पाप का गुरू कौन…
एक पंडित जी कई वर्षों तक काशी में शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद अपने गांव लौटे. गांव के एक किसान ने उनसे पूछा, पंडित जी आप हमें यह बताइए कि पाप का गुरु कौन है? प्रश्न सुन कर पंडितजी चकरा गए, क्योंकि भौतिक व आध्यात्मिक गुरु तो होते हैं, लेकिन पाप का भी गुरु होता है, यह उनकी समझ और अध्ययन के बाहर था.
पंडितजी को लगा कि उनका अध्ययन अभी अधूरा है, इसलिए वे फिर काशी लौटे. फिर अनेक गुरुओं से मिले. मगर उन्हें किसान के सवाल का जवाब नहीं मिला..अचानक एक दिन उनकी मुलाकात एक वेश्या से हो गई. उसने पंडित जी से उनकी परेशानी का कारण पूछा, तो उन्होंने अपनी समस्या बता दी.
वेश्या बोली, पंडित जी..! इसका उत्तर है तो बहुत ही आसान, लेकिन इसके लिए कुछ दिन आपको मेरे पड़ोस में रहना होगा. पंडित जी के हां कहने पर उसने अपने पास ही उनके रहने की अलग से व्यवस्था कर दी. पंडित जी किसी के हाथ का बना खाना नहीं खाते थे, नियम- आचार और धर्म के कट्टर अनुयायी थे. इसलिए अपने हाथ से खाना बनाते और खाते. इस प्रकार से कुछ दिन बड़े आराम से बीते, लेकिन सवाल का जवाब अभी नहीं मिला.
एक दिन वेश्या बोली, पंडित जी…! आपको बहुत तकलीफ होती है खाना बनाने में. यहां देखने वाला तो और कोई है नहीं. आप कहें तो मैं नहा-धोकर आपके लिए कुछ भोजन तैयार कर दिया करूं. आप मुझे यह सेवा का मौका दें, तो मैं दक्षिणा में पांच स्वर्ण मुद्राएं भी प्रतिदिन दूंगी. स्वर्ण मुद्रा का नाम सुन कर पंडित जी को लोभ आ गया, साथ में पका-पकाया भोजन भी अर्थात दोनों हाथों में लड्डू इस लोभ में पंडित जी अपना नियम-व्रत, आचार-विचार धर्म सब कुछ भूल गए. पंडित जी ने हामी भर दी और वेश्या से बोले, ठीक है, तुम्हारी जैसी इच्छा.
लेकिन इस बात का विशेष ध्यान रखना कि कोई देखे नहीं तुम्हें मेरी कोठी में आते-जाते हुए. वेश्या ने पहले ही दिन कई प्रकार के पकवान बनाकर पंडित जी के सामने परोस दिया. पर ज्यों ही पंडित जी खाने को तत्पर हुए, त्यों ही वेश्या ने उनके सामने से परोसी हुई थाली खींच ली. इस पर पंडित जी क्रुद्ध हो गए और बोले, यह क्या मजाक है?
वेश्या ने कहा, यह मजाक नहीं है पंडित जी, यह तो आपके प्रश्न का उत्तर है. यहां आने से पहले आप भोजन तो दूर,किसी के हाथ का पानी भी नहीं पीते थे,मगर स्वर्ण मुद्राओं के लोभ में आपने मेरे हाथ का बना खाना भी स्वीकार कर लिया. यही लोभ है और लोभ ही पाप का गुरु है.
सत्येंद्र सिंह, धनबाद.
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Who is the master of sin?
A pundit ji returned to his village after studying scriptures in Kashi for many years. A farmer from the village asked him, Pandit ji, you tell us who is the master of sin? Panditji was perplexed after hearing the question because there are physical and spiritual gurus, but sin also has a guru, this was beyond his understanding and study.
Panditji felt that his studies were still incomplete, so he returned to Kashi again. Then met many gurus. But he could not find the answer to the farmer’s question. Suddenly one day he met a prostitute. When he asked Pandit Ji the reason for his problem, he told him his problem.
The prostitute said, Pandit ji..! The answer is very simple, but for this, you have to live in my neighborhood for a few days. When Pandit Ji said yes, he made separate arrangements for his stay with him. Pandit Ji did not eat food cooked by anyone, he was a staunch follower of rules, ethics, and religion. That’s why cook and eat food with your own hands. In this way a few days passed very comfortably, but the answer to the question is yet to be found.
One day the prostitute said, Pandit ji…! You have a lot of trouble in cooking. There is no one else here to see. If you ask, I will take a bath and prepare some food for you. If you give me this opportunity to serve, I will also give five gold coins daily as Dakshina. Pandit Ji got greedy after hearing the name of the golden currency, along with cooked food also means laddoos in both hands. Pandit Ji agreed and said to the prostitute, ok, as per your wish.
But take special care that no one should see you coming and going to my house. On the very first day, the prostitute prepared many types of dishes and served them in front of Pandit Ji. But as soon as Pandit ji got ready to eat, the prostitute pulled the plate served in front of him. Pandit Ji got angry about this and said, what is this joke?
The prostitute said, this is not a joke, Pandit ji, this is the answer to your question. Before coming here, you didn’t even drink water from anyone’s hand let alone food, but in the greed of gold coins, you accepted the food prepared by me. This is greed and greed is the master of sin.
Satyendra Singh, Dhanbad.