story

“प्रेम या पागलपन?”

अस्पताल की खिड़की से झाँकता सच

नलिन मनोरोग वार्ड की खिड़की के शीशे पर अपनी सूखी उंगलियों से गायत्री का नाम लिख रहा था.  बाहर बारिश हो रही थी – हर बूंद उसके लिखे अक्षरों को धो देती, और वह फिर से लिख देता.

नर्स (गायत्री से)-

“वो रोज़ ऐसा करता है… कहता है कि बारिश उसके गुनाह धो देगी.”

गायत्री ने देखा – नलिन की कलाई पर बंधी पट्टी नीचे खून से सनी हुई थी.

दो डॉक्टरों के बीच नैतिक संवाद

डॉ. मल्होत्रा (फाइल पलटते हुए)-

*”हमारे पास दो विकल्प हैं-:

उसे जीवनभर के लिए सेडेटिव देना

लॉबोटॉमी करना”

गायत्री (चीखती हुई)-

“नहीं! आप उसके दिमाग का वो हिस्सा नहीं काट सकते जहाँ मैं बसी हूँ!”

तभी ECT रूम से नलिन की चीखें सुनाई दीं.

प्रेम का अंतिम प्रमाण

गायत्री ने नलिन की पुरानी डायरी खोली, जिसमें उसने लिखा था-

“आज गायत्री ने मुझे चाँद दिखाया… मैंने उसकी आँखों में देखा – वहाँ पूरा ब्रह्मांड था. अब मैं समझता हूँ कि पागल क्यों हो जाते हैं लोग…”

डायरी के अंतिम पन्ने पर खून का धब्बा था और लिखा था-

“माफ करना… मैं तुम्हारे प्यार को अपने पागलपन से दूषित नहीं करना चाहता.”

खिड़की के दोनों ओर

नलिन ने खिड़की के शीशे पर दो हाथों के निशान बनाए. बाहर खड़ी गायत्री ने अपने हाथ उन पर रख दिए.

नलिन (आँसू भरी आवाज में)-

“तुम्हारे हाथ… इतने गर्म… मेरे शीशे जैसे ठंडे हाथों को…”

गायत्री ने देखा – शीशे पर उसकी छवि अब नलिन के आँसुओं से धुल रही थी.

अंतिम प्रश्न

क्या यह प्रेम की पराकाष्ठा थी या मानसिक विकृति की परिणति?

क्या गायत्री का त्याग उदात्त था या वह भी एक पागलपन था?

शेष भाग अगले अंक में…,

:

Related Articles

Back to top button