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किसान की दुर्दशा…

किस से दुखङा कहे खेतिहर,

किसको अपनी पीर  सुनाये?

पथरायी   आँखो  में     कैसे,

आशाओं   के   नीङ  सजाये…

पौ   फटते ही  पहुँच खेत  पर

कर्मठ  योगी सम  रम   जाता,

हल कुदाल की सभी विधा से

धरणी  का  सीना    सहलाता.

बीज  रोप कर  धरा   गर्भ   में

सपनों   का    संसार   बसाता,

पूस  माह  में  शिशिर  ऋतु में

जल   में  पैर    दिये  ठिठुराता,

रातों में   हिमवत  तुषार    की

आशंका  से     दिल     थर्राता,

बैठ   खेत  की    मेंङ   महीनों

बस    चटनी    से  रोटी  खाता,

जब  लहराये  फसल   खेत   में

मन   को  थोङा    धीर  बँधाये।

किस से   दुखङा कहे खेतिहर

किसको   अपनी पीर  सुनाये?

पथरायी     आँखो      में  कैसे

आशाओं    के   नीङ  सजाये

बेटे      की    शिक्षा का  खरचा

दुहिता भी     हो  रही   सयानी

कर्ज  महाजन का  कुछ  बाकी

घर    की  छत   है  शेष बनानी

बहुत  दिनों   से   है   रेहन  जो

पत्नी   की   वो   चीज छुङानी

अपनी चिन्ता   नहीं तनिक भी

पर  बच्चों   की  माँग   निभानी

वृद्ध  पिता का   मौन    सालता

अम्मा    की    आँखें   बनबानी

अगणित   दुश्चिचितायें  मन  में

बङी करूण  है कृषक  कहानी

जो इस दारुण दु:ख को समझा

दिल  में    गहरा   तीर     चुभाये

किस    से दुखङा कहे खेतिहर

किस को    अपनी पीर  सुनाये

पथरायी    आँखो   में      कैसे

आशाओं के     नीङ     सजाये

शासक ,   सत्ता    सब   बेगाने

दर्द  किसानों  का    क्या जानें

खेत नहीं   हल  हाँका  जिसने

व्यथा कृषक की कब पहचानें

असमय  जब  घन घिरें व्योम में

हो     आशंका    रोम – रोम   में

पकी   फसल  जब ओले गिरते

भूमि – पुत्र  के   सपने     मरते?

देख   विधाता    की   मनमानी

जार-जार      रोता    भू- स्वामी

मिटा रहा    जो क्षुधा जगत की

उसे  मिटाने    की   क्यों ठानी?

जब  विधि  वाम हुए हलधर के

फिर  किस सुर को नीर चढाये

किससे    दुखङा  कहे खेतिहर

किसको     अपनी पीर  सुनाये?

पथरायी   आँखो     में      कैसे

आशाओं      के नीङ   सजाये ।

प्रभाकर कुमार. 

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