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आग्रह…

गरीब किसान के खेत में बिना बोये लौकी का पौधा उग आया, बड़ा हुआ तो उसमे तीन लौकियाँ लगीं, उसने सोचा इन्हें बाजार में बेचकर घर के लिए कुछ सामान ले आऊँगा, अतः वो तीनों लौकियाँ लेकर गाँव के बाजार में गया और बेचने के यत्न से एक किनारे बैठ गया समाज के प्रधान आये और पूछा “लौकी कितने की है गरीब किसान ने कहा “मालिक” दस रुपये की, उसने दीनता से कहा” लौकी बड़ी थी, प्रधान ने एक लौकी उठायी और ये कहकर चलता बना “बाद में ले लेना सी प्रकार कुछ देर पश्चात थाने का मुंशी आया और वो भी दूसरी लौकी लेकर चलता बना

किसान बेचारा पछता कर रह गया, अब एक लौकी बची थी, वो भगवान से प्रार्थना कर रहा था, कि ये तो बिक जाये, ताकि कुछ और नहीं तो बच्चों के लिए पतासे और लइया ही लेता जायेगा तभी उधर से दरोगा साहब गुज़रे, नज़र इकलौती लौकी पर पड़ी, दरोगा जी ने किसान को देखा और कडक कर पूछा, “कितने की दी किसान डर गया, अब यह लौकी भी गई, सहमकर बोला “मालिक” दो तो चली गयीं, इसको आप ले जाओ क्या मतलब दरोगाजी ने पूछा, “साफ़-साफ़ बताओ किसान पहले घबराया, फिर डरते-डरते सारा किस्सा दरोगाजी को बता दिया, दरोगा जी हँसे, वो किसान को लेकर प्रधान के घर पहुँचे, प्रधानजी मूछों पर ताव देते हुए बैठे थे और पास में उनकी पत्नी बैठी लौकी छील रही थी, दरोगा ने पूछा “लौकी कहाँ से लाये प्रधानजी चारपाई से उठकर खड़े हो गए और कहा “बाजार से खरीदकर लाया हूँ दरोगाजी ने कहा कितने की प्रधान की बोलती बंद, नज़र किसान की तरफ उठ गयी, दरोगाजी समझ गए, आदेश दिया “चुपचाप किसान को एक हज़ार रुपये दो, वर्ना चोरी के इलज़ाम में बंद कर दूँगा, “काफी हील-हुज्जत हुई पर दरोगाजी अपनी बात पर अड़े रहे, और किसान को एक हज़ार रुपये” दिलाकर ही माने दरोगाजी अब किसान को लेकर थाने पहुँचे, सभी सिपाहियों और हवलदारों को किसान के सामने खड़ा कर दिया, पूछा “इनमे से कौन है किसान ने एक हवलदार की तरफ डरते-डरते ऊँगली उठा दी, दरोगा गरजा “शर्म नहीं आती  वर्दी की इज़्ज़त नीलाम करते हो, सरकार तुम्हे तनख्वाह देती है, बेचारा किसान कहाँ से लेकर आएगा, चलो चुपचाप किसान को एक हज़ार रुपये निकलकर दो, “हवलदार को जेब ढीली करनी पड़ी

अब तक किसान बहुत डर गया था, सोच रहा था, दरोगा जी अब ये सारा रुपया उससे छीन लेंगे, वह जाने के लिए खड़ा हुआ, तभी दरोगा ने हुड़का “जाता कहाँ है अभी तीसरी लौकी की कीमत कहाँ मिली

उन्होंने जेब से पर्स निकाला और किसान को एक हज़ार रुपये पकड़ाते हुए बोले “अब जा और आईन्दा से तेरे साथ कोई नाइंसाफी करे तो मेरे पास चले आना किसान दरोगा को लाख दुआएँ देता हुआ घर लौट आया, लेकिन सोचता रहा, ये किस ज़माने का दरोगा है, अगर ऐसा सच में होने लगे तो क्या बात हैं।

कहानी का मुख्य उद्धेश्य आज समाज को कोई ऐसा दरोगा चाहिए जो मुफ्त की लोकियाँ ले जाने वालों पर अंकुश लगाये, लगभग 2018 में समाज के एक युवा ने कार्तिक पूर्णिमा पर पुष्कर में कुछ युवाओं को लेकर यह हिम्मत जुटाई थी, जिसने भरी सभा में हुँकार भरते हुए कहा कि समाज का 2009 से करोड़ों रुपये का हिसाब रखों, आनन-फानन में हुए इस हमले से उपस्थित पदाधिकारी बौखला गये, संख्या बल में पदाधिकारी तथा उनके कुछ गुर्गे अधिक होने का उन्होंने फायदा उठाया और एक गैर जरूरी बात का बतंगड़ बना कर उस युवा पर उनके फर्जी फ़ीडकलों ने हमला करने का ढोंग कर माहौल को बिगाड़ दिया, समाज के बाकी लोग देखते रह गये, कुछ लोगों ने उस युवा को वँहा से अलग किया, अंत में युवा को यह जवाब मिला कि हमारे पास कोई बही हैं न खाता हैं, न ही कोई हिसाब किताब हैं, जो करना हैं कर लों

युवा शक्ति के इस हुए हमले से भयभीत होकर आनन-फानन में कुछ लोगों ने मिलकर अनैतिक रूप से संविधान संसोधन कर उसमें सबसे पहले यह संसोधन किया कि अध्यक्ष पद के उम्मीदवार की उम्र 45 वर्ष होनी आवश्यक हैं, शायद इसे कहते हैं सर्जिकल स्ट्राइक, एक युवा से घबरा कर संविधान में संशोधन करना पड़ा, मर्दानगी का अहसास होता तो बिना संसोधन के ही चुनाव करवाते, दूध का दूध पानी का पानी हो जाता लगभग 2009 से आज तक किसी भी तरह का हिसाब समाज को नहीं दिया गया, और सहयोग राशी करोड़ों रूपये में समाज द्वारा प्राप्त कि गई, जब भी कोई हिसाब की बात करते हैं तो सवाल करने वालों से यह कहा जाता हैं कि कार्तिक पूर्णिमा पर पुष्कर आ जाओ, उसी समय शादियों का उत्सव आ जाता हैं, तो अधिकतर लोग जा नहीं पाते, कोई एक दो लोग जाते भी हैं तो पदासीन लोगों द्वारा मुस्तैद असामाजिक किस्म के लोगों से उनको किसी भी तरह के विवाद में उलझा कर उन पर हमला करवा दिया जाता हैं, ताकि दूसरा कोई सवाल ही न करें आज समाज को उपरोक्त कहानी में हैं जैसे दरोगा की जरूरत हैं, और समाज की बदकिस्मती कहो या कुछ और कि पद की लालसा में अधिकतर बुद्धिजीवी लोग आँखें मूंदे हुए ऐसे लोगों के अनैतिक कार्यों को संरक्षण दे रहे हैं, और ऐसे लोग खुले आम मजे ले रहे हैं समाज यदि 2009 से आज तक के कार्यकाल को देखें, तो भले ही यह कहा जाय कि यह संवैधानिक प्रक्रिया से चुने गये पदाधिकारी हैं, मगर वास्तविकता समाज भलीभांति जानती हैं, सिर्फ पद बदले हैं, मगर चेहरे वही हैं, कारण साफ हैं लोगों को लुभाने के तरीका यह लोग जानते हैं, और उसका भरपूर उपयोग कर भी रहे हैं, समाज समझना ही नहीं चाहती हैं तो इन बेचारों का क्या दोष जिस संस्था के संविधान में यह संसोधन किया गया उसमें सोसाइटी के आगे जो तथ्य रखे गये, यदि समाज उस पर संज्ञान ले, तो उसमें कही पर न तो “राष्ट्रीय” और न ही सम्पूर्ण भारत का प्रतिनिधित्व जैसे शब्द का कही उल्लेख हैं, यानि की फर्जीवाड़ा भी इस कदर किया जा रहा हैं, मानो समाज कुछ लोगों के बाप की बपौती हैं और आजीवन यह लोग समाज को नोंच-नोंच कर खाते रहें और कोई इनको हिसाब-किताब भी न पूछें लगभग 20 सालों से समाज से धन सहयोग लिया जा रहा हैं, जो करोड़ों में हैं और पुष्कर की धर्मशाला के हालत किसी के ठहरने लायक नहीं बन सकीं, केवल सुधार हुआ तो यह कि किसी का शिलालेख यहाँ से वहां हुआ और वहां था उसका कही और लगा दिया गया, सहयोग देने वाले समाज बंधुओं ने तो आज तक देखा भी नहीं होगा कि उनके धन का किस तरह उपयोग हो रहा हैं और कँहा हो रहा हैं ।

प्रभाकर कुमार. 

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