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व्यक्ति विशेष– 536.

क्रांतिकारी तारकनाथ दास

तारकनाथ दास भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रांतिकारी थे. वे एक प्रखर राष्ट्रवादी, लेखक और क्रांतिकारी थे, जिन्होंने भारत की आजादी के लिए विदेशों में रहकर भी संघर्ष किया. तारकनाथ दास का जन्म 15 जून, 1884 को बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) के चौबीस परगना जिले में हुआ था. उनके पिता का नाम कालीचरण दास था. बचपन से ही तारकनाथ प्रतिभाशाली और देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत थे. उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की और बाद में उच्च शिक्षा के लिए जापान और अमेरिका चले गए. विदेश में रहकर भी उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए काम करना जारी रखा.

तारकनाथ दास अनुशीलन समिति और युगांतर जैसी क्रांतिकारी संगठनों से जुड़े थे. उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ गुप्त क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय भाग लिया. वर्ष 1905 में वे जापान चले गए, जहाँ उन्होंने भारतीय छात्रों को संगठित किया और स्वतंत्रता के लिए प्रचार किया. बाद में वे अमेरिका पहुँचे, जहाँ उन्होंने गदर पार्टी के नेताओं से संपर्क स्थापित किया. अमेरिका में रहते हुए, तारकनाथ दास ने “फ्री हिंदुस्तान” (Free Hindustan) नामक एक पत्रिका शुरू की, जिसमें भारत की आजादी के पक्ष में लेख प्रकाशित किए जाते थे. यह पत्रिका भारतीय क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणास्रोत बनी.

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान, तारकनाथ दास ने जर्मनी की सहायता से भारत में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह की योजना बनाई. इसके लिए उन्हें हिंदू-जर्मन षड्यंत्र केस (1917) में गिरफ्तार किया गया, लेकिन बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया.

तारकनाथ दास ने कई पुस्तकें लिखीं, जिनमें से प्रमुख हैं: –

“India in World Politics” – भारत की स्वतंत्रता के लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन जुटाने का प्रयास.

“The Isolation of Japan in World Politics” – जापान की विदेश नीति पर विश्लेषण.

तारकनाथ दास का निधन 22 दिसंबर, 1958 को अमेरिका में हुआ. उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन भारत की आजादी के लिए समर्पित कर दिया. उनके सम्मान में भारतीय डाक विभाग ने 1988 में एक डाक टिकट जारी किया.

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 चित्रकार एवं मूर्तिकार देवी प्रसाद राय चौधरी

देवी प्रसाद राय चौधरी भारतीय कला जगत के एक प्रतिष्ठित चित्रकार और मूर्तिकार थे. वे ललित कला अकादमी के संस्थापक अध्यक्ष भी रहे और भारतीय कला को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. देवी प्रसाद राय चौधरी का जन्म 15 जून 1899 को अविभाजित भारत के रंगपुर जिले के ताजहट (अब बांग्लादेश में) के टैगोर परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम राजकुमार चौधरी था. बचपन से ही कला के प्रति उनकी रुचि थी. उन्होंने बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट्स में शिक्षा प्राप्त की और प्रसिद्ध चित्रकार अबनिंद्रनाथ टैगोर के मार्गदर्शन में कला का अध्ययन किया.

देवी प्रसाद राय चौधरी की कला में बंगाल स्कूल की परंपरा, पश्चिमी प्रभाव और सामाजिक चेतना का अद्भुत समन्वय दिखता है. उनकी प्रसिद्ध मूर्तियों में ‘श्रम की विजय’ और ‘शहीद स्मारक’ शामिल हैं, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और श्रमिकों के संघर्ष को दर्शाती हैं.

  • ‘श्रम की विजय’ (1959) चेन्नई में समुद्र तट पर स्थित है, जिसमें चार व्यक्तियों द्वारा एक विशाल चट्टान को हटाने का प्रयास दिखाया गया है.
  • ‘शहीद स्मारक’ पटना सचिवालय के बाहर स्थित है, जो वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान शहीद हुए सात युवकों की स्मृति को दर्शाता है.

इसके अलावा, उन्होंने महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू, सर सुरेंद्र नाथ बैनर्जी जैसी हस्तियों की प्रतिमाएं भी बनाई थीं.

वर्ष 1930- 57 तक मद्रास स्कूल ऑफ़ आर्ट्स (अब चेन्नई गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ़ फाइन आर्ट्स) के प्रिंसिपल रहे. उन्होंने भारतीय कला शिक्षा को नया रूप दिया और कई प्रतिभाशाली कलाकारों को प्रशिक्षित किया. भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 1958 में पद्म भूषण से सम्मानित किया. उनकी कला में सामाजिक यथार्थवाद और मानवीय भावनाओं का गहरा चित्रण दिखाई देता है.

चित्रकार देवी प्रसाद राय चौधरी का निधन 15 अक्टूबर 1975 को हुआ था. उन्होंने भारतीय कला को विश्व स्तर पर पहचान दिलाई. उनका कार्य केवल कलात्मक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक भी है। उनकी कला आज भी लाखों कला प्रेमियों को प्रेरित करती है.

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प्रथम थल सेनाध्यक्ष राजेन्द्र सिंह जडेजा

राजेन्द्र सिंहजी जडेजा भारतीय सेना के पहले थल सेनाध्यक्ष थे, जिन्होंने स्वतंत्र भारत की सैन्य संरचना को सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनका जन्म 15 जून 1899 को गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में हुआ था. वे नवानगर रियासत के शासक परिवार से थे और प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी के. एस. रणजीत सिंहजी और के. एस. दुलीप सिंहजी के परिवार से संबंध रखते थे.

राजेन्द्र सिंहजी ने रॉयल मिलिट्री कॉलेज, सैंडहर्स्ट से सैन्य शिक्षा प्राप्त की और वर्ष 1921 में सेकेंड लेफ्टिनेंट के रूप में भारतीय सेना में भर्ती हुए. उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान महत्वपूर्ण सैन्य अभियानों में भाग लिया और अपनी नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन किया. उनकी उत्कृष्ट सेवा के लिए उन्हें विशिष्ट सेवा पदक (DSO) से सम्मानित किया गया.

स्वतंत्रता के बाद, वे भारतीय सेना में उच्च पदों पर कार्यरत रहे और 15 जनवरी 1953 को भारतीय सेना के कमांडर इन चीफ बने. बाद में, जब चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ का पद स्थापित हुआ, तो वे पहले थल सेनाध्यक्ष बने.उनके नेतृत्व में भारतीय सेना ने कई महत्वपूर्ण सुधार किए और सैन्य संगठन को आधुनिक रूप दिया.

राजेन्द्र सिंहजी को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमेन द्वारा अमेरिकन लीजन ऑफ मेरिट पदक से सम्मानित किया गया था. उन्होंने भारतीय सेना को एक सशक्त और संगठित रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनका निधन 1 जनवरी 1964 को हुआ.

करियप्पा न केवल एक महान सैनिक, बल्कि एक दूरदर्शी नेता थे. उन्होंने भारतीय सेना को एक मजबूत संस्था के रूप में गढ़ने में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उनका जीवन देशभक्ति और समर्पण की एक अद्भुत मिसाल है.

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कलाकार के. के. हेब्बार

के. के. हेब्बार, पूरा नाम कट्टिंगेडी कृष्ण हेब्बार, भारतीय चित्रकला के प्रमुख कलाकारों में से एक थे. उनका जन्म 15 जून 1911 को कर्नाटक के कट्टिंगेडी गाँव में हुआ था और उनका निधन 26 मार्च, 1996को मुम्बई, महाराष्ट्र में हुई थी. हेब्बार की कला में भारतीय परंपराओं और आधुनिक तकनीकों का अद्भुत सम्मिश्रण देखने को मिलता है. उन्होंने मुख्यतः लैंडस्केप, नृत्य, ग्रामीण और शहरी जीवन के दृश्यों को अपने चित्रों में उतारा.

हेब्बार की कला में रंगों का इस्तेमाल, लाइनों की सूक्ष्मता और रूपों की संरचना उनकी अद्वितीय शैली को प्रकट करती है. उन्होंने अपने चित्रों में भारतीय जीवन की विविधता और सौंदर्य को चित्रित किया. हेब्बार ने भारत और विदेश में कई प्रदर्शनियों में अपनी कलाकृतियों को प्रस्तुत किया और उन्हें उनके योगदान के लिए कई सम्मान और पुरस्कारों से नवाजा गया.

के. के. हेब्बार की कलाकृतियाँ भारतीय चित्रकला के इतिहास में एक अनूठी जगह रखती हैं. उनका काम भारतीय कला के विकास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव माना जाता है और उनकी कलाकृतियाँ दुनिया भर के कला संग्रहालयों और गैलरियों में प्रदर्शित की जाती हैं.

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संगीतकार सज्जाद हुसैन

हिंदी फिल्म संगीत के स्वर्ण युग में कई प्रतिभाशाली संगीतकारों ने अपनी अमिट छाप छोड़ी, जिनमें सज्जाद हुसैन एक ऐसा नाम है जिसे शायद ही आज की पीढ़ी जानती हो. अपनी अनूठी संगीत शैली और जटिल रचनाओं के लिए प्रसिद्ध सज्जाद हुसैन ने वर्ष 1940 – 60 के दशक तक हिंदी सिनेमा को कुछ यादगार धुनें दीं. उनका संगीत न केवल तकनीकी रूप से उत्कृष्ट था, बल्कि उसमें एक अनूठी गहराई और मौलिकता भी थी.

सज्जाद हुसैन का जन्म 15 जून 1917 को मध्य प्रदेश के सीतामऊ में हुआ था. उनका परिवार संगीत से जुड़ा था, और उन्होंने अपने पिता मुहम्मद अमीर खान से सितार वादन सीखा. बाद में उन्होंने वीणा, बांसुरी, जल तरंग, वायलिन, पियानो, बैंजो, एकॉर्डियन, गिटार, क्लैरोनेट जैसे कई वाद्ययंत्रों में महारत हासिल की.

सज्जाद हुसैन ने वर्ष 1944 में फिल्म “दोस्त” से स्वतंत्र संगीतकार के रूप में शुरुआत की. इस फिल्म में नूरजहां की आवाज़ में गाया गया गीत “बदनाम मोहब्बत कौन करे” बेहद लोकप्रिय हुआ. उनकी संगीत शैली अत्यंत जटिल थी, जिससे पार्श्वगायकों को उनके गीत गाने में कठिनाई होती थी. लता मंगेशकर ने उनके संगीत को अपने कैरियर की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक माना और कहा कि “ऐसा संगीत, जो सज्जाद हुसैन बनाते थे, और किसी ने बनाया ही नहीं है”.

सज्जाद हुसैन ने अरबी शैली के संगीत के टुकड़ों को अपनी धुनों में शामिल किया और हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के व्याकरण से चुनकर राग-रागनियों का प्रयोग किया. वर्ष 1956 में अखिल भारतीय शास्त्रीय संगीत सम्मेलन में उन्होंने मैंडोलिन पर अपनी अद्भुत प्रस्तुति दी. माना जाता था कि मैंडोलिन में “मींड़” का प्रभाव लाना असंभव है, लेकिन सज्जाद हुसैन ने इसे संभव कर दिखाया.

प्रमुख फिल्में और गीत: –

संगदिल” (1952) – “वो तो चले गए ऐ दिल उनकी याद से प्यार कर”.

“हलचल” (1951) – “आज मेरे नसीब ने मुझको रुला-रुला दिया”.

“खेल” (1950) – “भूल जा ऐ दिल मोहब्बत का फसाना”.

“रुस्तम-सोहराब” (1963) – इस फिल्म में उनका संगीत बेहद प्रभावशाली था.

सज्जाद हुसैन का निधन 21 जुलाई 1995 को हुआ था. वो एक ऐसे संगीतकार थे जिन्होंने शुद्ध संगीत को व्यावसायिकता से ऊपर रखा. उनकी रचनाएँ आज भी संगीत के जानकारों द्वारा सराही जाती हैं.

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सुर सम्राज्ञी सुरैया

सुर सम्राज्ञी सुरैया भारतीय सिनेमा की प्रमुख गायिका और अभिनेत्री थीं, जो बॉलीवुड के स्वर्गीय कलाकारों में से एक थीं. उनका जन्म 15 जून 1929 को लाहौर (अब पाकिस्तान में) में हुआ था और उनकी मौत 31 जनवरी 2004 को हुई थी. सुरैया का पूरा नाम पूरा नाम सुरैया जमाल शेख़ है. उन्होंने 40वें- 50वें दशक में इन्होंने हिन्दी सिनेमा में अपना योगदान दिया. नाज़ों से पली सुरैया ने हालांकि संगीत की शिक्षा नहीं ली थी लेकिन आगे चलकर उनकी पहचान एक बेहतरीन अदाकारा के साथ एक अच्छी गायिका के रूप में भी बनी.

सुरैया के फ़िल्मी कैरियर की शुरुआत उनके चाचा जहूर सुरैया जो  गुजरे ज़माने के मशहूर खलनायक थे और उनकी वजह से वर्ष 1937 में उन्हें फ़िल्म ‘उसने क्या सोचा’ में पहली बार बाल कलाकार के रूप में भूमिका मिली थी. एक वक़्त था, जब रोमांटिक हीरो देव आनंद सुरैया के दीवाने हुआ करते थे. लेकिन अंतत: यह जोड़ी वास्तविक जीवन में जोड़ी नहीं पाई.

सुरैया का गायन क्षेत्र में बड़ा ही प्रमुख स्थान था, और वे भारतीय सिनेमा के सुने जाने वाले गायक-गायिकाओं में से एक थीं. उन्होंने कई हिट गाने गाए: – तू मेरा चाँद है, दिल इ नादान तुझे हुआ क्या, ओ दूर जाने वाले, मान मोरा मतवाला और बिगड़ी बनाने वाले. 

सुरैया ने भी अभिनय करने का संवेदनशीलता और कौशल दिखाया, और उन्होंने कई हिट फ़िल्मों में अभिनय किया.

फ़िल्म: – हमारी बात, जीत, कमल के फूल, खिलाड़ी, दो सितारे, मिर्ज़ा ग़ालिब और शमा.

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मशहूर ध्रुपद गायक ज़िया फ़रीदुद्दीन डागर

ज़िया फ़रीदुद्दीन डागर भारतीय शास्त्रीय संगीत के ध्रुपद शैली के एक गायक थे. वह डागर वंश के सदस्य थे, जो अपनी ध्रुपद गायन की परंपरा के लिए प्रसिद्ध है. उनका जन्म 15 जून 1932 को हुआ था और उनका निधन 8 मई 2013 में हुआ.

ज़िया फ़रीदुद्दीन डागर ने अपने चाचा, उस्ताद ज़िया मोहिउद्दीन डागर के साथ मिलकर ध्रुपद संगीत को नई पहचान दी. वे वोकल और रुद्र वीणा दोनों में माहिर थे, और उनके प्रदर्शन उनकी गहराई, शुद्धता और तकनीकी कुशलता के लिए सराहे जाते थे। उन्होंने अपने संगीत कैरियर में ध्रुपद के प्रचार और शिक्षण में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया.

उनकी शैली में ध्यान, आध्यात्मिकता और एक गहरी रागात्मक अनुभूति शामिल थी, जिसने ध्रुपद संगीत के पारंपरिक स्वरूप को बनाए रखते हुए इसे नई पीढ़ी तक पहुंचाया. ज़िया फ़रीदुद्दीन डागर को उनके योगदान के लिए विभिन्न सम्मानों से नवाजा गया और वे ध्रुपद संगीत के सबसे महत्वपूर्ण आधुनिक प्रतिनिधि माने जाते हैं.

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समाज सेवक अण्णा हज़ारे

अण्णा हज़ारे का पूरा नाम किसन बापट बाबूराव हज़ारे) एक गांधीवादी समाज सेवक हैं, जो भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने आंदोलनों के लिए प्रसिद्ध हैं. उनका जन्म 15 जून 1937 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में हुआ था.

उन्होंने सूचना के अधिकार और जन लोकपाल विधेयक को लेकर बड़े जन आंदोलनों का नेतृत्व किया. वर्ष 2011 में उनके आमरण अनशन ने भारत में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को नई दिशा दी. हज़ारे ने अपने गाँव रालेगण सिद्धि को एक आदर्श गाँव में बदलने के लिए कई सुधार किए, जिसमें जल संरक्षण, शिक्षा और ग्राम विकास शामिल हैं.

अण्णा हज़ारे के योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री (1990) और पद्मभूषण (1992) जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है.

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उद्योगपति लक्ष्मी मित्तल

लक्ष्मी मित्तल भारतीय मूल के एक प्रमुख उद्योगपति हैं, जिन्हें “स्टील किंग” के नाम से जाना जाता है. वे आर्सेलर मित्तल के कार्यकारी अध्यक्ष हैं, जो दुनिया की सबसे बड़ी स्टील और खनन कंपनियों में से एक है. लक्ष्मी मित्तल का जन्म 15 जून 1950 को सादुलपुर, राजस्थान में हुआ था. उनके पिता का नाम मोहन लाल मित्तल (छोटे स्टील व्यवसायी) और उनकी माता का नाम गीता देवी था. उनकी शिक्षा कोलकाता विश्वविद्यालय से हुआ था. वर्ष 2023 में उनकी कुल संपत्ति 17.3 बिलियन डॉलर आंकी गई थी, जिससे वे भारत के 5वें सबसे अमीर व्यक्ति बने.

एक राजस्थानी मारवाड़ी परिवार से निकलकर वैश्विक स्टील उद्योग पर राज करने वाले लक्ष्मी मित्तल ने भारतीय उद्यमशीलता का डंका पूरी दुनिया में बजाया है. उनकी सफलता की कहानी न सिर्फ व्यापार जगत के लिए, बल्कि युवा उद्यमियों के लिए भी एक प्रेरणास्रोत है. आज भी 70+ वर्ष की आयु में सक्रिय मित्तल साबित करते हैं कि सही रणनीति और कड़ी मेहनत से कोई भी लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है.

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‘राधा स्वामी सत्संग’ के संस्थापक शिव दयाल साहब

शिव दयाल साहब, जिन्हें स्वामी जी महाराज के नाम से भी जाना जाता है, राधा स्वामी सत्संग के संस्थापक थे. उनका जन्म 25 अगस्त 1818 को आगरा में हुआ था. बचपन से ही वे आध्यात्मिक चिंतन और शब्द योग के अभ्यास में लीन रहते थे. उन्होंने किसी को गुरु नहीं बनाया और अपने स्वयं के अनुभवों के आधार पर संतमत की शिक्षा दी.

शिव दयाल साहब ने वर्ष 1861 में वसंत पंचमी के दिन अपने शिष्य राय बहादुर सालिग राम जी महाराज के अनुरोध पर इस मत को आम जनता के लिए प्रस्तुत किया। इससे पहले, यह केवल कुछ विशेष शिष्यों तक ही सीमित था. उनका मत संतमत की परंपरा से जुड़ा हुआ था, जिसे पहले कबीर, नानक, रैदास, दादू साहब जैसे संतों ने प्रचारित किया था.

शिव दयाल साहब ने हिन्दी, उर्दू, फारसी, संस्कृत, अरबी और गुरुमुखी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया था.उन्होंने सांसारिक उपलब्धियों को त्यागकर अपना पूरा जीवन आध्यात्मिक साधना और सत्संग में समर्पित कर दिया. उनकी शिक्षाओं का मूल आधार सुरत शब्द योग था, जो ध्यान और आत्मिक उन्नति पर केंद्रित था.

उन्होंने दो प्रमुख ग्रंथ लिखे – सार वचन (गद्य और छंद में) -जो उनके आध्यात्मिक विचारों और शिक्षाओं का संकलन हैं. इन ग्रंथों में आत्मा, परमात्मा और सृष्टि की रचना के गूढ़ रहस्यों को समझाया गया है.

शिव दयाल साहब का 15 जून 1878 को आगरा में निधन हुआ. उनकी समाधि स्वामी बाग, आगरा में स्थित है, जो संगमरमर की उत्कृष्ट नक्काशी और पच्चीकारी का अद्भुत उदाहरण है. वर्तमान समय में राधा स्वामी सत्संग की कई शाखाएँ भारत और विदेशों में फैली हुई हैं.

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