
दिन बीतते गए और जमुना देवी की हालत और खराब होती गई. भूख और अत्याचार ने उन्हें कमजोर कर दिया था. उनके शरीर में अब उठने की भी ताकत नहीं बची थी. पर उनकी आँखों में अब भी एक चमक थी – जीने की उम्मीद, अपनी जान बचाने की जद्दोजहद.
एक रात, जब सुरेश और रीना गहरी नींद में सो रहे थे, जमुना देवी ने हिम्मत जुटाई. धीरे-धीरे, लड़खड़ाते कदमों से वे घर से बाहर निकलीं। अंधेरी रात में, बिना किसी सहारे के, वे उस रास्ते पर चल पड़ीं, जहाँ उन्हें थोड़ी भी सुरक्षा मिल सके.
उनके मन में अपने पति की यादें थीं, उनके सिखाए हुए संस्कार थे, जो उन्हें हार मानने नहीं दे रहे थे. वे जानती थीं कि उन्हें जीना है, अपनी बची हुई साँसों को किसी ऐसे स्थान पर बिताना है जहाँ उन्हें थोड़ा सम्मान और शांति मिल सके.
सुबह होते-होते, वे गाँव के बाहर एक पुराने मंदिर के पास पहुँच गईं. पुजारी दयालु व्यक्ति थे. उन्होंने जमुना देवी की हालत देखकर उन्हें आश्रय दिया, भोजन दिया और उनकी कहानी सुनी.
जमुना देवी की आँखों से आँसू बहते रहे – अपने पति के गम में, अपने बेटे के विश्वासघात में, और अपनी जान बचाने की इस कठिन यात्रा में. पर उन आँसुओं में एक दृढ़ संकल्प भी था – अब वे किसी के आगे नहीं झुकेंगी, अपनी बची हुई जिंदगी को सम्मान से जीएंगी.
यह एक मार्मिक कहानी है, जो दिखाती है कि कैसे स्वार्थ और लालच रिश्तों को तार-तार कर सकता है और एक माँ को अपने ही बच्चों से अपनी जान बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ सकता है। यह कहानी उन बूढ़े माता-पिता के दर्द को बयां करती है, जिन्हें अपने ही औलाद के हाथों अपमान और अत्याचार सहना पड़ता है. यह एक सवाल भी उठाती है कि क्या पढ़े-लिखे होने का यही अर्थ है कि इंसान अपनी मानवीयता और संवेदना को भी खो दे?