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इतिहास से संबंधित-127.

राजपूत काल...

इतिहास की किताबों में राजपूत काल का वर्णन आया है. आखिर राजपूत शब्द का अर्थ क्या होता है? बताते चलें कि ‘राजपुत्र’ संस्कृत का शब्द है जो अपभ्रंश होकर राजपूत हो गया है. बताते चलें कि, प्राचीन काल में इस शब्द का प्रयोग किसी जाति के रूप में न होकर राजपरिवार के सदस्यों के लिए होता था. परन्तु,  हर्ष की मृत्यु के बाद राजपुत्र शब्द का ही प्रयोग ‘जाति’ के रूप में होने लगा.

भारतीय इतिहास में यह काल ‘राजपूत काल’ के नाम से जाना जाता है. कुछ इतिहासकर इसे संधिकाल का पूर्व मध्यकाल भी कहते हैं, क्योंकि यह प्राचीन काल एवं मध्यकाल के बीच कड़ी स्थापित करने का कार्य करता है. कुछ विद्वान् राजपूतों को आबू पर्वत पर महर्षि वशिष्ट के अग्निकुंड से उत्पन्न हुआ मानते हैं. प्रतिहार, चालुक्य, चौहान और परमार राजपूतों का जन्म इसी से माना जाता है.

कर्नल टॉड जैसे विद्वान राजपूतों को शक, कुषाण तथा हूण आदि विदेशी जातियों की संतान मानते हैं. डॉ०  ईश्वरी प्रसाद तथा भंडारकर आदि विद्वान् भी राजपूतों को विदेशी मानते हैं वहीं, जी०एन०ओझा. और पी०सी० वैद्य तथा अन्य कई इतिहासकार यही मानते हैं की राजपूत प्राचीन क्षत्रियों की ही संताने हैं. इस काल में उत्तर भारत में राजपूतों  के प्रमुख वंशों – चौहान, परमार, गुर्जर, प्रतिहार, पाल, चंदेल, गहड़वाल आदि ने अपने राज्य स्थापित किए.

हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया तेज हो गयी. किसी शक्तिशाली केन्द्रीय शक्ति के अभाव में छोटे छोटे स्वतंत्र राज्यों की स्थापना होने लगी. सातवीं-आठवीं शताब्दी में उन स्थापित राज्यों के शासक ‘ राजपूत’ कहे गए.उनका उत्तर भारत की राजनीति में बारहवीं सदी तक प्रभाव कायम रहा. आइए जानते हैं राजपूत काल के वंशजों के बारे में….

गुर्जर-प्रतिहार वंश :- अग्निकुल के राजपूतों में सर्वाधिक महत्त्व प्रतिहार वंश का था. जिन्हें गुर्जरों से सम्बद्ध होने के कारण गुर्जर-प्रतिहार भी कहा जाता है. परंपरा के अनुसार हरिवंश को गुर्जर-प्रतिहार वंश का संस्थापक माना जाता है, लेकिन इस वंश के वास्तविक संस्थापक ‘नागभट्ट प्रथम’ को माना जाता है. प्रतिहार वंश की प्राथमिक जानकारी पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल अभिलेख, बाण के हर्षचरित और ह्वेनसांग के विवरणों से प्राप्त होता है.

प्रतिहारों का राज्य उत्तर भारत के व्यापक क्षेत्र में विस्तृत था. यह गंगा-यमुना, दोआब, पश्चिमी राजस्थान, हरियाणा तथा पंजाब के क्षेत्रों तक फैला हुआ था. नागभट्ट प्रथम ने सिंध के अरब शासकों से पश्चिमी भारत की रक्षा की. ग्वालियर प्रशस्ति में उसे ‘म्लेच्छों (सिंध के अरब शासक) का नाशक’  भी कहा जाता है. उसके बाद वत्सराज इस वंश का शक्तिशाली शासक था. वत्सराज के बाद उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय गद्दी पर बैठा. उसने कन्नौज पर अधिकार करके उसे प्रतिहार साम्राज्य की राजधानी बनाया.

मिहिरभोज के पुत्र ने राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय को हराकर मालवा प्राप्त किया तथा आदिवराह तथा प्रभास जैसी उपाधियाँ भी धारण की. मिहिरभोज के पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम के दरबार में प्रसिद्द विद्वान् राजशेखर निवास करते थे. राजशेखर ने कर्पूर मंजरी, काव्यमीमांसा, विद्वशालमंजिका, बालभारत, बालरामायण, भुवनकोश तथा हरविलास जैसे प्रसिद्द जैन ग्रंथों की रचना भी की.        महिपाल भी इसी वंश का कुशक एवं प्रतापी शासक था. इसके शासनकाल में बगदाद निवासी अल-मसूदी गुजरात आया था.

महिपाल के शासनकाल में गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का विघटन प्रारंभ हो गया था. इसके बाद महेन्द्रपाल द्वितीय, देवपाल, विनायक पाल और विजयपाल जैसे कमजोर शासकों ने भी शासन किया. ह्वेनसांग ने गुर्जर राज्य को पश्चिमी भारत का दूसरा सबसे बड़ा राज्य कहा है.

चौहान वंश:- वासुदेव को इस वंश का संस्थापक माना जाता है. इसने अपनी राजधानी अजमेर के निकट शाकंभरी में स्थापित की थी. चौहान शासक गुर्जर प्रतिहारों के सामंत थे. दसवीं शताब्दी के आरंभ में वक्पतिराज प्रथम ने प्रतिहारों से अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया था. पृथ्वीराज के प्रथम पुत्र अजयराज ने अजमेर नगर की स्थापना कर उसे अपने राज्य की राजधानी बनाया. विग्रह्राज चतुर्थ बीसलदेव इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक हुए थे. इसने तोमर राजाओं को पराजित करके दिल्ली पर अपना अधिकार कर लिया था. यह विजेता होने के साथ साथ कवि और विद्वान् भी थे. इसने ‘हेरिकेली’ नमक एक संस्कृत नाटक की रचना की थी. इनके दरबार में ललितविग्रह्राज का रचनाकार सोमदेव रहते थे.

इस वंश का सर्वाधिक उल्लेखनीय शासक पृथ्वीराज तृतीय था, जिसकी चर्चा लोक कथाओं में भी मिलती है. पृथ्वीराज तृतीय वर्ष 1178 ई० में चौहान वंश का शासक बना था इसे ‘रायपिथौरा’ भी कहा जाता है. वर्ष 1191 ई० में तराइन के युद्ध में मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज को पराजित कर भारत में मुस्लिम सत्ता का मार्ग प्रशस्त किया. पृथ्वीराज के दरबार में भयानक भट्ट, विद्यापति गौड़, पृथ्वीभट्ट, बागीश्वर तथा चन्द्रबरदाई आदि-आदि विद्वान् निवास करते थे. हम्मीर महाकाव्य में चौहान वंश के इतिहास और परम्पराओं का विवरण मिलता है.

पृथ्वीराज तृतीय के राजकवि चंदरबरदाई ने पृथ्वीराज रासो नामक अपभ्रंश महाकाव्य और जयानक ने ‘पृथ्वीराज विजय’ नमक संस्कृत काव्य की रचना की थी. दिल्ली लेख से पता चलता है की इस वंश के शासकों ने हिमालय से विन्ध्य पर्वत तक के क्षेत्र से कर वसूल किया करते  थे. इस वंश का साम्राज्य दिल्ली, झांसी, पंजाब, राजपुताना और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक विस्तृत था.

गहड़वाल वंश :-  चन्द्रदेव को गहड़वाल वंश का संस्थापक माना जाता है। इसने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया था.  प्रतिहार साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर जिन राजवंशों का उदय हुआ, उनमे गहड़वाल वंश के शासक प्रमुख थे. चंद्रदेव के वाराणसी दानपत्र, मदनपाल का वसही अभिलेख तथा कुमार देवी के सारनाथ अभिलेख से गहड़वाल वंश की जानकारी मिलती है. गोविन्द इस वंश के सबसे सर्वाधिक शक्तिशाली शासक थे. इसने आधुनिक पश्चिम बिहार तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के भागों को अपने अधीन कर कन्नौज के प्राचीन गौरव को पुनः स्थापित किया. इसने मुसलमानों को वार्षिक भुगतान करने के लिए ‘तुरुष्कदण्ड’ नामक कर भी लगाया था.

गोविन्द चंद्र एक विद्वान् शासक था. पृथ्वीराज रासो से इसके और चौहान शासक पृथ्वीराज तृतीय के संबंधों के बारे में पता चलता है. पृथ्वीराज ने जयचंद की पुत्री संयोगिता का अपहरण कर लिया था. जयचंद के दरबार में प्रख्यात कश्मीरी विद्वान् श्री हर्ष निवास करते थे, जिन्होंने ‘नैषधचरित’ एवं ‘खण्डन खाद्य’ की रचना की थी. जयचंद ने तरावादी के युद्ध में पृथ्वीराज तृतीय के विरुद्ध मुहम्मद गौरी का साथ दिया था तथा बनारस (वर्तमान वाराणसी) को अपनी दूसरी राजधानी बनाया था.

मालवा का परमार वंश :- इस वंश का संस्थापक उपेन्द्र को माना जाता है.इसने धारानगरी को अपनी राजधानी बनाया. मालवा के परमार शासक पूर्व में राष्ट्रकूट शासकों के सामंत थे. सीयक द्वितीय को इस वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है क्योंकि इसने राष्ट्रकूटों को चुनौती देते हुए स्वतंत्रता की घोषणा की थी.

मालवा में परमारों की शक्ति का उत्कर्ष वाक्यपतिमुंज के समय आरंभ हुआ था. इसने त्रिपुरी के कलचुरी तथा चालुक्य नरेश तैलप द्वितीय को पराजित किया.वाक्यपतिमुंज कला एवं साहित्य का महान संरक्षक था. इसके दरबार में पद्म्गुप्त, धनंजय, धनिक तथा हलायुथ जैसे विद्वान् निवास करते थे. इसके द्वारा निर्मित मुंजसागर झील आज तक परिरक्षित है.

मुंज की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई सिन्धुराज शासक बना, पद्म्गुप्त द्वारा रचित ‘नवसाहसांक चरितम’ में इसके ही जीवन चरित्र का वर्णन किया गया है. भोज सिन्धुराज का पुत्र और परमार वंश का सबसे महत्वपूर्ण शासक था. इसकी राजनितिक उपलब्धियों का विवरण उदयपुर से प्राप्त होता है. भोज ने अपने समकालीन नरेशों, जैसे- कल्याणी के चालुक्यों एवं अन्हिलवाड़ के चालुक्यों को पराजित किया, किन्तु चंदेल शासक विद्याधर के हाथों पराजित हुआ.

भोज अपनी विद्वता के कारण कविराज की उपाधि से विख्यात था. कहा जाता है कि,  उसने विविध विषयों-चिकित्साशास्त्र, खगोलशास्त्र, धर्म, व्याकरण, स्थापत्य शास्त्र आदि पर कई ग्रंथों की रचना की थी. भोज शिक्षा और संस्कृति का महान संरक्षक था. उसने धारा में एक सरस्वती मंदिर और एक संस्कृत महाविद्यालय का निर्माण कराया. इसने ही भोजपुर नामक एक नगर की स्थापना की थी. भोज की मृत्यु पर यह कहावत प्रचलित हो गयी कि “अद्यधारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती” अर्थात विद्या और विद्वान् दोनों निराश्रित हो गए.

गुजरात का चालुक्य वंश :-  गुजरात का चालुक्य अथवा सोलंकी वंश अग्निकुंड से उत्पन्न राजपूतों में से एक माने जाते हैं. इस वंश के शासक जैन धर्म के पोषक और संरक्षक थे. इस वंश की विशेष जानकारी मुख्य रूप से जैन लेखकों के ग्रंथों से होती है. इन ग्रंथों में हेमचन्द्र का द्वाश्रयकाव्य, मेरुतुंगकृत प्रबंध चिंतामणि, सोमेश्वरकृत कीर्तिकौमुदी आदि का उल्लेख किया जा सकता है. गुजरात के चालुक्य वंश का संस्थापक मूलराज प्रथम था. इसने गुजरात के एक बड़े भाग को जीतकर अन्हिलवाड़ को अपनी राजधानी बनाया.

भीम प्रथम इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था. इसके शासन काल में गुजरात पर महमूद गजनवी  ने आक्रमण कर सोमनाथ मंदिर को लूटा  था. भीम प्रथम ने ही सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया तथा इसके सामंत विमल ने आबू पर्वत पर दिलवाडा के मंदिर का निर्माण करवाया. इस वंश के शासक जयसिंह ‘सिद्धराज’ ने मालवा के परमार शासक यशोवर्मन को युद्ध में पराजित कर अवन्तिनाथ की उपाधि धारण की.

जयसिंह शैव धर्म अनुयायी था. इसके दरबार में प्रसिद्द जैन आचार्य हेमचन्द्र सूरी निवास करते थे. कुमारपाल इस वंश का महत्वाकांक्षी शासक था। हेमचन्द्र ने इसे जैन धर्म में दीक्षित किया था. जैन परम्परा के अनुसार कुमारपाल ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में पशु हत्या, मद्यपान एवं द्यूतक्रीड़ा पर प्रतिबन्ध लगा दिया था.

मूलराज द्वितीय ने वर्ष 1178 ई. में आबू पर्वत के निकट मुहम्मद गौरी को हराया था. भीम द्वितीय-II चालुक्य वंश का अंतिम शासक था. इसने चालुक्य शक्ति एवं प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित किया. चालुक्य शासकों की राज्य सीमाएं पश्चिम में काठियावाड़ तथा गुजरात, पूर्व में भिलासा (मध्य प्रदेश), दक्षिण में बलि एवं सांभर तक फैली हुई थी.

बुंदेलखंड के चंदेल :-  प्रारंभिक चंदेल प्रतिहारों के सामंत थे. चंदेलों को अत्री के पुत्र चन्दात्रेय का वंशज कहा जाता है.  इस वंश का प्रथम शासक नन्नुक था उसके पौत्र जयसिंह अथवा गेजा के नाम पर यह प्रदेश जेजाकभुक्ति के नाम से प्रसिद्द हुआ था.  हर्ष  रहिद का पुत्र था. इसने प्रतिहारों से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की. खजुराहो अभिलेख में इसे परम भट्टारक कहा गया है, जो उसको स्वतंत्र स्थिति को प्रकट करता है.

यशोवर्मन इस वंश का महत्वपूर्ण शासक था. इसने मालवा और चेरि पर आक्रमण करके अपने साम्राज्य के विस्तार किया. खजुराहो अभिलेख में यशोवर्मन की विजयों एवं पराक्रम का वर्णन मिलता है. यशोवर्मन ने खजुराहो में विष्णु को समर्पित चतुर्भुज मंदिर का निर्माण भी करवाया था. यशोवर्मन का पुत्र धंग इस वंश का प्रसिद्द शासक था. इसने कालिंजर को अपनी राजधानी बनाया. ग्वालियर की विजय धंग की सबसे महत्वपूर्ण सफलता थी.

फ़रिश्ता के अनुसार धंग सुबुक्तगीन के विरुद्ध भटिंडा के शाही वंश के शासक जयपाल द्वारा बनाये गए संघ में शामिल हुआ, जिसे सुबुक्तगीन ने पराजित कर दिया था. धंग एक महान मंदिर निर्माता था. इसने अनेक भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया जिनमे जिजनाथ, विश्वनाथ, वैद्यनाथ आदि मंदिर उल्लेखनीय हैं. यह प्रतापी शासक था. इसने न सिर्फ महमूद गजनवी का सफल प्रतिरोध किया, बल्कि उसे संधि करने के लिए बाध्य किया. बुंदेलखंड के चंदेल शासकों में परमार्दिदेव अथवा परिमल अन्तिम शक्तिशाली शासक था. प्रसिद्द योद्धा आल्हा और ऊदल चंदेल शासक परिमल के राजाश्रय में थे. आल्हा और ऊदल ने पृथ्वीराज चौहान से महोबा की रक्षा करते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया.

चेदि राजवंश :-  चेदि राजवंश के शासकों को त्रिपुरी के कलचुरी वंश के नाम से भी जाना जाता है. कोक्कल प्रथम इस वंश का प्रथम शासक था. इसने ही कन्नौज के प्रतिहार शासक मिहिरभोज को पराजित किया था. चेदि शासक लक्ष्मणराज ने बंगाल, उड़ीसा तथा कौशल को तथा पश्चिम में गुर्जर, लाट शासक एवं अमीरों को जीता था.

कोक्कल द्वितीय के शासनकाल में कुलचुरियों की शक्ति पुनर्स्थापित हुई. इसने ही  गुजरात के चालुक्य वंशीय शासक चामुण्डराज को पराजित किया था. गांगेयदेव ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी. इसने अंग, उत्कल, प्रयाग पर अधिकार कर लिया तथा पाल शासकों से कशी छीन ली. विजय सिंह इस वंश का अंतिम शासक था. तेहरवीं शताब्दी के आरंभ में चंदेल शासक त्रैलोक्य वर्मन ने इसे पराजित कर त्रिपुरी पर अधिकार कर लिया था.

बंगाल के पाल एवं सेन वंश :-  पाल वंश की स्थापना गोपाल नामक एक सेनानायक ने की थी. गोपाल के पश्चात उसका पुत्र धर्मपाल पाल वंश की गद्दी पर बैठा. धर्मपाल एक बौद्ध धर्मानुयायी शासक था. इसने विक्रमशिला विश्वविद्यालय एवं उदन्तपुर विश्वविद्यालय की स्थापना की.  गुजराती कृति सोडढल ने धर्मपाल को उत्तरापथके स्वामी की उपाधि से सम्बंधित किया. धर्मपाल के लेखों में उसे ‘परम सौगात’ कहा गया है.

देवपाल अपने पिता धर्मपाल की भांति साम्राज्यवादी था. उसने अरब यात्री सुलेमान ने देवपाल को प्रतिहार, प्रतिहार, राष्ट्रकूट शासकों से अधिक शक्तिशाली बताया है. महीपाल प्रथम ने पाल वंश की शक्ति तथा प्रतिष्ठा को पुनर्जीवित करके अपनी योग्यता सिद्ध की थी. संध्याकर नंदी द्वारा रचित ‘रामपालचरित’ पुस्तक में नायक रामपाल को इस वंश का अंतिम शासक माना जाता है.

रामपाल की शासनावधि में ही ‘कैवर्तों का विद्रोह’ हुआ था, जिसका वर्णन राम्पल्चारित में मिलता है. पाल शासकों के साम्राज्य का विस्तार सम्पूर्ण बंगाल, बिहार तथा कन्नौज तक था. इनका शासन बंगाल की खाड़ी से लेकर दिल्ली तक तथा जालंधर से लेकर विन्ध्य पर्वत तक फैला हुआ था.

सेन वंश :-  पाल वंश के पतन के बाद सेन वंश के शासकों ने बंगाल और बिहार में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली थी और इनकी राजधानी लखनौती थी. सेन वंश के शासक मूलतः कर्नाटक के निवासी थे, जो बंगाल में आकर बस गए थे. इस वंश के शासकों ने पुरी, काशी तथा प्रयाग में विजय स्तंभ स्थापित किये थे, जिससे यह पता चलता है कि सेन शासकों ने समकालीन शासकों से काशी और प्रयाग छीनकर अपने साम्राज्य का विस्तार भी किया था.

इस वंश का शासक सामंत सेन था, जिसे ब्राह्मण क्षत्रिय भी कहा जाता था. विजय सेन इस वंश का सबसे प्रतापी शासक था और इसने विजयपुरी तथा विक्रमपुर की स्थापना की थी. विजयसेन की मृत्यु के बाद बल्लालसेन बंगाल का शासक बना. इसने बंगाल में जाति प्रथा तथा कुलीन प्रथा को संगठित करने का श्रेय दिया जाता है.

बल्लाल्सेन एक विद्वान् शासक था. इसने ‘दासनगर’ और ‘अद्भुत सागर’ नामक दो ग्रंथों की रचना की थी. लक्ष्मण सेन एक विजेता तथा साम्राज्यवादी शासक था. इसने गहड़वाल शासक जयचंद्र को पराजित किया था. लक्ष्मणसेन के दरबार में अनेक प्रसिद्द विद्वान और लेखक निवास करते थे उनमे, जयदेव, धोयी और हलायुद्ध के नाम उल्लेखनीय हैं.

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