Dharm
महर्षि मेही आश्रम । भागलपुर
महर्षि मेँहीँ ने जिस समय यहाँ फूस की कुटिया बनायी थी, उस समय गंगा नदी बहुत उत्तर की ओर हटकर बह रही थी। जब महर्षिजी इस कुटिया में निवास करने लगे, तब गंगा नदी कुटिया के निकट आ गयी। महर्षिजी कुटिया छोड़कर कुछ दिनों के लिए अन्यत्र चले गये, तब गंगा नदी भी पूर्ववत् दूर हटकर बहने लगी।
कुछ दिनों के पश्चात् महर्षिजी पुनः यहाँ आए, तो गंगा भी पुनः निकट आ गई। तब से अभी तक गंगा नदी ज्यों-की-त्यों प्रवाहित हो रही है।
महर्षिजी प्रायः गंगा-स्नान करने जाया करते थे। उनका गंगा में स्नान करने जाना मानो अपने त्रय लोक पावन चरणकमलों से उसको पवित्र करना था। उस दिन गंगा वर्षों के सँजोये अपने अरमानों को पूरा होते देख अपने भाग्य पर इठलाती होगी। महर्षिजी खान-पान एवं स्नान में गंगाजल का ही उपयोग करते थे।
महर्षि मेँहीँ -समाधि मंदिर
महर्षि मे ँही ँ आश्रम, कुप्पाघाट के संस्थापक सद्गुरु महर्षि मे ँही ँ परमहंसजी महाराज ने इहलोक की लीला समाप्त कर दिनांक 08 जून 1986 को परिनिर्वाण प्राप्त किया। उनके पार्थिव शरीर को फूल-मालाओं से सजाकर दो दिनों तक श्रद्धालु भक्तों के अन्तिम दर्शनार्थ बर्फ पर रखा गया था। महर्षिजी के महाप्रयाण के बाद सर्वसम्मति से उनकी सेवा में छाया की भाँति रहनेवाले प्रधान शिष्य महर्षि संतसेवी परमहंस ने चिता प्रज्ज्वलित की।
सर्वप्रथम वैदिक मंत्रें द्वारा हवन किया गया, तत्पश्चात् चिता में अग्नि प्रज्वलित की गई।
जिस स्थान पर उनके अग्नि संस्कार किए गए वहाँ आज लगभग 60 फीट ऊँचा भव्य समाधि-मंदिर बनाया गया है। मंदिर के अंदर मध्य भाग में ग्रेनाइट पत्थरों से एक अष्टकोणीय चबूतरा बना हुआ है। वर्तमान समय में उसपर गुरुदेव का ध्यानस्थ चित्र स्थापित है। समाधि-मंदिर की जमीन पर संगमरमर पत्थर जड़ा है। इसके सोलह पायों में ग्रेनाइट पत्थर लगाए गए हैं। अंदर का भाग शीशे की किवाड़ों से घिरा शोभायमान हो रहा है। मंदिर के भीतर और बाहर संगमरमर पत्थरों पर महर्षिजी की अमर-वाणियाँ उकेरी गई हैं। मंदिर के शिखर पर कमल की-सी आकृति बनी है। जिसमें पीतल के कलश रखे गए हैं। उसपर खड़ा त्रिशूल दूर से ही दृष्टिगोचर होता है। समाधि मंदिर के चारों ओर खिले- अधखिले फूलों की कतार और वहाँ की शांति-पवित्रता से आकर्षित होकर दर्शकगण अपना सुध-बुध खो देते हैं।
स्वामी श्रीधर जी महाराज का समाधि-स्थल
स्वामी श्रीधरदासजी महर्षि मे ँही ँ परमहंसजी महाराज के आरंभिक शिष्यों में प्रमुख स्थान रखते हैं। इनका जन्म 1889 ई0 में समस्तीपुर जिला के लगमा ग्राम के एक क्षत्रिय कुल में हुआ था। इनके पिता का नाम श्रीजगदम्बी सिंह था। 1920 ई0 में इन्हें महर्षिजी के प्रथम दर्शन हुए। 1928 ई0 में इन्होंने महर्षिजी से दीक्षा प्राप्त कर ध्यान-साधना शुरू की। कुछ समय बाद ये महर्षिजी के साथ सत्संग कार्यक्रम में भाग लेने लगे। महर्षिजी जब मायागंज की गुफा में ध्यानरत रहते थे, उस समय भी ये उनकी सेवा के लिए साथ में थे। इनकी सेवा से प्रसन्न होकर महर्षिजी ने इन्हें सिकलीगढ़ धरहरा का व्यवस्थापक बना दिया और बाद में इन्हें संन्यासी वस्त्र देकर दीक्षा देने का आदेश भी दे दिया। 97 वर्ष की अवस्था में दिनांक 26 जनवरी 1987 ई0 को इन्होंने अपने पंच-भौतिक शरीर का त्याग कर दिया। आश्रम आहाते के पश्चिम-उत्तर भाग में पूर्ण सम्मान के साथ इनकी चिता रची गई। आज उनकी याद में उसी स्थान पर एक छोटा किन्तु सुंदर समाधि मंदिर खड़ा है।
महर्षि संतसेवी समाधि-स्थल
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की समाधि से सटे दक्षिण-पश्चिम में महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज की समाधि बहुत आकर्षक है। इसका निर्माण राजस्थान के मकराना से लाए गए पत्थरों से किया गया है। मकराना में ही कलात्मक ढंग से पत्थरों को काट कर यहाँ लाया गया और राजस्थानों के कलाकारों द्वारा सर्वधर्म-समन्वय के रूप में इसे सजाया गया है। इस समाधि में एक भी ईंट का प्रयोग नहीं किया गया है। समाधि-मंदिर का उद्घाटन 20 दिसम्बर, 2009 ई0 को संतमत के वर्तमान आचार्य पूज्यपाद महर्षि हरिनन्दन परमहंसजी महाराज के कर-कमलों द्वारा किया गया।
सर्वाधिकार सुरक्षित : महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट