
खुदीराम बोस…
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा!!
भारत को आज़ादी पाने में 200 साल लगे, इन दो सौ सालो में एक दौर आया था, जब देश के नौजवानों ने अपनी जिम्मेदारी समझी और निकल पड़े अंग्रेजों के खिलाफ क्रान्ति करने। भगत सिंह, राज गुरु, चंद्रशेखर आज़ाद और इन्हीं में से एक था वो, 18 साल का नौजवान लड़का, अपना नाम खुदीराम बोस बताता था. महज 18 साल, यह उम्र का वह पड़ाव है, जब लकड़पन छूट रहा होता है और जवानी सर पर होती है. जुनून, जज़्बा और शरीर में एक अलग ही जोश के साथ दौड़ता खून, इस उम्र में एक चाहत मन में जगती है कुछ अलग कर जाने की। पर किसे पता था, खुदीराम वो कर जाएंगे, जिससे उनका नाम देश भक्तों की किताब में स्वर्ण अक्षरों से अंकित किया जाएगा।
कोर्ट में जब जज ने खुदीराम को फांसी की सजा सुनाई फिर भी उनके चेहरे पर एक चिंता नहीं दिखी. मौत से इस कदर बेतकल्लुफ़ी थी कि जेलर आख़िरी इच्छा पूछने आया तो खुदीराम उससे भी मसखरी करने लगे. जेलर ने आख़िरी ख्वाहिश पूछी तो खुदीराम ने कहा, “आम मिल जाएं तो बेहतर होगा.” जेलर ने आम लाकर खुदीराम को दे दिए. कुछ देर बाद जेलर आया तो देखा आम ज्यों के त्यों पड़े थे. जेलर ने पूछा कि आम क्यों नहीं खाए तो खुदीराम ने जवाब दिया कि आम तो वो ख़ा चुका है. जेलर ने जाकर गौर से आम की तरफ़ देखा तो पाया कि आम की गुठलियां इस तरह निकाली गई थीं कि आम साबुत ही दिखाई पड़ रहे थे. ये देखकर खुदीराम खिलखिलाकर हंस पड़े. 11 अगस्त की सुबह 6 बजे खुदीराम को फांसी दे दी गई. वहां मौजूद लोगों के अनुसार फांसी मिलने तक एक बार भी न वो घबराए, न उनके चेहरे पर कोई शिकन आई. कहने को तो खुदीराम उस फांसी से झूल रहे थे, लेकिन अंग्रेजों को यह साफ़-साफ़ दिख रहा था कि वह खुदीराम नहीं, बल्कि अंग्रेजी सरकार अपनी आखिरी साँसे गिन रही है. एक 18 साल का लड़का, अपनी माटी को स्वतंत्र देखने का सपना और मन में अंग्रेजों के खिलाफ क्रान्ति, आज इतने सालों बाद भी खुदीराम की कहानी नई लगती है, आप जितनी बार पढ़ें उतनी बार!
प्रभाकर कुमार (जमुई).