“राम तेरे घर कितने अंधेरे हैं…” — यह सिर्फ एक शेर नहीं, आज की राजनीति पर एक करारी टिप्पणी है. जहाँ अंधेरे सिर्फ बिजली की कमी नहीं, बल्कि नैतिकता, विवेक और जनसेवा की भी है:
राम तेरे दौर में भी राजसभा थी, अब भी है, तब रघुकुल रीति थी, अब ‘रूटीन घूस नीति’ है. अयोध्या में दीप जलते थे सच्चाई के, अब राजधानी में चमकती हैं वादों की खाली पिचकारी.
जनता पूछती है- चांद पर बसेरा आसान है, पर सड़क पर गड्ढा भरना क्यों अब भी विज्ञान है? हर चुनाव से पहले “रामराज्य” की बात होती है, और हर चुनाव के बाद “हवा-हवाई” की.
सत्ता की कुर्सी अब चरित्र की नहीं, चतुराई की मांग करती है. विकास अब नारे की तरह होता है- जो जितना जोर से बोले, वही असली.
जो नेता कभी झोला लेकर सेवा में आए थे, अब झोला भरकर विदेश रवाना हो जाते हैं. नया भारत चमकता है LED बल्बों से, पर सच को दिखाने वाला बल्ब अब भी “फ्यूज” है.
यह अंधकार सिर्फ मेरे घर का नहीं, राम. यह तो हर उस चौखट पर पसरा है, जहाँ ईमानदारी को “अक्षम्य भूल” माना जाता है और झूठ को “रणनीतिक विजन.”
राम बोले- “मेरे समय में मर्यादा थी सीता की अग्नि में, अब नेता अग्नि पर हैं, पर कुर्सी से चिपके हैं. मैं वनवास गया चौदह साल के लिए, ये लोग सत्ता में आते ही जनता को वनवास दे देते हैं.”
राजनीति बोली- “राम, तुम्हारा धर्म कठिन था, अब धर्म का भी ‘वोट बैंक’ होता है. तुमने झूठे स्वर्ण मृग के पीछे नहीं भागा, पर अब स्वर्ण सीट के लिए सच को बेच दिया जाता है.”
राम बोले- “मैंने केवट को गले लगाया, तुमने उसे ‘श्रमिक’ कहकर भुला दिया. मैंने विभीषण को अपनाया, तुम विरोध को ‘देशद्रोह’ बता दिया.”
आज संसद की दीवारें गूंजती नहीं, गूंगी हैं. प्रश्न काल अब ‘प्रचार काल’ हो चुका है. रामराज्य की दुहाई तो दी जाती है, पर ‘राज्य’ कहीं है, ‘राम’ नहीं.
“राम तेरे घर कितने अंधेरे हैं…” यह सिर्फ़ एक आर्तनाद नहीं, बल्कि एक सवाल है हर उस अंतर्मन का जो अब भी उजाले के इंतज़ार में है.



