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व्यक्ति विशेष -513.

राजमाता महारानी गायत्री देवी

महारानी गायत्री देवी, जिन्हें राजमाता गायत्री देवी के नाम से भी जाना जाता है, जयपुर के शाही परिवार की एक प्रतिष्ठित सदस्य थीं. उनका जन्म 23 मई 1919 को लंदन, इंग्लैंड में हुआ था और उनका निधन 29 जुलाई 2009 को जयपुर, राजस्थान में हुआ. उन्हें उनकी खूबसूरती, शाही अंदाज, और सामाजिक कार्यों के लिए व्यापक रूप से सराहा गया.

गायत्री देवी का जन्म कूचबिहार के शाही परिवार में हुआ था. उनकी माँ, इंदिरा देवी, बड़ौदा की महारानी थीं, और उनके पिता, महाराजा जितेंद्र नारायण, कूचबिहार के महाराजा थे. गायत्री देवी ने महाराजा सवाई मान सिंह द्वितीय से विवाह किया, जो जयपुर के महाराजा थे। वह उनकी तीसरी पत्नी थीं.

गायत्री देवी ने वर्ष 1962 में भारतीय राजनीति में कदम रखा और भारतीय संसद के निचले सदन, लोकसभा, के लिए जयपुर से चुनाव जीता. उन्होंने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा और भारी बहुमत से जीता. उन्हें सबसे अधिक मतों से चुनाव जीतने के लिए गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में भी शामिल किया गया था. वह तीन बार जयपुर से सांसद रहीं और अपने कार्यकाल के दौरान महिलाओं और बच्चों के अधिकारों के लिए काम किया.

गायत्री देवी ने जयपुर में शिक्षा के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण योगदान दिए. उन्होंने “महारानी गायत्री देवी गर्ल्स पब्लिक स्कूल” की स्थापना की, जो आज भी एक प्रतिष्ठित स्कूल है. वह भारतीय कला और संस्कृति की संरक्षक भी थीं और उन्होंने कई सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर काम किया.

गायत्री देवी को उनकी सुंदरता और शिष्टता के लिए जाना जाता था. वह अक्सर अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में “विश्व की सबसे खूबसूरत महिलाओं” में गिनी जाती थीं. उन्होंने शाही परंपराओं और आधुनिक दृष्टिकोण के बीच एक संतुलन बनाए रखा और अपने समय की अग्रणी महिलाओं में से एक मानी जाती थीं.

गायत्री देवी ने अपनी आत्मकथा “ए प्रिंसेस रिमेम्बर्स” लिखी, जिसमें उन्होंने अपने जीवन, शाही अनुभवों और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान के समय का विवरण दिया. उनकी विरासत को आज भी सम्मान और श्रद्धा के साथ याद किया जाता है, और उन्होंने भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया है.

गायत्री देवी न केवल जयपुर के शाही परिवार की एक प्रमुख सदस्य थीं, बल्कि उन्होंने भारतीय समाज और राजनीति में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया. उनके जीवन और कार्यों ने उन्हें भारतीय इतिहास में एक सम्मानित और प्रेरणादायक व्यक्तित्व बना दिया.

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साहित्यकार अन्नाराम सुदामा

साहित्यकार अन्नाराम सुदामा राजस्थानी और हिंदी साहित्य में अपने अनूठे योगदान के लिए जाने जाते हैं. उनका जन्म 23 मई 1937 को राजस्थान के बीकानेर जिले में हुआ और उनका निधन 2 जनवरी 2014 को हुआ था.  उन्होंने राजस्थानी भाषा को समृद्ध करने के लिए अपने साहित्यिक कौशल का उपयोग किया। उनके लेखन में राजस्थानी समाज की विविधता और सांस्कृतिक पहचान को बड़ी ही सूक्ष्मता से चित्रित किया गया है.

अन्नाराम सुदामा की रचनाएं मुख्य रूप से राजस्थान के ग्रामीण जीवन और उसकी सामाजिक व्यवस्था पर केंद्रित हैं. उन्होंने कई कविताएं, कहानियां, नाटक और उपन्यास लिखे हैं जिनमें राजस्थानी समाज की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का वर्णन मिलता है. उनकी लेखनी में लोकधर्मी शैली प्रमुख रूप से देखने को मिलती है, जिसमें वे सामाजिक समस्याओं को उजागर करते हैं.

उनकी प्रसिद्ध कृतियों में ‘ठेठ राजस्थानी नाटक’, ‘कंकुवा री कोर’ और ‘दो आधा पागल’ शामिल हैं. उन्हें उनके साहित्यिक योगदान के लिए कई पुरस्कार और सम्मान से भी नवाजा गया है. अन्नाराम सुदामा की साहित्यिक विरासत राजस्थानी भाषा और साहित्य के प्रसार और संवर्धन में एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में आज भी जारी है.

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अभिनेता समीर कोचर

समीर कोचर एक भारतीय अभिनेता और टेलीविजन प्रेजेंटर हैं, जिन्होंने हिंदी सिनेमा और टीवी इंडस्ट्री में विभिन्न प्रकार की भूमिकाएं निभाई हैं. समीर का जन्म 23 मई 1980 को नई दिल्ली में हुआ था.  कोचर ने अपने कैरियर की शुरुआत 2003 में फिल्म “ज़हर” से की थी. समीर कोचर को उनकी विविध भूमिकाओं और विशेष रूप से क्रिकेट कमेंट्री और प्रेजेंटेशन के लिए भी जाना जाता है. वे भारतीय प्रीमियर लीग (IPL) में एक प्रसिद्ध चेहरा हैं और उन्होंने कई सीज़न में एंकरिंग और होस्टिंग की है.

समीर ने टेलीविजन पर भी कई सफल शोज की मेजबानी की है, जिनमें “सुपरस्टार बज” और “एक्स्ट्रा इनिंग्स T20” शामिल हैं. फिल्मों में उन्होंने “आइलैंड सिटी” और “हाउसफुल 3” जैसी फिल्मों में काम किया है, जिसमें उनकी अभिनय क्षमता की सराहना की गई है.

वे वेब सीरीज में भी सक्रिय हैं, और उन्होंने “सैक्रेड गेम्स” में एक पुलिस अफसर की भूमिका निभाई है, जो कि बहुत ही लोकप्रिय हुई. उनका यह किरदार दर्शकों के बीच काफी पसंद किया गया.

समीर कोचर के कैरियर में उनकी वर्सेटिलिटी और विविध जॉनर्स में उनकी क्षमता का पता चलता है, चाहे वह फिल्म हो, टीवी शो हो या वेब सीरीज. उनका योगदान और प्रभाव इंडियन एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री में काफी महत्वपूर्ण है.

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अभिनेत्री शम्मा कासिम

शम्मा कासिम जिन्हें शम्मा सिकंदर के नाम से भी जाना जाता है. शम्मा सिकंदर एक भारतीय अभिनेत्री हैं जिन्होंने टेलीविज़न, फ़िल्मों और वेब सीरीज़ में काम किया है. उनका जन्म 23 मई  1989 को कन्नूर, केरल में हुआ था. शम्मा की सबसे बड़ी पहचान टीवी धारावाहिक “ये मेरी लाइफ है” से मिली, जिसमें उन्होंने पूजा मेहता की मुख्य भूमिका निभाई थी. इस शो के लिए उन्हें बहुत सराहना मिली और उन्हें कई पुरस्कार भी प्राप्त हुए.

शम्मा ने कई फिल्मों में भी काम किया है, जिनमें “प्रेम अगन,” “मन” और “अनश: द डेडली पार्ट” शामिल हैं. वे विभिन्न म्यूजिक वीडियोस में भी नजर आ चुकी हैं और उन्होंने विभिन्न रियलिटी शोज़ में भाग लिया है जैसे कि “बिग बॉस” और “जोर का झटका: टोटल वाइपआउट.”

हाल के वर्षों में, शम्मा सिकंदर ने वेब सीरीज़ में अपनी पहचान बनाई है. उन्होंने “माया: स्लेव ऑफ हर डिज़ायर्स” में मुख्य भूमिका निभाई, जो कि एक साइकोलॉजिकल थ्रिलर वेब सीरीज़ है. इस सीरीज़ में उनके अभिनय की काफी प्रशंसा हुई.

शम्मा ने अपने कैरियर में न केवल विविध भूमिकाएं निभाई हैं, बल्कि वह अपनी बोल्ड और अभिनय पसंद के लिए भी जानी जाती हैं. वे अपने अभिनय और फैशन सेंस के लिए युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय हैं.

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पुरातत्त्ववेत्ता राखालदास बंद्योपाध्याय

राखालदास बंद्योपाध्याय एक भारतीय पुरातत्त्ववेत्ता थे, जिन्होंने वर्ष 1920 के दशक में सिंधु घाटी सभ्यता के मोहनजोदड़ो स्थल की खोज की थी. उनका जन्म 12 अप्रैल, 1885 को हुआ था, और उन्होंने भारतीय पुरातत्व में अपने कार्यों के माध्यम से एक अमिट छाप छोड़ी.

राखालदास बंद्योपाध्याय ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से अपनी शिक्षा प्राप्त की और बाद में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण में शामिल हो गए. उनके काम ने उन्हें भारत में पुरातत्विक खोजों के अग्रणी के रूप में स्थापित किया. मोहनजोदड़ो की खोज से पहले, सिंधु घाटी सभ्यता के बारे में बहुत कम जाना जाता था, और इसे विश्व इतिहास के महत्वपूर्ण अध्यायों में से एक माना जाता है.

उनकी खोजों ने न केवल भारतीय पुरातत्व के क्षेत्र में एक नई दिशा प्रदान की, बल्कि यह भी दिखाया कि भारतीय सभ्यता के इतिहास में गहराई है और यह विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में से एक है. राखालदास बंद्योपाध्याय की मृत्यु 23 मई 1930 को हुई थी, लेकिन उनकी खोजें और कार्य आज भी पुरातत्व शास्त्र के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के रूप में याद किए जाते हैं.

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लेखक चन्द्रबली सिंह

चन्द्रबली सिंह एक हिन्दी साहित्यकार हैं जिन्होंने विशेष रूप से कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से अपनी पहचान बनाई है. उनकी रचनाएं अक्सर सामाजिक मुद्दों और ग्रामीण जीवन के चित्रण पर केंद्रित होती हैं. चन्द्रबली सिंह की रचनाएं अक्सर समाज के उन पहलुओं को उजागर करती हैं जो सामान्यतः उपेक्षित रह जाते हैं, जैसे कि गांवों में रहने वाले लोगों की समस्याएं और उनकी सांस्कृतिक जीवनशैली.

उनके कुछ प्रसिद्ध कार्यों में, उनके कहानी संग्रह और उपन्यास शामिल हैं जिनमें उन्होंने विभिन्न पात्रों के माध्यम से व्यापक सामाजिक और मानवीय मुद्दों को संबोधित किया है. उनके लेखन में भाषा की सरलता और सहजता देखी जा सकती है, जो पाठकों को आसानी से अपनी ओर आकर्षित करती है.

उनके योगदान के लिए उन्हें साहित्यिक समुदाय में पहचान और सम्मान प्राप्त है, और उनकी रचनाएँ न केवल साहित्य प्रेमियों के बीच लोकप्रिय हैं, बल्कि आलोचकों द्वारा भी सराही गई हैं. चन्द्रबली सिंह का जन्म 20 अप्रैल 1924 को ग़ाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था और उनकी मृत्यु 23 मई, 2011 को वाराणसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था.

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कानू सान्याल

कानू सान्याल भारतीय नक्सली आंदोलन के प्रमुख जनकों में से एक थे. उनका जन्म 1932 में पश्चिम बंगाल के कुसमुंडी गांव में हुआ था. कानू सान्याल ने अपनी शिक्षा कोलकाता में पूरी की और उसके बाद वे राजनीति में सक्रिय हो गए. उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) में शामिल होने के बाद जल्द ही चरण सिंह और चारु मजुमदार के साथ मिलकर नक्सलबाड़ी विद्रोह का नेतृत्व किया.

वर्ष 1967 में नक्सलबाड़ी में एक किसान विद्रोह शुरू हुआ, जिसे कानू सान्याल ने संगठित किया. इस विद्रोह का मुख्य उद्देश्य जमींदारी प्रथा के खिलाफ लड़ना और किसानों को उनकी जमीन का मालिकाना हक दिलाना था. विद्रोह की इस घटना ने भारतीय नक्सली आंदोलन की नींव रखी, जिसने बाद में देश के कई हिस्सों में फैल गया.

कानू सान्याल ने वर्ष 1969 में चारु मजुमदार के साथ मिलकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट) की स्थापना की. उन्होंने इस पार्टी के माध्यम से कई वर्षों तक नक्सली आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसमें वे आदिवासी और निम्न वर्ग के लोगों के अधिकारों के लिए लड़ते रहे.

उनके जीवन के अंतिम वर्षों में, कानू सान्याल ने नक्सली आंदोलन की हिंसक प्रवृत्तियों की आलोचना की और वे एक शांतिपूर्ण और वैधानिक राजनीतिक संघर्ष की वकालत करते रहे. कानू सान्याल का निधन 23 मार्च  2010 को हुआ था , जिसके बाद  भारतीय राजनीति और नक्सली आंदोलन में उनके योगदान का एक युग समाप्त हुआ.

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