत नारायन

लाला जगत नारायण एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, और राजनीतिज्ञ थे. उनका जन्म 31 मई 1899 को हुआ था और उनका जीवन स्वतंत्रता संग्राम, पत्रकारिता और समाज सेवा को समर्पित रहा.

लाला जगत नारायण का जन्म पंजाब के एक साधारण परिवार में हुआ था. उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लिया. वह महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी के आदर्शों से प्रेरित थे और उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया. स्वतंत्रता के बाद, लाला जगत नारायण ने पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा और 1948 में ‘हिन्द समाचार’ नामक एक समाचार पत्र की स्थापना की. हिन्द समाचार ने जल्द ही अपनी विश्वसनीयता और पत्रकारिता के उच्च मानकों के कारण लोकप्रियता हासिल की.

लाला जगत नारायण न केवल एक सफल पत्रकार थे, बल्कि उन्होंने राजनीति में भी सक्रिय भूमिका निभाई. वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य थे और उन्होंने विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर अपने विचार प्रकट किए. उन्होंने समाज सेवा के माध्यम से भी जनता की सेवा की और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष किया.

लाला जगत नारायण का निधन 9 सितंबर 1981 को हुआ। उनकी हत्या कर दी गई थी, जो एक बड़ा आघात था. उनकी हत्या के बाद उनके बेटे रमेश चंद्र ने ‘हिन्द समाचार’ समूह की बागडोर संभाली और इसे आगे बढ़ाया.

लाला जगत नारायण का जीवन स्वतंत्रता, सत्य और न्याय के लिए संघर्ष का प्रतीक था. उन्होंने अपने लेखन, पत्रकारिता, और सामाजिक कार्यों के माध्यम से समाज पर अमिट छाप छोड़ी. उनके योगदान को भारतीय इतिहास में हमेशा याद रखा जाएगा.

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पत्रकार विनोद मेहता

विनोद मेहता एक भारतीय पत्रकार, संपादक और लेखक थे, जिन्होंने भारतीय मीडिया में अपने निष्पक्ष और निर्भीक दृष्टिकोण के लिए ख्याति प्राप्त की. उनका जन्म 31 मई 1942 को रावलपिंडी (अब पाकिस्तान) में हुआ था. विभाजन के बाद, उनका परिवार भारत आकर बस गया.

विनोद मेहता की प्रारंभिक शिक्षा लखनऊ में हुई. उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। पत्रकारिता के प्रति उनका रुझान उन्हें इस क्षेत्र में खींच लाया. विनोद मेहता का पत्रकारिता कैरियर बहुत ही शानदार और विविधतापूर्ण था. उन्होंने कई प्रमुख भारतीय समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं.

उनके कैरियर की प्रमुख उपलब्धियाँ: –

डेबोनायर (Debonair):  – विनोद मेहता ने अपने कैरियर की शुरुआत ‘डेबोनायर’ पत्रिका से की. यह एक मशहूर अंग्रेजी मासिक पत्रिका थी.

पायनियर (The Pioneer):  – उन्होंने ‘पायनियर’ समाचार पत्र के संपादक के रूप में भी कार्य किया.

संडे ऑब्जर्वर (Sunday Observer):  – विनोद मेहता ने ‘संडे ऑब्जर्वर’ की भी स्थापना की और इसे संपादित किया.

आउटलुक (Outlook):  – विनोद मेहता को ‘आउटलुक’ पत्रिका का संस्थापक संपादक बनने का गौरव प्राप्त है. उनके नेतृत्व में ‘आउटलुक’ ने निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता के लिए ख्याति प्राप्त की.

विनोद मेहता ने कई किताबें भी लिखी हैं, जिनमें उनकी आत्मकथा ‘लखनऊ बॉय: ए मेमॉयर’ और ‘एडिटर अनप्लग्ड’ शामिल हैं. उनकी लेखन शैली सरल और सटीक थी, और उन्होंने अपने लेखन में भारतीय राजनीति, समाज और मीडिया पर महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत किए. मेहता को उनके योगदान के लिए कई सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए. उनकी पत्रकारिता ने भारतीय मीडिया में उच्च मानक स्थापित किए और उन्हें एक आदर्श पत्रकार के रूप में मान्यता मिली.

विनोद मेहता का निधन 8 मार्च 2015 को हुआ. उनके निधन से भारतीय पत्रकारिता ने एक निर्भीक और ईमानदार आवाज खो दी. मेहता को उनकी निडर पत्रकारिता, संपादकीय उत्कृष्टता, और स्पष्ट दृष्टिकोण के लिए हमेशा याद किया जाएगा. उनके योगदान ने भारतीय मीडिया को समृद्ध और प्रबुद्ध बनाया है.

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संगीतकार अनिल बिस्वास

अनिल बिस्वास भारतीय सिनेमा के एक संगीतकार और गायक थे, जिन्होंने 1940 – 50 के दशकों में हिंदी फिल्म संगीत को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया. उनका जन्म 7 जुलाई 1914 को पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) में हुआ था और उनका पूरा नाम अनिल कृष्णा बिस्वास था.

बिस्वास का संगीत के प्रति रुझान बचपन से ही था. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बंगाल में प्राप्त की और बाद में संगीत की शिक्षा ली. उनकी संगीत की यात्रा कोलकाता से शुरू हुई, जहाँ उन्होंने कई नाटकों और संगीत कार्यक्रमों में हिस्सा लिया. वर्ष 1934 में अनिल बिस्वास मुंबई (तत्कालीन बॉम्बे) आ गए, जो भारतीय फिल्म उद्योग का केंद्र था. उन्होंने अपनी पहली बड़ी सफलता 1935 में फिल्म ‘धरती माता’ के संगीत के साथ प्राप्त की. इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और कई हिट फिल्मों के लिए संगीत तैयार किया. बिस्वास ने अपने कैरियर में कई यादगार फिल्में दीं और उनके संगीत ने हिंदी सिनेमा को समृद्ध किया.

प्रमुख फिल्में और  गीत:  –

किस्मत (1943): – इस फिल्म का गीत “देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान” बेहद लोकप्रिय हुआ.

अनमोल घड़ी (1946):  – “जवाँ है मोहब्बत हसीं है ज़माना” और “आवाज़ दे कहाँ है” जैसे गीत इस फिल्म में शामिल थे.

आरज़ू (1950):  – “आए भी अकेला जाए भी अकेला” और “जिंदगी देने वाले सुन” जैसे गीत बेहद मशहूर हुए.

तराना (1951):  – इस फिल्म में “सीने में सुलगते हैं अरमान” और “जब तुम नहीं आते” जैसे मधुर गीत शामिल थे.

अनिल बिस्वास के संगीत की प्रमुख विशेषता उनकी मेलोडी और भारतीय शास्त्रीय संगीत का मिश्रण थी. उन्होंने भारतीय संगीत को पश्चिमी संगीत के साथ मिश्रित करके एक नई ध्वनि तैयार की, जो उस समय के दर्शकों और श्रोताओं के बीच बेहद लोकप्रिय हुई. बिस्वास को उनके योगदान के लिए कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए. उन्होंने न केवल भारतीय फिल्म संगीत को नया स्वरूप दिया, बल्कि कई नए गायकों और संगीतकारों को भी प्रेरित किया.

अनिल बिस्वास का निधन 31 मई 2003 को हुआ. उनका योगदान भारतीय सिनेमा में अमूल्य है और उनके संगीत को आज भी याद किया जाता है. बिस्वास को भारतीय फिल्म संगीत के एक प्रमुख स्तंभ के रूप में हमेशा याद किया जाएगा. उनकी संगीत रचनाएँ और धुनें आज भी श्रोताओं के दिलों में जीवित हैं.

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