
खजाना यादों का…
यादें ही खजाना है यही साथ ले जाना है,
जितना कम सामान रहेगा मरना उतना
ही हम सबका तेरा, मेरा आसान रहेगा।
कोयले की जली रोटी आज मेरे सामने
आईं आज पुराने ज़माने की याद आई
आंखें मेरी भर आई,ताई,अम्मा,दादी की
परछाई आईं,वो सर्दी कोहरे वाली रातें,
आग अंगीठी जलती वो बुजुर्गों की बातें।
खासी,वो सांस फूलती खट खट करती,
तवे पे सिकती रोटी,वो चिमटे फुखनी वो
चूड़ी,पायल खन खन बजती थी आवाजे।
वही कुंडी, कब्जे, तखत, खटिया,दरवाज़े
वो आलो अलमारी में रखी चीजे याद है
आती जब अपनी दोनों आंखी हम मीचे,
हाय रे जिदंगी तूं कितनी है छोटी,हाथ
तापते और कापतें लोग परछाइयों में है
दिख जाती ,पता नहीं हमें चलता उंगली
मेरी क्या -क्या लिख जाती,याद आते वो
झींगुर,वो कुत्ते भौंकने की वो ही आवाजे।
ना बदले यहां कुंडी कब्जे ना वो दरवाजे
वही लटके है मकानों के छज्जे,बड़े हो गए
है यहां वहां के सारे आस – पास के बच्चे
जज्जबात नहीं समझे इंसान मिल गए थे
सारे कच्चे,सब हो गए है यहां लड़ते लड़ते
बुड्ढे हम रह गए यहां बच्चे,मन के हैं सच्चे।
प्रभाकर कुमार.