अटल विश्वास…
बुद्ध पूर्णिमा, बौद्ध धर्म का एक प्रमुख त्यौहार है. इसे बैसाख मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है. ज्ञात है कि,बुद्ध पूर्णिमा के दिन ही गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था और इसी दिन उन्हें ज्ञान की भी प्राप्ति हुई थी साथ ही इसी दिन उनका महानिर्वाण भी हुआ था.
भगवान बुद्ध का जन्म लुंबिनी में 563 ईसा पूर्व इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर में हुआ था. उनकी माँ का नाम महामाया था जो कोलीय वंश से थीं, जिनका इनके जन्म के सात दिन बाद निधन हुआ,उनका पालन महारानी की छोटी सगी बहन महाप्रजापती गौतमी ने किया. सिद्धार्थ विवाहोपरांत एक मात्र प्रथम नवजात शिशु राहुल और धर्मपत्नी यशोधरा को त्यागकर संसार को जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के मार्ग एवं सत्य दिव्य ज्ञान की खोज में रात्रि में राजपाठ का मोह त्यागकर वन की ओर चले गए.
वर्षों की कठोर साधना के पश्चात बोधगया (बिहार) में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ गौतम से भगवान बुद्ध बन गए. भगवान बुद्ध के जीवन की चार प्रमुख घटनाएं महाभिनिष्क्रमण, बुद्धत्व प्राप्ति, धर्म-चक्र-प्रवर्तन और महापरिनिर्वाण थीं. बुद्धदेव के विषय में कथा है कि निरंजना नदी के तट पर सुजाता के हाथों खीर खाने के दिन से बुद्धत्व प्राप्ति के समय अर्थात 49 दिन तक उन्होंने वायु के सिवा कोई आहार नहीं लिया. बुद्धदेव ने अंगुलिमान डाकू का उद्धार किया और वेश्या अम्बपाली को सन्यासिनी बनाया.
वर्ष 483 ईपू में 80 वर्ष की आयु में कुशीनगर भारत में उनका महापरिनिर्वाण ( निधन) हुआ. इस देश में वेद और ब्राह्मण को न मानने के बावजूद वे विष्णु के दशावतार में गिने गए. जिन आचार्यों ने भगवान बुद्ध की गिनती हिन्दू धर्म के दशावतार में की, उनका भी यही तर्क था कि बुद्ध कोई पराए व्यक्ति नहीं, वे भी इसी भूमि के ही हैं, और जैसे धर्म संस्थापना के लिए विष्णु ने राम और कृष्ण के रूप में जन्म लिया वैसे ही हिंसा को रोकने के लिए विष्णु ने बुद्ध के रूप में जन्म लिया.
भगवान बुद्ध ने स्वयं के बारे में कहा भी था कि ‘मैं प्रचलित धर्म का भंजक नहीं अपितु सुधारक हूं. यह बात सिद्ध करती है कि बुद्धदेव का व्यक्तित्व अत्यंत उच्च कोटि का रहा होगा और वे साधुता के जीते जागते अनुपम प्रतीक रहे होंगे. तत्कालीन बौद्ध साहित्य से यह स्पष्ट है कि बुद्धदेव निंदा के लिए किसी की निंदा नहीं करते थे. वे दया, प्रेम और मैत्री के अग्रदूत थे. बुद्धदेव संकल्प के पक्के, विचारों में अडिग, वाणी और आचरण में अत्यंत ही कोमल ह्रदय और शांति और विनम्रता के आगार थे. वाद-विवाद में भी वे अत्यंत धीर, उदार व सहनशील थे. वे बुराई के बदले भलाई, हिंसा के बदले अहिंसा और घृणा के बदले प्रेम का उपदेश देते थे.
उन्होंने कहा कि ”अगर कोई व्यक्ति अज्ञानता के कारण मेरी निंदा करता है तो भी मैं उसे अपने प्रेम की छाया अवश्य दूंगा, और वह जितनी अधिक निंदा करेगा उतनी ही उसकी भलाई करता जाऊंगा. ‘बुद्धदेव ने आत्मा और ब्रह्म पर कोई शास्त्रार्थ या बहस नहीं की. वे अक्सर ध्यानमग्न और मौन रहते थे. जब कोई कुछ पूछता तो करुणा भरे स्वर में उनके मुंह से स्वयं की अनुभूतियां ही निकलतीं थीं वे अनुभूतियां भी ऐसे शीतल सूत्रवाक्य के रूप में जैसे कि वे प्यासे को पानी पिलाने का प्रयास कर रहे हों. उनका स्वर और उनके शब्द ऐसे होते, जैसे वे भयावह पीड़ा झेल रहे किसी रोगी को दुआ और दवा दे रहे हों. उनके लिए न कोई ब्राह्मण था, न श्रमण. राजा या रंक जो सामने आता उसे वे समदर्शी की तरह एक ही दृष्टि से देखते और बरतते.
जिन प्रश्नों को संसार के सभी धर्म मौलिक और महान समझते हैं उन्हें बुद्धदेव ने इस योग्य भी नहीं समझा कि उनके उत्तर दिए जाएं. उन्होंने किसी ईश्वर का नाम नहीं लिया और न ही किसी अदृश्य देवता को अपना भाग्य विधाता माना. बुद्धदेव ने कहा कि ऐसा करने से आदमी के कर्म में शिथिलता आ सकती है. जब कोई देवता ही मानने योग्य नहीं तो किस की प्रार्थना की जाए? प्रार्थना भी एक कमजोर खिड़की है, इसमें अकर्मण्य मनुष्य भी देवता से ऐसी चीज माँग लेता है जो वरदान से नहीं कर्म से प्राप्त की जा सकती है. बुद्धदेव पूरी दुनिया के एकमात्र ऐसे महात्मा हुए जिनमें दुराग्रह नाम की कोई चीज नहीं थी. वे अपने व्यक्तित्व के जोर से अपने धर्म को नहीं चलाना चाहते थे. उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि मेरी बातों को सिर्फ इसलिए मत मानो कि वे मेरे मुख से निकली हैं बल्कि इसलिए कि उन्हें तुम्हारी बुद्धि उचित समझती है.
उपनिषद काल में भारत का स्वाधीन चिंतन जहां तक पहुंचा था उसे उन्होंने वहीं से उठाया और बढाकर उसे वे उस क्षितिज तक ले गए जहां तक दुनिया का कोई चिंतक नहीं पहुंचा. भारत का यह सौभाग्य है कि ऐसा व्यवहारिक नेता इसी धरती पर पैदा हुआ जिसने विश्व को यह संदेश दिया कि सबसे बड़ी जीत वह है जिसमें कोई भी न हारे और सभी उस जीत के सहभागी बनें. भगवान बुद्ध ने इसी इच्छा को पूरा करने के लिए 2500 वर्ष बाद महात्मा गांधी की आवाज बनकर इंग्लैंड में कहा कि, “ सबसे बड़ी जीत वह है जिसमें कोई भी न हारे और सभी उस जीत के सहभागी बनें”.
मैं भारतीय हताशा और निराशा का प्रतीक बनकर इंग्लैंड नहीं आया अपितु, भारतीय परिपक्वता का गौतम बुद्ध का संदेश लेकर आपसे यह कहने आया हूँ कि, भारत की आजादी से आपको भी फायदा होगा क्योंकि, फिर दुनिया आपको पशु नहीं मनुष्य समझेगी. जब से संसार में वैज्ञानिकता और बुद्धिवाद ने जोर पकड़ा है तब से बुद्धदेव और महात्मा गांधी पढ़े लिखे लोगों में खासे लोकप्रिय हुए है.
दोनों ही इन महात्माओं की लोकप्रियता इस कारण बढ़ी है कि लोग धर्म के आडम्बरों और दुराचारों से त्रस्त हो चुके हैं. विज्ञान ने मनुष्य में जो जिज्ञासा जगा दी है उनसे मनुष्य कुछ चीजों पर शंका की उंगली उठाने लगा है वहीँ, बुद्धदेव और गांधीजी में जो समानता है वह सिर्फ इस कारण नहीं कि दोनों ही सुधारक ,अहिंसा, सत्य और मैत्री के पुजारी थे. अपितु, दोनों का कर्म में अटल विश्वास था. बुद्धदेव ने जिन प्रश्नों को अव्याकृत कह कर टाल दिया था वहीँ, महात्मा गांधी ने अपने इर्दगिर्द आये हर प्रश्न का जवाब दिया, और इसी क्रम में उन्हें अपनी जान भी देनी पड़ी.
प्रभाकर कुमार.
============== ======== ==== ==============
Unwavering Faith…
Buddha Purnima is a major festival of Buddhism. It is celebrated on the full moon day of Baisakh month. It is known that Gautam Buddha was born on the day of Buddha Purnima and on this day he attained enlightenment as well as his Mahanirvana took place on this day.
Lord Buddha was born in Lumbini in 563 BC in the house of King Shuddhodhan of the Ikshvaku dynasty Kshatriya Shakya clan. His mother’s name was Mahamaya, who belonged to the Koliya dynasty, who died seven days after his birth, he was brought up by Mahaprajapati Gautami, the younger sister of the queen. After marriage, Siddhartha left the only firstborn baby Rahul and his wife Yashodhara, and went towards the forest in search of a way to get rid of the world from old age, death, sorrows, and true divine knowledge, leaving the fascination of Rajpath at night.
After years of rigorous meditation, he attained enlightenment under the Bodhi tree in Bodh Gaya (Bihar) and became Lord Buddha from Siddhartha Gautama. The four major events of Lord Buddha’s life were Mahabhinishkraman, attainment of Buddhahood, Dharma-chakra-pravastatin, and Mahaparinirvana. There is a legend about Buddhadev that from the day of eating pudding at the hands of Sujata on the banks of the Niranjana river, at the time of attaining Buddhahood, i.e. for 49 days, he did not take any food except air. Buddhadev saved Anguliman dacoit and made prostitute Ambapali a sanyasini.
In the year 483 BC, at the age of 80, he passed away in Kushinagar, India. Despite not following Vedas and Brahmins in this country, he was counted in the Dashavatar of Vishnu. The Acharyas who counted Lord Buddha in the Dasavatar of Hindu religion also had the same argument that Buddha is not a stranger, he too belongs to this land, and just as Vishnu took birth as Ram and Krishna to establish the religion. Similarly, to stop violence, Vishnu took birth as Buddha.
Lord Buddha had also said about himself that ‘I am not a destroyer of prevailing religion but a reformer. This proves that Buddha’s personality must have been of a very high quality and he must have been a unique symbol of saintliness while alive. It is clear from the Buddhist literature of that time that Buddha did not condemn anyone for the sake of condemnation. He was the harbinger of kindness, love, and friendship. Buddhadev was firm in resolve, unshakable in thoughts, very soft-hearted in speech and conduct, and a reservoir of peace and humility. Even in debates, he was very patient, generous, and tolerant. He preached good in exchange for evil, non-violence in exchange for violence, and love in exchange for hatred.
He said that “Even if a person condemns me because of ignorance, I will definitely give him the shadow of my love, and the more he condemns, the more I will do good to him.” ‘Buddhadev did not do any scripture or debate on the soul and Brahman. He was often meditative and silent. When someone asked something, only his own feelings used to come out of his mouth in a compassionate voice, those feelings also in the form of such cool phrases as if he was trying to give water to the thirsty. His tone and his words would have been such as if he was giving blessings and medicine to a patient suffering from terrible pain. There was neither a Brahmin nor a Shraman for them. Whatever kind or rank came in front of him, he used to see and behave with the same vision as a samdarshi.
The questions which all the religions of the world consider to be fundamental and great, Buddha did not even consider them worthy to be answered. He did not take the name of any god, nor did he consider any invisible deity as the bestower of his fortune. Buddhadev said that by doing this, there can be laxity in a man’s work. When no deity is worthy of worship, then whom should we pray to? Prayer is also a weak window, in this, even an indolent man asks the deity for such a thing which can be achieved by action and not by boon. Buddhadev became the only Mahatma in the whole world in whom there was no such thing as prejudice. He did not want to run his religion on the strength of his personality. He told his disciples don’t believe my words just because they came out of my mouth but because your intelligence thinks them appropriate.
As far as India’s independent thinking had reached in the Upanishad period, he raised it from there itself, and by increasing it, he took it to the horizon that no other thinker of the world has reached. India is fortunate that such a practical leader was born on this earth who gave this message to the world that the biggest victory is the one in which no one loses and everyone becomes a participant in that victory. To fulfill this desire, after 2500 years, Lord Buddha, becoming the voice of Mahatma Gandhi, said in England, “The greatest victory is that in which no one is defeated and everyone becomes a participant in that victory”.
I have not come to England as a symbol of Indian despair and hopelessness, but I have come to tell you with Gautam Buddha’s message of Indian maturity that you will also benefit from India’s independence because then the world will consider you a human, and not an animal. Buddhadev and Mahatma Gandhi have become very popular among educated people since the time when scientificity and rationalism gained momentum in the world.
The popularity of both these Mahatmas has increased because people are fed up with the ostentation and misdeeds of religion. Due to the curiosity that science has awakened in man, man has started raising doubt on some things, whereas, the similarity between Buddhadev and Gandhiji is not only because both were reformers, worshipers of non-violence, truth, and friendship. Rather, both had unwavering faith in karma. The questions Buddhadev had avoided by calling them ungrammatical, Mahatma Gandhi answered every question that came around him, and in the same sequence, he had to give up his life.
Prabhakar Kumar.