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रिश्तों की बानगी

बिखरे धागे...

अनन्या कॉलेज से लौट रही थी तो उसने देखा कि घर के बाहर एक नई गाड़ी खड़ी है. उत्सुकता से अंदर जाने पर उसने पाया कि उसके चाचा, रवि, अपनी पत्नी, श्वेता, और उनके दो बच्चों के साथ आए हुए थे. बरसों बाद उन्हें एक साथ देखकर अनन्या को खुशी हुई.

लेकिन यह खुशी ज्यादा देर तक टिक नहीं पाई. शाम की चाय पर बातों-बातों में रवि और अनन्या के पिता, आलोक, के बीच पुरानी बातों को लेकर बहस शुरू हो गई. व्यवसाय में हुए नुकसान और उसे संभालने के तरीकों पर दोनों भाइयों के विचार अलग थे और बरसों से दबी हुई नाराजगी आज फिर सतह पर आ गई.

श्वेता ने बीच-बचाव करने की कोशिश की, लेकिन बात और बिगड़ गई. रवि गुस्से में अपने बच्चों को लेकर उठ गए और जाने की तैयारी करने लगे. सुमित्रा देवी ने उन्हें रोकने की कोशिश की, उनकी आँखों में आँसू थे, लेकिन रवि नहीं माने.

अनन्या स्तब्ध खड़ी सब कुछ देखती रही. उसे समझ नहीं आ रहा था कि खून के रिश्ते इतने कमजोर कैसे हो सकते हैं. जिन लोगों के साथ उसने अपना बचपन बिताया था, आज उनके दिलों में इतनी कड़वाहट क्यों भरी हुई थी?

उस रात, अनन्या अपनी माँ के कमरे में गई. रागिनी खिड़की के बाहर चाँदनी रात को देख रही थीं. उनकी आँखों में नमी थी.

“माँ,” अनन्या ने धीरे से कहा, “क्या ये रिश्ते कभी ठीक नहीं होंगे?”

रागिनी ने मुड़कर अनन्या को देखा और एक फीकी मुस्कान दी. “बेटा, रिश्ते नाजुक होते हैं. उन्हें प्यार और समझदारी से सींचना पड़ता है. जब अहंकार और गलतफहमी की धूल जम जाती है, तो उन्हें साफ करना मुश्किल हो जाता है.”

“लेकिन कोशिश तो करनी चाहिए ना, माँ?” अनन्या ने आग्रह किया.

रागिनी ने अनन्या के सिर पर हाथ फेरा. “कोशिश तो हमेशा करनी चाहिए, बिटिया. लेकिन कभी-कभी, समय को भी अपना काम करने देना पड़ता है.”

अगले कुछ दिनों तक घर में उदासी छाई रही. रवि के जाने के बाद माहौल और भी बोझिल हो गया था. अनन्या ने महसूस किया कि उसके परिवार के धागे धीरे-धीरे बिखर रहे थे और उसे यह डर सता रहा था कि कहीं ये पूरी तरह से टूट न जाएं.

शेष भाग अगले अंक में…,

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