Dharm

सुन्दरकाण्ड-02…

दोहा – 2

राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।

आसिष देई गई सो , हरिष चलेऊ हनुमान ।।

वाल्व्याससुमनजीमहाराज श्लोक का अर्थ बताते है कि, हे पवनसुत आप श्रीरामचन्द्रजी के सभी कार्यों को पूर्ण करोगे क्योकिं, तुम बल-बुद्धि के भंडार हो. यही आशीर्वाद देकर वह चली गई और हनुमान जी हर्षित (खुश) होकर चले.

चौपाई:-

निसिचर एक सिंधु मह रहई। करि माया नभु के खग गई ।।

जीव जंतु जे गगन उड़ाई। जल बिलोकि तिन्ह के परछाई ।।

तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा ।।

महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, समुद्र में एक राक्षसी रहती थी जो माया करके आकाश (नभ) में उड़ते हुये पक्षियों को पकड़ लेती थी. महाराजजी कहते हैं कि, आकाश में जो भी जीव-जन्तु उड़ते थे उन जीवों के पड़छाई को पकड़ लेती थी. इससे जीव उड़ नहीं पाते थे और जल(पानी) में गिर जाते थे.

गहई छाहं‌ सक सो न उड़ाही। ऐहिं विधि सदा गगनचर खाई ।।

सोई छल हनुमान कह कींहा। टासू कपटू कपि तुरन्तहिं चीन्हा ।।

महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, समुद्री राक्षसी इस प्रकार आकाश में उड़ते हुये जीवों को पकड़ कर खाया करती थी. महाराजजी कहते हैं कि, समुद्री राक्षसी जो छल दूसरे जीवों के साथ करती थी वही छल हनुमानजी से की. पवनपुत्र ने उस छल को तुरंत ही पहचानलिया और उसे मारकर समुंद्र के पार गए. वहां जाकर उन्होंने वनों की शोभा देखि साथ ही उन्होंने पुष्प रस के लोभ से भौंरे गुंजार कर रहे थे.

वालव्याससुमनजीमहाराज, महात्मा भवन,

श्रीरामजानकी मंदिर, राम कोट,

अयोध्या. 8709142129.

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