चौपाई: –
नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए।।
सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें ।।
वाल्व्याससुमनजीमहाराज श्लोक का अर्थ बताते है कि, हनुमानजी लंका पहुँचने पर उन्होंने अनेकों प्रकार के वृक्ष देखे जिस पर फल-फुल लगे थे. उन्होंने पक्षी और पशुओ के समूह को देखकर उनके मन को प्रसन्ता मिली. उन्होंने सामने एक विशाल पर्वत देखा और भय को त्याग कर उस पर दौड़कर जा चढ़े.
उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई।।
गिरि पर चढि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी ।।
अति उतंग जलनिधि चहु पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, इस दृश्य को उमापति भी देख रहे थे और भगवान भोलेनाथ ने उमा से कहा कि, हे उमा इसमें हनुमान की कोई बड़ाई नहीं है. यह तो प्रभु का प्रताप है जो काल को भी खा जाता है. महाराजजी कहते है कि, हनुमानजी ने पर्वत पर चढ़कर लंका देखी. लंका के चारों ओर समुंद्र है और यह अत्यंत ही ऊँचा है.लंका की परकोटे (चहार दीवारी) सोने से निर्मित है जिससे परम प्रकाश हो रहा है.
कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना ।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना ।।
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै ।।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, हनुमानजी ने देखा कि विचित्र मणियो से जड़ा हुआ सोने का परकोटा है, उसके अंदर बहुत से सुन्दर-सुन्दर घर है. चौराहे , बाजार, सुन्दर मार्ग और गलियाँ है , सुन्दर नगर बहुत प्रकार से सजा हुआ है. हाथी, घोड़े, खच्चरो के समूह तथा पैदल और रथो के समूहो को कौन गिन सकता है ! अनेक रूपो के राक्षसो के दल है, उनकी अत्यंत बलवती सेना को देखा जिसका वर्णन करते हुये नही बनता है.
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।।
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, वन, बाग, उपवन ( बगीचे ), फुलवाड़ी, तालाब, कुएँ और बावलियाँ सुशोभित है. मनुष्य , नाग, देवताओ और गंधर्वो की कन्याएँ अपने सौंदर्य से मुनियो के भी मन को मोहे लेती है. कही पर्वत के समान विशाल शरीर वाले पहलवान गरज रहे है. वे अनेको अखाड़ो मे बहुत प्रकार से भिड़ते और एक-दूसरे को ललकारते है.
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं।।
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, भयंकर शरीर वाले करोड़ो योद्धा बड़ी ही सावधानी से नगर की चारो दिशाओ में सब ओर से रखवाली कर रहें है. कहीं दुष्ट राक्षस भैसो, मनुष्यो, गायो, गदहो और बकरो को खा रहे है. महाराजजी कहते हैं कि, तुलसीदास ने इनकी कथा इसीलिए कुछ थोड़ी सी कही है कि वे निश्चय ही श्री रामचन्द्रजी के बाण रूपी तीर्थ मे शरीरो को त्यागकर परमगति पावेगे.
दोहा – 3.
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, नगर के बहुसंख्यक रखवालो को देखकर हनुमानजी ने मन में विचार किया कि अत्यंत छोटा रूप धरूँ और रात के समय ही नगर मे प्रवेश कँरू.
चौपाई:-
मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।
नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी ।। 1 ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, हनुमान् जी मच्छड़ के समान ( छोटा सा ) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान् श्रीरामचंद्रजी का स्मरण करके लंका को चले. महाराजजी कहते हैं कि, लंका के द्वार पर लंकिनी नाम की एक राक्षसी लंका की रक्षा करती थी. उसी लंकिनी ने हनुमानजी से कहा कि, मेरा निरादर करके और मुझसे बिना पूछे कहॉ चला जा रहा है ?
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा।।
मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, लंकिनी ने हनुमानजी से कहा कि, अरे मुर्ख! तूने मेरा भेद नही जाना जहाँ में जितने चोर है, वे सब मेरे आहार है. तब महाकपि हनुमानजी ने उसे एक घूँसा मारा, जिससे वह खून की उलटी करती हुई पृथ्वी पर लुढक पड़ी.
पुनि संभारि उठि सो लंका। जोरि पानि कर बिनय संसका।।
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, लंकिनी किसी तरह अपने आप को संभालकर उठी और डर के मारे हाथ जोड़कर विनती करते हुये बोली. हे कपीस रावण को जब ब्रह्माजी ने वर दिया था , तब चलते समय उन्होने मुझे राक्षसो के विनाश की यह पहचान बता दी थी.
बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे।।
तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, लंकिनी ने हनुमानजी से कहा कि, ब्रह्माजी ने कहा था कि, जब तू बंदर के मारने से व्याकुल हो जाए, तब तू राक्षसो का संहार हुआ जान लेना. हे तात! मेरे बड़े पुण्य है, जो मै श्रीरामचंद्रजी के दूत को नेत्रो से देख पाई.
दोहा – 4.
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखो को तराजू के एक पलड़े मे रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर उस सुख के बराबर नही हो सकते, जो क्षण मात्र के सत्संग से होता है.
चौपाई:-
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कौसलपुर राजा।।
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, अयोध्यापुरी के राजा श्री रधुनाथजी को हृदय मे रखे हुए नगर मे प्रवेश करके सब काम कीजिए. उनके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते है, समुन्द्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है और अग्नि में शीतलता आ जाती है.
गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही।।
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, हे गरूड़जी! सुमेरू पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है, जिसे श्रीरामचन्द्रजी ने एक बार कृपा करके देख लिया. तब हनुमानजी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान् का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया.
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा।।
गयउ दसानन मंदिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, हनुमानजी ने एक-एक महल में खोज की. जहाँ-तहाँ असंख्य योद्धा देखे. फिर हनुमानजी रावण के महल मे गए. वह अत्यंत ही विचित्र था, जिसका वर्णन नही हो सकता है.
सयन किए देखा कपि तेही। मंदिर महुँ न दीखि बैदेही।।
भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ।।
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, हनुमानजी ने रावण को सोते हुये देखा, परन्तु महल में माता जानकीजी नही दिखाई दी. तभी उन्होंने एक और सुन्दर महल देखा. उस महल में भगवान् के लिए एक अलग से मंदिर बना हुआ था.
वालव्याससुमनजीमहाराज, महात्मा भवन,
श्रीरामजानकी मंदिर, राम कोट,
अयोध्या. 8544241710.