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ठंड के खिलाफ…
आदमी सिकुड़ता जाता है ठंड में,
और गठरी बन जाता है अलाव के पास,
आग ठंड का कुछ नहीं बिगाड़ पाती,
धीरे धीरे स्वयं ठंडी होने लगती है आग,
बूढ़ा पीठ नहीं बचा पाता ठंड की मार से,
बूढ़ा कुनमुनापन खोजता है खोजता है माँ को,
याद करता हुआ बचपन को अंडे जैसे सेने लगती है माँ,
छाती से कैसे चिपटा लेती है पेट से सांस की संगीत से,
वह फिर कुनमुनापन तलाशता है कुनमुना आँचल,
उष्ण दुग्ध धवल पहाड़ी झरना खांसकर दम तोड़ने के पूर्व निकल आते है,
दो नन्हें हाथ दो नन्हें पांव, तारों जड़ी आँखें फूल सा चेहरा दुधिया,
एकदम सुफैद और फिर पंखुरी सा, फिर बंद हो जाता है,
फँखुरीयों में बन्द भंवरे सा वह स्वयं उतरने लगता है,
अंधेरे में सूरंग की ओर उषस की ओर सूर्य सा…
प्रभाकर कुमार.