सुन्दरकाण्ड…
सत्संग –वार्ता के दौरान एक भक्त ने महाराजजी से पूछा कि महाराजजी ब्राहमण, ज्ञानी और विद्वतजन सुन्दरकाण्ड पढ़ने की सलाह देते हैं. महाराजजी आखिर सुन्दरकाण्ड है क्या? इसके बारे में महाराजजी विस्तार से बताने का कष्ट करें.
वाल्व्याससुमनजी महाराज कहते हैं कि, रामायण संस्कृत साहित्य का एक आरम्भिक महाकाव्य है इस महाकाव्य में प्रभु श्रीराम के चरित्रों वर्णन है. महाराजजी कहते हैं कि, सबसे पहले महर्षि वाल्मीकि ने इस महाकाव्य की रचना की थी. अत: इस महाकाव्य को ‘वाल्मीकीय रामायण’ कहा जाता है. वहीँ, 16वीं, सदी में अवधि-हिन्दी साहित्य के महान सन्त कवि ने भी प्रभु श्रीराम के चरित्रों का वर्णन करते हुये एक महाकाव्य की रचना की जिसे ‘तुलसी रामायण’ या ‘तुलसीकृत रामायण’ भी कहा जाता है.
महाराजजी कहते हैं कि, तुलसीदास ने रामचरितमानस को सात काण्डों में विभक्त किया है. इन सात काण्डों के नाम हैं – बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड (युद्धकाण्ड) और उत्तरकाण्ड. सुन्दरकाण्ड रामचरित मानस के सात कांडों में से एक काण्ड है. इसमें हनुमान जी द्वारा सीता की खोज और राक्षसों के संहार का वर्णन किया गया है. इसमें दोहे और चौपाइयां विशेष छंद में लिखी गयी हैं. सम्पूर्ण मानस में श्रीराम के शौर्य और विजय की गाथा लिखी गयी है लेकिन सुन्दरकाण्ड में उनके भक्त हनुमान के बल और विजय का उल्लेख है.
महाराजजी कहते हैं कि, श्रीरामचरितमानस का पंचम सोपान सुन्दरकाण्ड है. इस सोपान में 03 श्लोक, 02 छन्द, 58 चौपाई, 60 दोहे और लगभग 6241 शब्द हैं. महाराजजी कहते हैं कि, महाराजजी कहते हैं कि, सुंदरकाण्ड में हनुमान का लंका प्रस्थान, लंका दहन से लंका से वापसी तक के घटनाक्रम आते हैं. हनुमानजी का लंका की ओर प्रस्थान, विभीषण से भेंट, सीता से भेंट करके उन्हें श्रीराम की मुद्रिका देना, अक्षय कुमार का वध, लंका दहन और लंका से वापसी.
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदंब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिंवन्देऽहंकरुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्॥
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, सत्य, सनातन, शान्त, प्रमाणों से परे निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति देने वाले, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजी से निरंतर सेवित, वेदान्त के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्वर की मैं वंदना करता हूँ.
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीयेसत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मेकामादिदोषरहितंकुरु मानसं च॥
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, हे रघुनाथजी! मैं सत्य कहता हूँ कि आप सबके अंतरात्मा ही हैं. हे रघुकुलश्रेष्ठ! मुझे अपनी पूर्ण भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए.
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहंदनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशंरघुपतिप्रियभक्तंवातजातं नमामि॥
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, हे पवन कुमार आप अतुल बल के धाम, सुमेरु पर्वत के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्रीरघुनाथजी के प्रिय भक्त श्री हनुमान् जी को मैं प्रणाम करता हूँ.
जामवंत के बचन सुहाए,सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई,सहि दुख कंद मूल फल खाई ॥
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, जामवंत के सुंदर वचन सुनकर हनुमानजी के हृदय को बहुत ही अच्छे लगे और बोले हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द-मूल-फल खाकर तब तक मेरी राह देखना.
जब लगि आवौं सीतहि देखी,होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा,चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ॥
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, जब तक मैं सीताजी को देखकर लौट न आऊँ. हनुमानजी ने कहा कहा कि काम अवश्य होगा. क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है. यह कहते हुये सबको मस्तक झुकाकर हृदय में श्री रघुनाथजी को धारण करके मन प्रसन्न करके चले.
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर,कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥
बार–बार रघुबीर सँभारी,तरकेउ पवनतनय बल भारी ॥
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, समुद्र के किनारे पर एक सुंदर पर्वत था और हनुमानजी खेल-खेल में अनायास ही कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार श्रीरघुवीर का स्मरण करके हनुमानजी उस पर से बड़े वेग से उछले.
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता,चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना,एही भाँति चलेउ हनुमाना॥
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, जिस पर्वत पर हनुमान् जी पैर रखकर चले वह तुरंत ही पाताल में धँस गया. जैसे श्रीरघुनाथजी का अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमानजी भी चले.
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी,तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥
महाराजजी श्लोक का अर्थ बताते है कि, समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथजी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि हे मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो. अत: अपने ऊपर इन्हें विश्राम करने दो.
वाल्वयासुमनजी महाराज,
महात्मा भवन, श्री रामजानकी
टेम्पल, राम कोट, अयोध्या.
कांटेक्ट: – 8709142129.