हर दिन पावन…
इतिहास इस बात का साक्षी है कि देश, धर्म और समाज की सेवा में अपना जीवन अर्पण करने वालों के मन पर ऐसे संस्कार उनकी माताओं ने ही डाले हैं. भारत के स्वाधीनता संग्राम में हंसते हुए फांसी चढ़ने वाले वीरों में भगतसिंह का नाम प्रमुख है. उस वीर की माता थीं विद्यावती कौर. विद्यावतीजी का पूरा जीवन अनेक विडम्बनाओं और झंझावातों के बीच बीता. सरदार किशनसिंह से विवाह के बाद जब वे ससुराल आयीं, तो यहां का वातावरण देशभक्ति से परिपूर्ण था. उनके देवर सरदार अजीतसिंह देश से बाहर रहकर स्वाधीनता की अलख जगा रहे थे.
स्वाधीनता प्राप्ति से कुछ समय पूर्व ही वे भारत लौटे, पर देश को विभाजित होते देख उनके मन को इतनी चोट लगी कि उन्होंने 15 अगस्त, 1947 को सांस ऊपर खींचकर देह त्याग दी. उनके दूसरे देवर सरदार स्वर्णसिंह भी जेल की यातनाएं सहते हुए बलिदान हुए. उनके पति किशनसिंह का भी एक पैर घर में, तो दूसरा जेल और कचहरी में रहता था. विद्यावती जी के बड़े पुत्र जगतसिंह की 11 वर्ष की आयु में सन्निपात से मृत्यु हुई वहीँ, भगत सिंह भी 23 वर्ष की आयु में फांसी चढ़ गये, तो उससे छोटे कुलतार सिंह और कुलवीर सिंह भी कई वर्ष जेल में रहे. इन जेलयात्राओं और मुकदमेबाजी से खेती चैपट हो गयी तथा घर की चैखटें तक बिक गयीं.
इसी बीच घर में डाका भी पड़ गया. एक बार चोर उनके बैलों की जोड़ी ही चुरा ले गये, तो बाढ़ के पानी से गांव का जर्जर मकान भी बह गया. इर्ष्यालू पड़ोसियों ने उनकी पकी फसल जला दी. वर्ष 1939-40 में सरदार किशनसिंह जी को लकवा मार गया. उन्हें खुद चार बार सांप ने काटा, पर उच्च मनोबल की धनी माताजी हर बार घरेलू उपचार और झाड़फूंक से ठीक हो गयीं. भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी का समाचार सुनकर उन्होंने दिल पर पत्थर रख लिया क्योंकि, भगतसिंह ने उनसे एक बार कहा था कि तुम रोना नहीं वरना लोग क्या कहेंगे कि भगतसिंह की मां रो रही है.
भगतसिंह पर उज्जैन के विख्यात लेखक श्रीकृष्ण ‘सरल’ ने एक महाकाव्य लिखा. नौ मार्च, 1965 को इसके विमोचन के लिए माताजी जब उज्जैन आयीं, तो उनके स्वागत को सारा नगर उमड़ पड़ा. उन्हें खुले रथ में कार्यक्रम स्थल तक ले जाया गया. सड़क पर लोगों ने फूल बिछा दिये. इतना ही नहीं, तो छज्जों पर खड़े लोग भी उन पर पुष्पवर्षा करते रहे. पुस्तक के विमोचन के बाद सरल जी ने अपने अंगूठे से माताजी के भाल पर रक्त तिलक किया. माताजी ने वही अंगूठा एक पुस्तक पर लगाकर उसे नीलाम कर दिया. उससे 3,331 रु. प्राप्त हुए.
माताजी को सैकड़ों लोगों ने मालाएं और राशि भेंट की. इस प्रकार प्राप्त 11,000 रु. माताजी ने दिल्ली में इलाज करा रहे भगतसिंह के साथी बटुकेश्वर दत्त को भिजवा दिये. समारोह के बाद लोग उन मालाओं के फूल चुनकर अपने घर ले गये. जहां माताजी बैठी थीं, वहां की धूल लोगों ने सिर पर लगाई. सैकड़ों माताओं ने अपने बच्चों को माताजी के पैरों पर रखा, जिससे वे भी भगतसिंह जैसे वीर बन सकें. वर्ष 1947 के बाद गांधीवादी सत्याग्रहियों को अनेक शासकीय सुविधाएं मिलीं, पर क्रांतिकारी प्रायः उपेक्षित ही रह गये. उनमें से कई गुमनामी में बहुत कष्ट का जीवन बिता रहे थे. माताजी उन सबको अपना पुत्र ही मानती थीं.
वे उनकी खोज खबर लेकर उनसे मिलने जाती थीं तथा सरकार की ओर से उन्हें मिलने वाली पेंशन की राशि चुपचाप वहां तकिये के नीचे रख देती थीं. इस प्रकार एक सार्थक और सुदीर्घ जीवन जीकर माताजी ने दिल्ली के एक अस्पताल में एक जून, 1975 को अंतिम सांस ली. उस समय उनके मन में यह सुखद अनुभूति थी कि अब भगतसिंह से उनके बिछोह की अवधि सदा के लिए समाप्त हो रही है.
प्रभाकर कुमार .
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Holy every day…
History is witness to the fact that those who have dedicated their lives to the service of the country, religion, and society, have been instilled by their mothers. Bhagat Singh’s name is prominent among the heroes who were hanged laughingly in India’s freedom struggle. Vidyavati Kaur was the mother of that hero. Vidyavatiji’s whole life was spent in the midst of many irony and storms. When she came to her in-law’s house after her marriage to Sardar Kishan Singh, the atmosphere here was full of patriotism. His brother-in-law Sardar Ajit Singh was awakening the spirit of independence by staying outside the country.
He returned to India shortly before independence, but seeing the country being divided, his mind was so hurt that he breathed his last on August 15, 1947. His second brother-in-law Sardar Swaran Singh also sacrificed himself while suffering torture in jail. Her husband Kishan Singh also had one foot in the house and the other in jail and court. Vidyavati ji’s elder son Jagat Singh died of typhus at the age of 11, while Bhagat Singh was also hanged at the age of 23, so Kultar Singh and Kulveer Singh, younger than him, also remained in jail for many years. Due to these jail visits and litigation, the farming became flat, and even the door frames of the house were sold.
Meanwhile, there was also a robbery in the house. Once the thieves stole only a pair of their oxen, then the dilapidated house of the village was also washed away by the flood water. Jealous neighbors burnt their ripe crops. Sardar Kishan Singh was paralyzed in the year 1939-40. She herself was bitten by a snake four times, but the rich mother of high morale was cured every time by home remedies and exorcism. Hearing the news of the hanging of Bhagat Singh, Sukhdev, and Rajguru, he kept a stone on his heart because Bhagat Singh once told him that he should not cry, otherwise what will people say that Bhagat Singh’s mother is crying?
Ujjain’s famous writer Shri Krishna ‘Saral’ wrote an epic poem on Bhagat Singh. When Mataji came to Ujjain for its release on March 9, 1965, the whole city gathered to welcome her. He was taken to the venue in an open chariot. People spread flowers on the road. Not only this, but the people standing on the balcony also showered flowers on him. After the release of the book, Saral Ji applied blood tilak on Mataji’s forehead with his thumb. Mataji put the same thumb on a book and auctioned it. 3,331 from that. Received.
Hundreds of people offered garlands and money to Mataji. 11,000 thus received. Mother sent Bhagat Singh’s companion Batukeshwar Dutt who was undergoing treatment in Delhi. After the ceremony, people picked flowers from those garlands and took them to their homes. Where Mataji was sitting, people put the dust on their heads. Hundreds of mothers placed their children at the feet of Mataji so that they too could become heroes like Bhagat Singh. After the year 1947, the Gandhian Satyagrahis got many government facilities, but the revolutionaries were often neglected. Many of them were living a life of great suffering in obscurity. Mother used to consider all of them as her own sons.
She used to go to meet him with the news of his discovery and quietly put the amount of pension received by the government under the pillow there. Thus living a meaningful and long life, Mataji breathed her last on June 1, 1975, in a hospital in Delhi. At that time, he had a pleasant feeling in his mind that now the period of his separation from Bhagat Singh is coming to an end forever.
Prabhakar Kumar.