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मांतंगनी हाजरा…

भारत देश की स्वतंत्रता के संघर्ष में पुरुष और महिला, धनवान और निर्धन, छोटे और बडे का कोई अन्तर नहीं रहा है। प्रत्येक वर्ग ने आजादी की लड़ाई में भाग लिया। मांतंगनी हाजरा भी ऐसी ही एक मुसलमान महिला स्वतंत्रता सेनानी थी, जिन्होंने निर्धनता के बावजूद देश की आजादी में खुलकर हिस्सा लिया। यहां तक कि उस संघर्ष में उन्होंने अपनी जान को निछावर कर दिया। मांतंगनी हाजरा 19 अक्तूबर वर्ष 1869 ई० में बंगाल के तामलुक जिला के ग्राम होगला के गरीब परिवार में पैदा हुई। भारत के बहुत से पुरुष एवं महिलाएं तो जन्म से ही अपने मन में आजादी के संघर्ष का जज्बा लेकर पैदा हुई। कुछ आस पास के माहौल से प्रभावित होकर आजादी की जंग में कूद पड़े। मांतंगनी हाजरा एक मजदूर घराने की देश प्रेमी स्वतंत्रता सेनानी थी।

उनके मां बाप ने अपनी बेटी के खान-पान का खर्चा सहन न कर पाने के करण ,12 वर्ष की छोटी उम्र में ही बडी आयु के एक धनवान व्यक्ति से उनकी शादी कर दी, ताकि वे अपना जीवन सुख चैन से गुजार सकें। किंतु उसका परिणाम उलटा ही हुआ। 18 वर्ष की आयु में ही मांतंगनी हाजरा के सुहाग का सफर पूरा हो गया और वह विधवा हो गई। उनके हालात फिर बिगड गए। उन्होंने अपने विधवापन और गरीबी की परेशानियों को बर्दाश्त करते हुए आजादी की लड़ाई में जमकर हिस्सा लिया। उस समय देश में चारों ओर आजादी की चर्चाएं थीं, और आजादी के लिए संघर्ष करने का माहौल बना हुआ था। जुलूसों और जलसों में इंकलाब जिंदाबाद के नारों की गूंज थी। देशवासियों में अंग्रेजों के खिलाफ नफरत फैली हुई थी। मां हाजरा के दिल व दिमाग में भी यही सब बातें घर कर गई। उन्होंने आजादी की लड़ाई लड़ने की अपने मन में ठान ली। मांतंगनी हाजरा ने गांधी जी को अपना नेता मानकर चरखा कातना और खादी पहनना आरंभ कर दिया। चाहे जो भी आंदोलन हो, यह आजादी से संबंधित कोई भी गतिविधि हो, सभी में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। वह उन महिलाओं में से थी जिन्होंने अंग्रेजों के जुल्म और सजाओं की परवाह किए बगैर नमक सत्याग्रह में भाग लिया और मां हाजरा ने नमक बनाकर अंग्रेजी कानून की खिलाफ़वर्जी की। उस पर फिरंगियो ने सजा देने के लिए भारतीय महिलाओं को भी नहीं छोडा।

मांतंगनी हाजरा को भी सजा के तौर पर इतना ज्यादा पैदल चलवाया गया कि वह थकान के कारण चलते-चलते  गिर पडती थी। परंतु वह किसी भी सजा के कारण आजादी के संघर्ष से पीछे नहीं हटी। उनके दिल में देश प्रेमी इतनी गहराई तक बैठ गया था कि वह देश की खातिर फिरंगियो की कोई भी सजा सहने के लिए तैयार रहती थी। वह अधिकांश आंदोलनों में हिस्सा लेकर अंग्रेज सरकार के खिलाफ चुनौती खड़ी कर देती थी। चाहे चौकीदारी के विरोध में निकाला गया जुलूस हो, या वर्ष 1933 ई० मे सीरमपुर में कांग्रेस सम्मेलन, अथवा वर्ष 1942 ई० में भारत छोड़ो आंदोलन, सभी में उन्होंने खुलकर हिस्सा लिया। उन्होंने देश की आजादी के संघर्ष में जेल की सजा काटी। जलसो, जुलूसों में फिरंगी लाठियों से जख्मी हुई। एक महिला होते हुए आजादी की लड़ाई में उनके कारनामे किसी बहादुर पुरुष से कम नहीं रहे। वह इतनी बड़ी और अनुभवी नेता बन चुकी थी की 29 सितंबर 1942 ईस्वी के तामलुक में आंदोलन के समय लगभग छः हजार महिलाओं के जुलूस का उन्होंने नेतृत्व किया। उस समय इतनी ज्यादा टकराव की स्थिति बन गई थी कि, अंग्रेज बल ने महिला जुलूस को आगे बढ़ने से रोकने का प्रयास किया। लेकिन वह महिला क्रांतिकारियों को काबू में नहीं कर सकी। यहां तक कि महिला जुलूस को सारजेंट द्वारा चेतावनी दी गई कि यदि जुलूस ने आगे बढ़ने की कोशिश की तो उन्हें गोली मार दी जायेगी। आजादी  की मतवाली मांतंगनी हाजरा को सारजेन्ट की धमकी बर्दाश्त नहीं हुई।

उनके मन में तो अंग्रेज शासन से नफरत और आजादी की मुहब्बत का खून दौड़ रहा था। उन्होंने सारजेन्ट को ललकारते हुए कहा कि निहत्थी महिलाओं पर गोली चलाने की हिम्मत मत करना। वह आजादी के किसी भी आन्दोलन, जलसो, जुलूस धरने आदि को अंग्रेजों की धमकियों के डर से रोकने के खिलाफ थी। उन्होंने हमेशा देश की आबरू और आजादी की आन को अपनी जान पर प्राथमिकता दी। अतंत: हुआ भी यही कि देश की वीर महिला स्वतंत्रता सेनानी मां हाजरा अंग्रेज पुलिस के सामने आकर महिला जुलूस का नेतृत्व कर रही थी। पुलिस के रोकने के बावजूद आंदोलनकारी महिलाओं का जुलूस आगे बढ़ता जा रहा था। इसी बीच सारजेन्ट ने महिला जुलूस पर गोली चला दी। गोली मां हाजरा के बाजू को चीर गई। वह उस हाथ में देश का झंडा थामे हुए थी। उनके जख्मी हाथ से खून का फव्वारा उबल पड़ा, मगर उस बहादुर महिला ने देश का झंडा गिरने नहीं दिया। उसे दूसरे हाथ में ले लिया। और नारे लगाती हुई आगे बढ़ती गई। सारजेन्ट ने उनके दूसरे हाथ पर भी गोली दाग दी। उनका दूसरा हाथ जख्मी हो गया। दूसरे हाथ के पवित्र खून की धार से देश की धरती लाल होने लगी। उस बहादुर महिला ने दो गोलियां खाकर भी हिम्मत नहीं हारी और दूसरे लहूलुहान हाथ से ही देश का झंडा थामे रही। वह इतनी तकलीफ की हालत में भी अपनी लड़खड़ाती आवाज में देशभक्ति के नारे लगाती हुईं और भी आगे बढ़ने का प्रयास कर रही थी।

इतने में करूर सारजेन्ट ने भारत की उस वीर महिला के माथे को अपनी गोली का निशाना बना दिया। उनके माथे को फिरंगी गोली पार कर गई। ऐसी हालत में देश का परजम हाजरा बी के हाथ से दूसरी क्रांतिकारी महिला ने अपने हाथ में ले लिया। खून से भरी हुई मांतंगनी हाजरा अपने देश की धरती पर गिर पडी। फिर क्या था भीड़ ने गम और गुस्से से बेकाबू होकर अदालत पर क़ब्जा कर लिया। तामलुक में एक समानांतर सरकार कायम कर ली गई। जो कि बाद में गांधी के निर्देश पर खत्म कर दी गई। मांतंगनी हाजरा की शहादत इसका खुला सबूत है कि भारत देश को आजाद कराने के लिए इस देश की मुसलमान महिलाओं ने भी अपनी जानो को कुर्बान किया। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के खून से खींचा गया यह आजादी का पौधा आज भी आपसी एकता और भाईचारे का हमें संदेश दे रहा है। स्वतंत्रता सेनानी मांतंगनी हाजरा का देश की आजादी के लिए बलिदान इतिहास के पन्नों में अमर रहेगा।

 प्रभाकर कुमार

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