
गर्मी की दुपहरी में आम के बाग़ में घनी छाया तले गाँव के बच्चे जमा होते. हवा में आम की मीठी खुशबू घुली होती, और पके हुए फलों के गिरने का इंतजार सबको रहता. जेठ की अल्हड़ पवन जब तेज़ चलती, तो कभी-कभी झूलते आम शाखों से टूटकर नीचे गिर जाते—और बच्चों की आँखों में चमक आ जाती.
“जो पहले गुठली पाएगा, वही असली विजेता!” पिंटू ने मुस्कुराकर कहा और दौड़ लग गई.
गुठलियों का यह खेल गाँव की हर पीढ़ी ने खेला था। बाग़ के बुजुर्ग भी बैठकर हँसते हुए देखते. उनमें से एक, हरिराम काका, मुस्कुराकर बोले, “हमारे बचपन में भी यह खेल था, लेकिन तब गुठलियों से खिलौने बनते थे!”
बच्चों ने चौंककर पूछा, “कैसे?”
हरिराम काका ने बताया कि जब वे छोटे थे, तो आम की गुठलियों को इकट्ठा करके उनसे छोटी-छोटी नावें बनाते, गुड़िया बनाते, और कभी-कभी उन्हें रंगकर सजाते भी थे. यह सुनकर बच्चों की आँखों में कौतूहल जागा। उन्होंने भी फैसला किया कि इस बार गुठलियों को यूँ ही फेंकने की बजाय कुछ नया बनाएँगे.
इस तरह, आम के बाग़ की गुठलियाँ सिर्फ़ खेल का हिस्सा नहीं थीं, बल्कि हर पीढ़ी की स्मृतियों और रचनात्मकता की निशानी थीं.
शेष भाग अगले अंक में…,