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व्यक्ति विशेष

भाग - 52.

चैतन्य महाप्रभु

चैतन्य महाप्रभु (1486-1534) भक्ति आंदोलन के एक प्रमुख संत थे जिन्होंने 16वीं शताब्दी में भारत में वैष्णव धर्म को नया जीवन दिया. उनका जन्म बंगाल के नवद्वीप में हुआ था, और उन्हें गौरांग (सुनहरे रंग के व्यक्ति) के नाम से भी जाना जाता है. चैतन्य महाप्रभु ने हरिनाम संकीर्तन को भक्ति का मुख्य मार्ग माना, जिसमें भगवान कृष्ण के नामों का जाप और गान शामिल है.

उनके शिक्षाओं में प्रेम-भक्ति (प्रेमानुरक्ति) को आत्मा और परमात्मा के बीच के संबंध का मूल माना गया है. चैतन्य महाप्रभु ने वर्ण और जाति के भेदभाव को मिटाने की कोशिश की, और उन्होंने सभी वर्गों के लोगों को भक्ति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया. उनका जीवन और शिक्षाएं आज भी अनेक लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं.

चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी उन्हें भगवान कृष्ण का अवतार मानते हैं. उनकी शिक्षाएं और जीवनी विभिन्न ग्रंथों में दर्ज हैं, जिनमें चैतन्य चरितामृत और चैतन्य भागवत प्रमुख हैं. वे गौड़ीय वैष्णववाद के संस्थापक भी माने जाते हैं, जो एक विशेष वैष्णव संप्रदाय है जो भगवान चैतन्य की शिक्षाओं का अनुसरण करता है.

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रामकृष्ण परमहंस

रामकृष्ण परमहंस भारतीय संत और आध्यात्मिक गुरु थे, जिनका जन्म 18 फरवरी, 1836 को बंगाल के कामारपुकुर में हुआ था. वे हिन्दू धर्म के भक्ति मार्ग के प्रमुख प्रतिनिधि माने जाते हैं. उन्होंने विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के मूल्यों को स्वीकार किया और उनके एकत्व की शिक्षा दी. उनका मानना था कि सभी धर्म एक ही सत्य के विभिन्न पथ हैं.

रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाएँ उनके प्रमुख शिष्य, स्वामी विवेकानंद द्वारा विश्वभर में फैलाई गईं. विवेकानंद ने 1893 में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भाग लिया और वहाँ रामकृष्ण मिशन की स्थापना की जो आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, गरीबी उन्मूलन, और सामाजिक सेवा में सक्रिय है.

रामकृष्ण का जीवन और उनकी शिक्षाएँ आध्यात्मिक जागृति और समाज में सद्भावना फैलाने के लिए आज भी प्रेरणास्पद हैं. उन्होंने भक्ति, ज्ञान, और कर्म योग के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति की शिक्षा दी. उनके अनुसार, सच्चे भक्ति और ईश्वर के प्रति समर्पण से ही आत्मा का उद्धार संभव है.

रामकृष्ण परमहंस का निधन 16 अगस्त, 1886 को कोलकाता में हुआ, लेकिन उनकी शिक्षाएँ और आध्यात्मिक दृष्टिकोण आज भी लोगों के बीच प्रासंगिक हैं.

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क्रांतिकारी मदन लाल ढींगरा

मदन लाल ढींगरा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रांतिकारी थे, जिन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाफ उग्र रूप से संघर्ष किया. उनका जन्म 18 सितंबर, 1883 को पंजाब के अमृतसर में हुआ था. ढींगरा ने लंदन में अध्ययन के दौरान भारतीय नेशनलिस्ट आंदोलन से जुड़ गए और वहां के भारतीय नेशनलिस्ट नेताओं और समूहों के संपर्क में आए.

1 जुलाई, 1909 को उन्होंने लंदन में इंडियन ऑफिस के पॉलिटिकल सेक्रेटरी, सर विलियम हट कर्जन वाइली की हत्या कर दी. यह कार्य उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय लोगों के खिलाफ किए जा रहे अन्याय और अत्याचार के विरोध में किया था. मदन लाल ढींगरा का यह कृत्य ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ भारतीय नेशनलिस्ट आंदोलन की तीव्रता और निर्णायकता को दर्शाता है.

मदन लाल ढींगरा को उनके कृत्य के लिए गिरफ्तार किया गया और फिर मुकदमे के बाद 17 अगस्त, 1909 को लंदन में फांसी दी गई. उनकी मृत्यु ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक नई जागृति और प्रेरणा का संचार किया. मदन लाल ढींगरा को आज भी एक वीर क्रांतिकारी के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने अपने देश की आजादी के लिए अपना जीवन न्योछावर कर दिया.

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कवियित्री कृष्णा सोबती

कृष्णा सोबती एक प्रसिद्ध हिंदी कवियित्री, उपन्यासकार, और कहानीकार थीं, जिन्होंने भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उनका जन्म 18 फरवरी 1925 को गुजरात, पाकिस्तान में हुआ था, और उनका निधन 25 जनवरी 2019 को हुआ. कृष्णा सोबती को उनकी बोल्ड और रियलिस्टिक कहानियों के लिए जाना जाता है, जिनमें समाज में महिलाओं की स्थिति, विभाजन के प्रभाव, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विषय प्रमुख रूप से उठाए गए हैं.

उनकी प्रमुख कृतियों में ‘मित्रो मरजानी’, ‘दार से बिछुड़ी’, ‘जिंदगीनामा’, और ‘दिलो दानिश’ शामिल हैं. ‘मित्रो मरजानी’ एक ऐसी महिला की कहानी है जो समाज की पारंपरिक बंधनों को तोड़ती है और अपनी यौन इच्छाओं को स्वीकार करती है. ‘जिंदगीनामा’ में, सोबती ने पंजाब के ग्रामीण जीवन का विस्तृत चित्रण किया है.

कृष्णा सोबती को उनके साहित्यिक योगदान के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें साहित्य अकादमी पुरस्कार (1980), साहित्य अकादमी फैलोशिप (1996), और ज्ञानपीठ पुरस्कार (2017) शामिल हैं. वे अपनी लेखनी के माध्यम से समाज में व्याप्त विभिन्न समस्याओं और विषयों पर प्रकाश डालती रहीं, जिससे वे हिंदी साहित्य में एक अद्वितीय स्थान रखती हैं.

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संगीतकार ख़य्याम

संगीतकार ख़य्याम, जिनका असली नाम मोहम्मद जहूर ख़य्याम हाशमी था, भारतीय सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानित संगीतकारों में से एक थे. उनका जन्म 18 फरवरी 1927 को राहों (जो अब पंजाब, भारत में है) में हुआ था, और उनका निधन 19 अगस्त 2019 को हुआ. ख़य्याम ने अपने संगीतकार कैरियर में कई यादगार और अमर गीतों की रचना की, जिन्हें उनके सूक्ष्म, भावपूर्ण और शास्त्रीय संगीत प्रभावों के लिए सराहा जाता है.

ख़य्याम के संगीत की विशेषता उनकी अद्वितीय शैली थी, जिसमें उन्होंने शास्त्रीय भारतीय संगीत के साथ-साथ घजल, भजन, और लोक संगीत को भी समाविष्ट किया. उन्होंने फिल्मों में अपने संगीत के माध्यम से गहराई और भावनाओं को जोड़ा, जिससे उनकी धुनें सिनेमाई परिदृश्यों के साथ गहराई से जुड़ जाती थीं.

उनके कुछ सबसे प्रसिद्ध कामों में “कभी कभी” (1976), “उमराव जान” (1981), और “बाजार” (1982) शामिल हैं. “उमराव जान” के लिए उन्होंने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और फिल्मफेयर पुरस्कार दोनों प्राप्त किए. उनके संगीत ने न केवल उन्हें आलोचनात्मक प्रशंसा दिलाई बल्कि व्यापक जन-समर्थन भी प्राप्त किया.

ख़य्याम के संगीत में एक विशिष्ट शैलीगत विविधता और सूक्ष्मता होती थी, जिसने उन्हें अपने समय के अन्य संगीतकारों से अलग किया. उन्हें उनके योगदान के लिए 2011 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया, जो भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला तीसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है. उनका संगीत आज भी उन्हें भारतीय सिनेमा के महान संगीतकारों में से एक के रूप में याद करता है.

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अभिनेत्री निम्मी

निम्मी, जिनका असली नाम नवाब बानो था, 1950 और 1960 के दशकों की एक प्रमुख भारतीय फिल्म अभिनेत्री थीं. उनका जन्म 18 फरवरी 1933 को आगरा, ब्रिटिश भारत में हुआ था, और उनका निधन 25 मार्च 2020 को हुआ. निम्मी ने अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत 1949 में फिल्म “बरसात” से की थी, जिसमें उनके प्रदर्शन ने उन्हें एक रात में स्टार बना दिया. इस फिल्म में उनकी अभिनय प्रतिभा और सुंदरता को बहुत सराहा गया.

निम्मी ने अपने कैरियर में कई सफल फिल्मों में काम किया, जिनमें “आन” (1952), “दाग” (1952), “दीदार” (1951), और “उड़न खटोला” (1955) शामिल हैं. उनकी फिल्मों में उनके अभिनय की गहराई और उनके पात्रों के चित्रण ने उन्हें उस समय की सबसे लोकप्रिय अभिनेत्रियों में से एक बना दिया.

निम्मी की खासियत उनका अभिव्यक्तिपूर्ण चेहरा और भावनात्मक अभिनय था, जिसने दर्शकों को उनके पात्रों से गहराई से जुड़ने में मदद की. उनकी फिल्मों में उनकी प्रस्तुति ने उन्हें एक विशेष स्थान दिलाया और वे उस दौर की सबसे मान्य अभिनेत्रियों में से एक बन गईं.

अपने समय के बाद, निम्मी ने फिल्म उद्योग से दूरी बना ली और अपने निजी जीवन में समय बिताया. उनकी मृत्यु पर, फिल्म उद्योग और प्रशंसकों ने उन्हें एक युग के अंत के रूप में शोक व्यक्त किया. उनका काम और उनकी विरासत भारतीय सिनेमा के इतिहास में हमेशा याद की जाती रहेगी.

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अभिनेत्री नलिनी जयवंत

नलिनी जयवंत भारतीय सिनेमा की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री थीं, जिन्होंने 1940 और 1950 के दशक में अपने अभिनय के लिए व्यापक पहचान प्राप्त की थी. उनका जन्म 18 फ़रवरी 1926 को हुआ था और उनका निधन 22 दिसंबर 2010 को हुआ. नलिनी ने अपने कैरियर की शुरुआत 1940 के दशक में की थी और उन्होंने कई हिट फिल्मों में काम किया. उन्हें उनकी खूबसूरती और प्रभावशाली अभिनय कौशल के लिए याद किया जाता है.

नलिनी जयवंत ने “बहेन” (1941), “अनोखा प्यार” (1948), “आरजू” (1950), “रेलवे प्लेटफार्म” (1955), और “काला पानी” (1958) जैसी कई प्रमुख फिल्मों में अभिनय किया. उन्हें अपने समय के सबसे विशिष्ट अभिनेताओं में से एक माना जाता था.

उनका अभिनय कैरियर उस समय के सिनेमा में उनकी विशेष पहचान बनाने में सफल रहा और वे अपने समय की एक प्रतिष्ठित अभिनेत्री बनीं. उनके काम ने उन्हें कई पीढ़ियों के दर्शकों के बीच एक सम्मानित स्थान दिलाया.

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अभिनेत्री जिया मानेक

जिया मानेक एक भारतीय टेलीविजन अभिनेत्री हैं, जिन्हें मुख्य रूप से उनके द्वारा निभाई गई दो प्रमुख भूमिकाओं के लिए जाना जाता है: ‘गोपी आहूजा’ स्टार प्लस के लोकप्रिय धारावाहिक “साथ निभाना साथिया” में और ‘जीनी’ सब टीवी के शो “जीनी और जूजू” में.

“साथ निभाना साथिया” में उनके किरदार गोपी को एक सरल, सीधी-सादी और संस्कारी बहू के रूप में दिखाया गया था, जो अपने परिवार की भलाई और खुशी के लिए हमेशा तत्पर रहती है. इस भूमिका के लिए जिया मानेक को व्यापक पहचान और प्रशंसा मिली, और वह घर-घर में लोकप्रिय हो गईं.

“जीनी और जूजू” में उन्होंने एक जादुई जीनी का किरदार निभाया, जो एक अलग तरह की कॉमेडी और मनोरंजन प्रदान करती है. इस भूमिका में भी उनकी अदाकारी को खूब सराहा गया.

जिया मानेक के अभिनय कौशल और उनकी भूमिकाओं ने उन्हें टेलीविजन उद्योग में एक पहचान दिलाई है, और वह छोटे पर्दे की प्रमुख अभिनेत्रियों में से एक बन गई हैं. उनकी भूमिकाएं और उनका काम विभिन्न दर्शकों के बीच लोकप्रिय रहा है, जिससे उन्हें टेलीविजन इंडस्ट्री में एक विशेष स्थान प्राप्त हुआ है.

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तैमूर लंग

तैमूर लंग, जिन्हें तैमूर और तमरलेन के नाम से भी जाना जाता है, 14वीं और 15वीं शताब्दी के दौरान मध्य एशिया में एक महान तुर्क-मंगोल विजेता और साम्राज्य के संस्थापक थे. उनका जन्म 8 अप्रैल 1336 को शहरिसब्ज, आज के उज्बेकिस्तान में हुआ था, और उनका निधन 18 फरवरी 1405 को हुआ था. तैमूर को इतिहास में एक क्रूर विजेता के रूप में जाना जाता है, जिसने अपने जीवनकाल में एशिया के बड़े हिस्सों पर विजय प्राप्त की.

तैमूर का उदय 14वीं शताब्दी के अंत में हुआ, और उन्होंने एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की जो मध्य एशिया, ईरान, आधुनिक अफगानिस्तान, और कुछ हद तक भारतीय उपमहाद्वीप तक फैला था. उन्होंने अपनी सैन्य अभियानों के माध्यम से अपने विरोधियों के खिलाफ निर्ममता का प्रदर्शन किया, जिससे लाखों लोगों की मौत हुई.

तैमूर का उद्देश्य मंगोल साम्राज्य की पुनः स्थापना करना था, जिसे चंगेज खान ने स्थापित किया था. उन्होंने खुद को चंगेज खान का वंशज मानते हुए अपनी विजयों को उसी का विस्तार माना. उनकी मृत्यु के बाद, उनके वंशजों ने मुगल साम्राज्य की स्थापना की, जिसने बाद में भारत पर शासन किया.

तैमूर के शासन और विजय अभियानों ने उस समय के इतिहास और संस्कृति पर गहरा प्रभाव डाला. उनके कार्यों ने कई क्षेत्रों में विनाश और पुनर्निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया, जिसके परिणामस्वरूप कला, वास्तुकला, और सांस्कृतिक विकास में नई दिशाएँ मिलीं.

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