मकर संक्राति…

हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी संक्रांति आ ही गई. आज के बाद भगवान भास्कर उत्तरायण हो जायेंगें. अब धीरे-धीरे हेमंत ऋतू या यूँ कहें कि भीषण ठंड से निजात मिलने के दिन आ रहें हैं. आखिर संक्रांति के बाद ही क्यूँ हेमंत ऋतू समाप्त होता है. आखिर क्या कारण है कि प्रति वर्ष 14-15 जनवरी के बाद ही मौसम का मिजाज ठीक होता है साथ ही यह भी जानते हैं कि इस समय को मकर संक्रांति क्यों कहते है और इसका महत्व क्या है?
बताते चलें कि, संक्राति का अर्थ होता है सूर्य के एक राशि से दुसरे राशि में प्रवेश करना या यूँ कहें कि, एक राशि से दुसरे राशि में गमन करना. यह ज्योतिषीय गणना अनुसार प्रति वर्ष 14-15 जनवरी को पड़ता है. हम सभी जानते हैं कि, पृथ्वी की परिक्रमापथ जो अंडाकार है उसे 360 अंशों में 30-30 अंशों के समूह में 12 राशियों में विभाजित किया गया है. ज्ञात है कि, 365 दिन 6 घंटे का एक साल होता है जबकि, चन्द्र वर्ष 354 दिनों का होता है चुकीं, चन्द्रमा में परिवर्तन होता ही रहता है, इसिलिय चन्द्रवर्ष निश्चित नहीं होता है. इसी परिवर्तन के कारण हर चार सालों में फरवरी 29 दिनों का होता है. सूर्य के उत्तर से दक्षिण की ओर जाने की अवधि को दक्षिणायन तथा दक्षिण से उत्तर की ओर के जाने को उत्तरायण कहते हैं.
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, संक्रमण पर्व मकर संक्रान्ति में मकर का विशेष महत्व बताया गया है. इसकी अलग तरह से विवेचना की गई है. चुकीं मकर मत्स्य वर्ग में आता है और माँ गंगा का वाहन भी है और गंगा को मकरवाहिनी भी कहते है. वायुपुराण के अनुसार, मकर को नौ निधियां भी कहते हैं. ये नौ निधियां हैं – पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द नील और खर्व. पृथ्वी की एक अक्षांश रेखा को मकर रेखा कहते हैं जबकि, ज्योतिष गणना के बारह राशियों में से दसवीं राशि का नाम मकर है. श्रीमद्भागवत के अनुसार, सुमेरु पर्वत के उत्तर में दो पर्वत हैं उनमें से एक का नाम मकर पर्वत भी है. पुरानों के अनुसार, कामदेव की पताका का प्रतीक होता है मकर इसीलिए, कामदेव को मकरध्वज भी कहा जाता है.
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, सूर्य के दक्षिण से ऊर्ध्वमुखी होकर उत्तरस्थ होने की वेला को संक्रान्ति पर्व के रूप में स्वीकार किया गया है. पौराणिक कथाओं के अनुसार महात्मा भीष्म की इच्छामृत्यु वाली घटना भी इसके महत्व एवं महिमा को भी प्रकाशित करती है. महाभारत पुराण में इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख है कि, शर–शैय्या पर पड़े गंगापुत्र भीष्म से दर्शन करने आये ऋषियों से सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने शरीर-त्याग करने का संकल्प दुहराते हैं वहीँ, शिव पुराण के अनुसार, उत्तरायण एवं मकर संक्रान्ति के अवसर पर हवन-पूजा, खान-पान में तिल एवं तिल से बनी वस्तुओं पर अधिक जोर दिया गया है. सूर्य जब उत्तरी गोलार्द्ध में रहता है तब रवी की फसल चना, गेहूं आदि फसल पकने की स्थिति में होती है. इस समय सूर्य के ताप से उन फसलों को बढ़ने और पकने में सहायता मिलती है. यही कारण है कि मकर संक्रान्ति के लोकपर्व पर लोग अन्य को सूर्य भगवान को अर्पित करते है. लोक व्यवहार में भी तिल-खिचड़ी आदि गर्म पदार्थों के सेवन पर विशेष जोर दिया जाता है. जबकि हमारे ऋषियों ने सुखी जीवन के लिए अनेकानेक विधाओं का उल्लेख किया है उसमे नदी स्नान का विशेष महत्व दिया गया है. ज्ञात है कि, नदियों के उद्गम स्थान पर्वत होते हैं, जहाँ से ये नदियाँ निकलती हैं और आप जानते ही हैं कि इन पर्वतों पर दिव्य औषधियाँ भी फलती-फूलती हैं उनमे वर्षा के जल में मिलकर नदियों में गिरती हैं और उन नदी के पानी में स्नान का महत्व और भी बढ़ जाता है. इन्ही कारणों से पुरानों में नदी स्नान पर जोड़ दिया गया है.
वैज्ञानिक सत्य है कि उत्तरायण में सूर्य का ताप शीत के प्रकोप को कम करता है वहीं, पुराणकारों ने भी मकर संक्रान्ति को सूर्य उपासना का विशिष्ट पर्व माना है. इस अवसर पर भगवान सूर्य की उपासना गायत्री मंत्र के साथ पूजा-उपासना, यज्ञ-हवन का अलौकिक महत्व होता है. आयुर्वेद के जानकारों के अनुसार, शीतकालीन ठण्डी हवा शरीर में अनेक रोगों को जन्म देती है. चरक संहिता के अनुसार, इस मौसम में घी-तेल, तिल-गुड़, गन्ना, धूप और गर्म पानी का प्रयोग करना चाहिए.
पुरानों के अनुसार तिल के 6 प्रकार के उपयोग बताये गये हैं. ये उपाय… तिल मिश्रित स्नान, तिल का उबटन, तिल का तिलक, तिल मिश्रित जल, तिल का हवन और तिल का भोजन. कहा जाता है कि, तिल समस्त रोगों का नाश करता है जबकि, तिल स्नेह का और गुड मिठास का प्रतीक माना जाता है. महाभारत पुराण के अनुसार, संक्राति के अवसर पर तिल दान एवं तिल खाने की बात को स्वीकार किया गया है. उसके बाद से ही पुरे भारत वर्ष में मकर संक्रांति के अवसर पर तिल खाने और दान करने की परम्परा चली आ रही है. यह संस्कृति चुकीं महाभारत काल की आस्था, पौराणिक जन-विश्वास प्राकृतिक निधि, जलदेवता, वरुणा तथा गंगा वाहन मकर से जुड़ा हुआ है और सूर्य-रश्मियों के क्रान्तिकारी उत्कर्ष से भरा है और संक्रान्ति के अवसर पर गायत्री महामंत्र से सूर्योपासना का संदेश छुपा हुआ होता है.