
व्यक्ति विशेष– 545.
क्रांतिकारी दामोदर हरी चापेकर
दामोदर हरी चापेकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख क्रांतिकारी थे, जिन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाफ संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्हें उनके दो भाइयों, बालकृष्ण और वासुदेव चापेकर के साथ मिलकर वर्ष 1897 में पुणे में वॉल्टर चार्ल्स रैंड, प्लेग कमिश्नर की हत्या के लिए जाना जाता है.
दामोदर हरी चापेकर का जन्म 24 जून, 1869 को महाराष्ट्र में पुणे के ग्राम चिंचवाड़ में हुआ था. उनके पिता का नाम हरिपंत चापेकर था. बचपन से ही सैनिक बनने की इच्छा दामोदर हरी चापेकर के मन में थी और उनके आदर्श महर्षि पटवर्धन और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक थे.
चापेकर भाईयों ने यह हत्या तब की थी जब पुणे में प्लेग की महामारी फैली हुई थी और ब्रिटिश प्रशासन द्वारा इसके नियंत्रण के लिए अपनाई गई कठोर नीतियों के कारण जनता में बहुत रोष था. रैंड की हत्या का मकसद ब्रिटिश प्रशासन को एक सख्त संदेश देना था कि भारतीय जनता उनकी दमनकारी नीतियों को सहन नहीं करेगी.
इस घटना के बाद चापेकर भाई और उनके सहयोगी गिरफ्तार किए गए और उन्हें मुकदमे के बाद फाँसी की सजा सुनाई गई. दामोदर और बालकृष्ण दोनों को वर्ष 18 अप्रैल 1898 को फाँसी दी गई थी. दामोदर हरी चापेकर और उनके भाईयों का बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक प्रेरणा के रूप में देखा जाता है. उनकी कहानी ने कई अन्य क्रांतिकारियों को भी प्रेरित किया और यह घटना ब्रिटिश राज के खिलाफ भारतीय प्रतिरोध के इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण के रूप में याद की जाती है.
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राजनीतिज्ञ मास्टर तारा सिंह
मास्टर तारा सिंह का जन्म 24 जून 1885 को हरयाल, रावलपिंडी (अब पाकिस्तान में) के पास हुआ था. उनका वास्तविक नाम नानक चंद था, लेकिन स्कूल के समय में उन्होंने सिख धर्म अपना लिया और तारा सिंह नाम ग्रहण किया। मास्टर तारा सिंह ने अपने जीवन को सिख समुदाय के अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया.
मास्टर तारा सिंह की प्रारंभिक शिक्षा और प्रशिक्षण ने उनके भविष्य के प्रयासों की नींव रखी और उनमें सिख पहचान और समुदाय की एक मजबूत भावना विकसित की. वे खालसा स्कूल, लायलपुर (अब फैसलाबाद) के प्रधानाचार्य बने और वहां से उन्होंने सिख नेतृत्व में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
मास्टर तारा सिंह ने गुरुद्वारा सुधार आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसका उद्देश्य भ्रष्ट महंतों के नियंत्रण से सिख पूजा स्थलों को मुक्त करना था. वे शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (SGPC) के पहले सचिव बने और बाद में इसके अध्यक्ष बने. अनेक गिरफ्तारी और कैद के बावजूद, उनकी प्रतिबद्धता ने आंदोलन को आगे बढ़ाया.
वर्ष 1932 से 1947 तक मास्टर तारा सिंह ने सिख अधिकारों और स्वायत्तता के लिए अपना जीवन समर्पित किया. उनका ‘आजाद पंजाब’ योजना सिखों के लिए अधिक राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों को सुरक्षित करने का प्रयास था. भारत के विभाजन के समय में, उन्होंने सिख समुदाय के अधिकारों के लिए संघर्ष किया.
मास्टर तारा सिंह ने अनेक सिख नेताओं को प्रशिक्षित किया और सिख कल्याण के लिए समर्पित एक पीढ़ी को पोषित किया. उनके नेतृत्व और दृष्टि ने उन्हें सिख इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया. उन्होंने कई लेख और जीवनी लिखी, जिनमें सिख मूल्यों और सिद्धांतों की गहरी समझ है. मास्टर तारा सिंह का निधन 22 नवंबर 1967 को चंडीगढ़ में हुआ था.
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संगीतज्ञ ओंकारनाथ ठाकुर
मास्टर ओंकारनाथ ठाकुर का जन्म 24 जून 1897 को गुजरात के खंबात जिले के जहाज गांव में हुआ था. वह एक प्रमुख भारतीय संगीतज्ञ, संगीत शिक्षक, और हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायक थे. उनका परिवार आर्थिक तंगी का सामना कर रहा था, लेकिन उनकी माता की मजबूत इच्छाशक्ति ने उन्हें कठिनाइयों के बावजूद शिक्षा और संगीत की ओर प्रेरित किया.
ओंकारनाथ ठाकुर ने अपने जीवन की शुरुआत विभिन्न छोटी-मोटी नौकरियों से की. बाद में, एक जैन धार्मिक संस्थान में काम करते हुए उन्होंने पढ़ना और लिखना सीखा. उनकी संगीत शिक्षा पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर के संरक्षण में गंधर्व महाविद्यालय, मुंबई में शुरू हुई. पंडित पलुस्कर ने उन्हें ग्वालियर घराने के गायन की बारीकियों से अवगत कराया.
मास्टर ओंकारनाथ ठाकुर ने वर्ष 1930 -60 तक हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में एक प्रमुख स्थान बनाए रखा. उन्होंने कई अंतरराष्ट्रीय संगीत सम्मेलनों में भाग लिया और अपने संगीत से न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी प्रसिद्धि प्राप्त की. उनकी अद्वितीय गायन शैली ने उन्हें अपने समय के अन्य प्रमुख संगीतकारों से अलग स्थान दिलाया.
मास्टर ओंकारनाथ ठाकुर को वर्ष 1955 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. उन्हें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और विश्व भारती विश्वविद्यालय से मानद डॉक्टरेट भी प्राप्त हुई थी. उन्होंने अपने जीवन में कई संगीत शिक्षण संस्थानों की स्थापना की और अनेक शिष्यों को प्रशिक्षित किया, जो बाद में प्रसिद्ध संगीतकार और संगीत विद्वान बने.
मास्टर ओंकारनाथ ठाकुर के जीवन में एक महत्वपूर्ण घटना उनकी पत्नी इंदिरा देवी की असामयिक मृत्यु थी, जिसने उन्हें गहरे सदमे में डाल दिया था. इस घटना के बाद उन्होंने पुनः अपने संगीत कैरियर को संवारने में संकल्प लिया और अपने संगीत में एक गहरी वेदना को शामिल किया.
ओंकारनाथ ठाकुर का निधन 29 दिसम्बर 1967 को मुम्बई में हुआ था. उनकी जीवन यात्रा और योगदान ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया और उनके कार्यों ने आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित किया.
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मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा
जगन्नाथ मिश्रा भारतीय राजनीतिज्ञ और बिहार राज्य के तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके थे. उनका जन्म 24 जून 1937 को बिहार के मधुबनी जिले के बलुआ बाजार गांव में हुआ था. वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) के सदस्य थे और बिहार की राजनीति में एक प्रमुख व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे.
मुख्यमंत्री कार्यकाल:
पहला कार्यकाल: 1975 से 1977 तक
दूसरा कार्यकाल: 1980 से 1983 तक
तीसरा कार्यकाल: 1989 से 1990 तक, साथ ही वे बिहार विधानसभा और भारतीय संसद, दोनों में सदस्य रह चुके हैं.
जगन्नाथ मिश्रा ने बिहार में शिक्षा सुधार के लिए कई कदम उठाए. उनके कार्यकाल के दौरान कई नए स्कूल और कॉलेज स्थापित किए गए. उन्होंने ग्रामीण और शहरी विकास के लिए कई योजनाएँ और परियोजनाएँ शुरू कीं. मिश्रा के कार्यकाल के दौरान कानून व्यवस्था में सुधार के लिए भी कई कदम उठाए गए.
जगन्नाथ मिश्रा का नाम कुछ विवादों में भी जुड़ा रहा. सबसे प्रमुख रूप से, वे चारा घोटाले के आरोपों में शामिल थे. इस मामले में उन्हें कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ा और उन्हें सजा भी हुई थी.
जगन्नाथ मिश्रा का निधन 19 अगस्त 2019 को दिल्ली में हुआ. उनकी मृत्यु के बाद, उन्हें बिहार की राजनीति में उनके योगदान के लिए याद किया गया. जगन्नाथ मिश्रा की राजनीति और उनके कार्यकाल ने बिहार की राजनीति और समाज पर गहरा प्रभाव डाला है.
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रानी दुर्गावती
रानी दुर्गावती भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण और वीरांगना रानी थीं, जिन्होंने मुग़ल आक्रमणकारियों के खिलाफ अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए बहादुरी से लड़ाई लड़ी. उनका जन्म 5 अक्टूबर 1524 को हुआ था और वे गोंडवाना (वर्तमान में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) के गोंड राज्य की रानी थीं.
रानी दुर्गावती का जन्म एक राजपूत राजा के घर हुआ था. उनके पिता राजा सालिवाहन चंदेल थे, जो कालिंजर के राजा थे. रानी दुर्गावती ने अपने पिता से युद्धकला, प्रशासन और राज्य प्रबंधन की शिक्षा ली. उनका विवाह गोंडवाना के राजा दलपत शाह से हुआ था. राजा दलपत शाह की मृत्यु के बाद, रानी दुर्गावती ने अपने पुत्र वीर नारायण के साथ गोंडवाना का शासन संभाला.
रानी दुर्गावती ने गोंडवाना राज्य को एक सशक्त और संगठित राज्य बनाया. उन्होंने कई विकास योजनाओं और कल्याणकारी नीतियों को लागू किया. वर्ष 1564 में, मुग़ल बादशाह अकबर के सेनापति आसफ खान ने गोंडवाना पर आक्रमण किया. रानी दुर्गावती ने मुग़लों के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई लड़ी. उन्होंने अपनी सेना का नेतृत्व किया और युद्धभूमि में अदम्य साहस का प्रदर्शन किया. 24 जून 1564 को, जब रानी दुर्गावती को यह स्पष्ट हो गया कि वे युद्ध में हार रही हैं, उन्होंने आत्मसमर्पण करने के बजाय आत्मबलिदान देना पसंद किया.
रानी दुर्गावती की वीरता और बलिदान ने भारतीय इतिहास में उन्हें एक महान योद्धा और साहसी रानी के रूप में प्रतिष्ठित किया है. उनके योगदान और बलिदान को सम्मानित करने के लिए, मध्य प्रदेश में उनके नाम पर रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय की स्थापना की गई है. उनकी याद में 24 जून को मध्य प्रदेश में ‘रानी दुर्गावती बलिदान दिवस’ के रूप में मनाया जाता है.
रानी दुर्गावती का जीवन और उनके साहसिक कार्य भारतीय इतिहास में प्रेरणा का स्रोत बने हुए हैं. उनकी वीरता और बलिदान की गाथा आज भी भारतीय संस्कृति और इतिहास में गर्व के साथ स्मरण की जाती है.
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साहित्यकार पंडित श्रद्धाराम शर्मा
साहित्यकार पंडित श्रद्धाराम शर्मा, जिन्हें श्रद्धानंद भी कहा जाता है, 19वीं शताब्दी के प्रसिद्ध भारतीय लेखक, समाज सुधारक और संगीतकार थे. उनका जन्म 30 सितम्बर 1837 में पंजाब के लुधियाना जिले के जगरांव में हुआ था. वे भारतीय साहित्य और भक्ति आंदोलन में एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व थे, जिन्हें उनके रचित भजन “ओम जय जगदीश हरे” के लिए सबसे अधिक जाना जाता है, जो आज भी भारतीय धार्मिक समारोहों में एक प्रमुख भक्ति गीत के रूप में गाया जाता है.
पंडित श्रद्धाराम शर्मा ने न केवल धार्मिक भजनों की रचना की, बल्कि वे समाज सुधार के भी प्रबल समर्थक थे. उन्होंने आर्य समाज के सिद्धांतों का पालन करते हुए धार्मिक अंधविश्वासों और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ काम किया. उन्होंने अपने लेखन और गीतों के माध्यम से लोगों को शिक्षित करने और सामाजिक जागरूकता फैलाने का प्रयास किया.
उनके प्रमुख योगदान में ‘सत्य धर्म विद्यावली’ जैसे साहित्यिक ग्रंथ शामिल हैं, जो धार्मिक और नैतिक शिक्षाओं पर आधारित थे. श्रद्धाराम शर्मा का लेखन और भक्ति संगीत भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव डालने वाला था, और उनके गीत आज भी विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों में गाए जाते हैं.
पंडित श्रद्धाराम शर्मा का निधन 24 जून, 1881 को लाहौर में हुआ था लेकिन उनके भजन और साहित्यिक योगदान आज भी लोगों को प्रेरित करते हैं.
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गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी
मजरूह सुल्तानपुरी हिंदी सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित और लोकप्रिय गीतकारों में से एक थे. उनका असली नाम असरार-उल-हसन खान था, लेकिन फिल्मी दुनिया में वे मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से प्रसिद्ध हुए. उनका जन्म 1 अक्टूबर 1919 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में हुआ था, और उन्होंने प्रारंभिक जीवन में यूनानी चिकित्सा की पढ़ाई की थी. हालांकि, कविता और शायरी के प्रति उनके प्रेम ने उन्हें साहित्य और गीत लेखन की ओर मोड़ा.
मजरूह सुल्तानपुरी ने उर्दू शायरी से अपने कैरियर की शुरुआत की, और बहुत जल्द वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ गए. उनकी शायरी में सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर तीखा व्यंग्य और सामाजिक जागरूकता का पुट देखने को मिलता था.
मजरूह सुल्तानपुरी का फिल्मी कैरियर वर्ष 1946 में फिल्म “शाहजहां” से शुरू हुआ, जिसमें उन्होंने “जब दिल ही टूट गया” गाना लिखा था. इस गीत ने उन्हें रातों-रात लोकप्रिय बना दिया. इसके बाद उन्होंने भारतीय सिनेमा में लगभग पाँच दशकों तक एक से बढ़कर एक हिट गाने दिए.
उनके लिखे गाने अपनी भावपूर्ण शायरी, सरल भाषा, और गहरे अर्थों के लिए प्रसिद्ध हैं. उन्होंने संगीतकार एस. डी. बर्मन, नौशाद, आर. डी. बर्मन, और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जैसे दिग्गजों के साथ काम किया। उनके लिखे कई गाने आज भी बेहद लोकप्रिय हैं, जैसे: –
चाहूंगा मैं तुझे साँझ सवेरे– (फिल्म दोस्ती, 1964),
ये रात ये चाँदनी फिर कहाँ – (फिल्म जिद्दी, 1948),
प्यार किया तो डरना क्या – (फिल्म मुगल-ए-आज़म, 1960),
चुरा लिया है तुमने जो दिल को – (फिल्म यादों की बारात, 1973),
पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा – ( फिल्म क़यामत से क़यामत तक, 1988).
मजरूह सुल्तानपुरी को एक प्रगतिशील सोच वाला गीतकार माना जाता था. वे उस दौर के कवियों में से एक थे जो स्वतंत्रता, समानता, और सामाजिक न्याय की बात करते थे. उनके गीतों में प्रेम, समाज, और जीवन के विभिन्न पहलुओं का जिक्र मिलता है.
वर्ष 1950 के दशक में उन्हें कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े होने के कारण जेल भी जाना पड़ा था, लेकिन इससे उनकी लेखनी की धार और तेज हो गई. मजरूह सुल्तानपुरी को उनके अमूल्य योगदान के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें प्रमुख हैं: – वर्ष 1993 में दादासाहेब फाल्के पुरस्कार, जो भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान है. उन्हें कई बार फिल्मफेयर पुरस्कार से भी नवाज़े गए.
मजरूह सुल्तानपुरी ने अपने पांच दशकों के कैरियर में सैकड़ों गीत लिखे, जो आज भी लोगों के दिलों में बसे हुए हैं. वे अपनी सादगी, गहरे भाव और समाजिक चेतना के लिए हमेशा याद किए जाएंगे। उनकी शायरी और गीतों ने भारतीय सिनेमा और साहित्य को एक नई दिशा दी. मजरूह सुल्तानपुरी का निधन 24 मई 2000 को हुआ, लेकिन उनके गीत आज भी लोगों के दिलों में गूंजते हैं.