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सुरेन्द्र वर्मा?…

सुरेन्द्र वर्मा जन्म- 7 सितम्बर, 1941) हिन्दी के अग्रणी साहित्यकारों में से एक हैं। उनका नाटक ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ (1972) बहुत प्रसिद्ध हुआ था। इस नाटक का छ: भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ था। सुरेंद्र वर्मा के नाटकों में यौन-चेतना के चित्रण के साथ-साथ कतिपय स्‍थलों पर उसकी जनाकांक्षा, विडंबना व विद्रूपता का भी प्रयोग हुआ है, जिसमें विचार और व्‍यवस्‍था विमर्श की उपस्थिति है। वे ऐसे नाटककार हैं जिन्‍होंने किनारे बैठकर जीवन की थाह को नहीं समझा, बल्कि वे गहरे उतरते हैं और जीवन की ऊपरी चकाचौंध के भीतर के स्‍याह अँधेरे को बख़ूबी बयां करते हैं।

परिचय

सुरेन्द्र वर्मा ने एक नाटककार के रूप में शुरुआत की थी। उनका नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के साथ लंबा संबंध रहा है। उनके लघु कथाओं, व्यंग्य, उपन्यास और नाटकों के लगभग पंद्रह शीर्षक प्रकाशित हुए हैं। वर्ष 1993 में सुरेन्द्र वर्मा को ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ और 1996 में ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ जबकि 2016 में ‘व्यास सम्मान’ से सम्मानित किया गया है।

आलोचना व लोकप्रियता

हिन्दी नाट्य परंपरा में जयशंकर प्रसाद और मोहन राकेश की संवेदना को विकसित करने में सुरेन्‍द्र वर्मा की प्रमुख भूमिका रही है। सुरेन्‍द्र वर्मा समकालीनता के सिद्धहस्‍त नाटककार हैं। सन 1972 में प्रकाशित “तीन नाटक संग्रह” (जिसमें सेतुबन्‍ध, नायक खलनायक विदूषक और द्रौपदी) से लेकर “रति का कंगन” (2011) में उन्‍होंने पौराणिक एवं ऐतिहासिक कथा-प्रसंगों के माध्‍यम से परिवर्तित काम-चेतना को अंतर्वस्‍तु बनाया है। सुरेन्‍द्र वर्मा ने सन 1970 के दशक में विवाह के बाद के काम-संबंध की मर्यादा को तोड़कर प्रेम के मूल्‍य को स्‍थापित किया था, तो कुछ मर्यादावादी लोगों को यह बेईमानी लगी थी। अब उनके देखते यह भी धसक रहा है कि अब प्रेम के औज़ार को और धारदार करने के लिए स्‍त्री-विमर्श स्‍त्रीत्‍व की खोज में देह के लिए देह की प्रवृत्ति तक चल पड़ा है। बहरहाल, काम-चेतना के चित्रण के लिए सुरेन्‍द्र वर्मा की जितनी तीखी आलोचना हुई, उतनी उन्हें अपार लोकप्रियता हासिल हुई। “काम” वर्णन को हीन मानने वाली मानसिकता के विरोध में एक ऐसी रंगभाषा का निर्माण करते हैं, जो “काम” की महनीयता को रंग-क्षेत्र में स्‍थापित करती है।

विषयवस्तु

सुरेंद्र वर्मा के नाटकों में यौन-चेतना के चित्रण के साथ-साथ कतिपय स्‍थलों पर उसकी जनाकांक्षा, विडंबना व विद्रूपता का भी प्रयोग हुआ है, जिसमें विचार और व्‍यवस्‍था विमर्श की उपस्थिति है। वे ऐसे नाटककार हैं जिन्‍होंने किनारे बैठकर जीवन की थाह को नहीं समझा, बल्कि वे गहरे उतरते हैं और जीवन की ऊपरी चकाचौंध के भीतर के स्‍याह अँधेरे को बख़ूबी बयां करते हैं। “सेतुबंध” नाटक में प्रभावती जब अपनी माँ से यह कहती है- “भावना के बिना शारीरिक संभोग बलात्‍कार होता है और मैं उसी का परिणाम हूँ”। “सेतुबंध” नाटक में कालिदास और प्रभावती के परस्‍पर प्रेम और यौन संबंधों की अवांछनीयता और असमाजिकता से उत्‍पन्‍न तनाव, छटपटाहट और बिखराव जनित त्रासदी को रेखांकित किया गया है। प्रभावती अपने पिता के दबाव में आकर एक अनचाहे पुरुष वाकाटक नरेश से विवाह कर लेती है, किंतु हृदय से वह अपने प्रेमी कालिदास की ही बनी रहती है।

प्रवरसेन की माँ बनकर भी वह पत्‍नी नहीं बन पाती। ऐसी स्थिति में यदि परपुरुष पति और पति परपुरुष बन जाए तो क्‍या आश्‍चर्य! आधुनिक जीवन का विवाह का “काम” संबंधी समीकरण कुछ इस प्रकार है- “यदि पुरुष अविवाहित है तो स्‍त्री विवाहित, यदि पुरुष विवाहित है तो स्‍त्री अविवाहित”। “सेतुबंध” नाटक की यही विडंबना है। मूक गुड़िया की भाँति जीवन की अवहेलना करके अपनी समस्‍त सूक्ष्‍म भावनाओं को तिलांजलि देने वाली जैसी स्‍त्री उनके नाटकों की नायिका नहीं है। सुरेंद्र वर्मा नाटक में आधुनिकतावाद के मनमाने सुख के खुले खेल के प्रतिवाद का मानक है। नाटक का पात्र मल्लिनाग उच्‍च शिक्षा ग्रहण करने जाता है और शोध-निर्देशिका लवंगलता द्वारा अनचाहे यौन-शोषण का शिकार हो जाता है। वर्मा जी ने विश्‍वविद्यालयों में चल रहे अनैतिक कार्यों एवं गुरु-शिष्‍य संबंधों का विकृत रूप उजागर किया है।

कृतियाँ

  • उपन्यास : अँधेरे से परे, मुझे चाँद चाहिए (1993), दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता (2000), काटना शामी का वृक्ष पद्मपंखुरी की धार से (2010)।
  • कहानी संग्रह : प्यार की बातें, कितना सुन्दर जोड़ा।
  • व्यंग्य संग्रह : जहाँ बारिश नहीं।
  • नाटक : सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक (1972), द्रौपदी (1972), नायक खलनायक विदूषक (1972), आठवाँ सर्ग (1976), छोटे सैयद बड़े सैयद (1978), क़ैद-ए-हयात (1983), एक दूनी एक (1987), शकुंतला की अंगूठी (1990), रति का कंगन (2011), तीन नाटक।
  • aएकांकी संग्रह : नींद क्यों रात भर नहीं आती (1976)

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