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व्यक्ति विशेष

भाग - 93.

लेखक शरदिंदू बंद्योपाध्याय

शरदिंदू बंद्योपाध्याय एक भारतीय लेखक थे, जिन्होंने बंगाली साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उनका जन्म 30 मार्च, 1899 को हुआ था और उनका निधन 22 सितंबर, 1970 को हुआ था. वे अपने ऐतिहासिक उपन्यासों, छोटी कहानियों और विशेष रूप से “ब्योमकेश बक्शी” नामक जासूसी श्रृंखला के लिए सबसे अधिक जाने जाते हैं.

‘ ब्योमकेश बक्शी ’ शरदिंदू की सबसे प्रसिद्ध कृति है, जो एक बंगाली जासूस की कहानियों का संकलन है. इस चरित्र ने भारतीय साहित्य में जासूसी उपन्यासों की एक नई शैली की शुरुआत की. ब्योमकेश की कहानियां न केवल अपराध के रहस्यों को सुलझाने के बारे में हैं, बल्कि उनमें समाज के विभिन्न पहलुओं का चित्रण भी शामिल है.

शरदिंदू ने अपने लेखन कैरियर की शुरुआत विज्ञान संबंधी लेखों और उपन्यासों से की थी, लेकिन बाद में उन्होंने ऐतिहासिक और जासूसी उपन्यासों की ओर रुख किया. उनके द्वारा लिखे गए कुछ प्रमुख ऐतिहासिक उपन्यासों में “कालेर मंडंद”, “तुंगभद्रार तीरे” और “गौरमल्लार” शामिल हैं. उनकी रचनाएँ आज भी बंगाली साहित्य में उच्च स्थान रखती हैं और उन्हें व्यापक रूप से पढ़ा जाता है.

शरदिंदू बंद्योपाध्याय का साहित्य न केवल उनके रचनात्मक लेखन कौशल का प्रमाण है, बल्कि यह भी दिखाता है कि कैसे उन्होंने अपने समय की सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों को अपनी कहानियों में शामिल किया. उनकी कृतियों में उनके गहन अवलोकन और मानवीय संवेदनाओं की गहरी समझ झलकती है.

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अभिनेत्री देविका रानी

देविका रानी भारतीय सिनेमा की एक प्रारंभिक अभिनेत्री थीं, जिन्हें भारतीय फिल्म जगत की पहली महिला सुपरस्टार के रूप में माना जाता है. उनका जन्म 30 मार्च 1908 को हुआ था और उनका निधन 9 मार्च 1994 को हुआ. देविका रानी ने अपने कैरियर की शुरुआत 1930 के दशक में की थी और वे हिमांशु राय के साथ मिलकर बॉम्बे टॉकीज एक प्रमुख फिल्म प्रोडक्शन कंपनी की सह-स्थापना करने वाली महिला थीं.

देविका रानी ने कई यादगार फिल्मों में काम किया, जिनमें से “अछूत कन्या” (1936) सबसे प्रसिद्ध है. इस फिल्म में उन्होंने अशोक कुमार के साथ अभिनय किया था, और यह फिल्म उस समय की सामाजिक वर्जनाओं पर एक मजबूत टिप्पणी थी. उन्हें उनकी खूबसूरती, अभिनय कौशल और उत्कृष्ट डिक्शन के लिए सराहा गया था.

देविका रानी ने अपने कैरियर के दौरान कई बार बॉम्बे टॉकीज के प्रोडक्शन और डिजाइन के पहलुओं में भी योगदान दिया. उनके योगदान ने भारतीय सिनेमा की दिशा और दशा को प्रभावित किया. उन्हें उनकी सेवाओं के लिए ‘पद्म श्री’ सम्मान से भी नवाजा गया था.

देविका रानी की विरासत भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक महत्वपूर्ण योगदान के रूप में याद की जाती है. उनका काम और जीवन आज भी नई पीढ़ी के कलाकारों और फिल्म निर्माताओं के लिए प्रेरणा का स्रोत है.

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अभिनेता नागेश कुकुनूर

नागेश कुकुनूर एक भारतीय फिल्म निर्देशक, पटकथा लेखक, और अभिनेता हैं जो मुख्य रूप से हिंदी और तेलुगु सिनेमा में अपने काम के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत 1998 में फिल्म “हैदराबाद ब्लूज़” के साथ की थी, जिसने भारतीय सिनेमा में स्वतंत्र फिल्म निर्माण की एक नई लहर को प्रेरित किया.

नागेश कुकुनूर की फिल्में अक्सर सामाजिक मुद्दों, व्यक्तिगत संघर्षों और मानवीय संवेदनाओं की गहरी खोज पर केंद्रित होती हैं. उनके निर्देशन में बनी कुछ प्रमुख फिल्मों में “रॉकफोर्ड” (1999), “इकबाल” (2005), “डोर” (2006), और “आशायें” (2010) शामिल हैं. इन फिल्मों ने न केवल दर्शकों का दिल जीता, बल्कि समीक्षकों से भी उच्च प्रशंसा प्राप्त की.

” इकबाल ” जो कि एक बहरे और गूंगे युवा क्रिकेटर की कहानी है, विशेष रूप से लोकप्रिय हुई और इसे व्यापक रूप से सराहा गया. इस फिल्म ने सपनों को सच करने की क्षमता और अडिग दृढ़ संकल्प की शक्ति का संदेश दिया.

नागेश कुकुनूर ने अपने फिल्म निर्माण में विविधता और नवाचार के लिए भी पहचाने जाते हैं. उन्होंने अपनी कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया है, जिससे उनकी बहुमुखी प्रतिभा का पता चलता है. उनकी फिल्में भारतीय सिनेमा में गुणवत्तापूर्ण सामग्री और विचारशील कथानकों के लिए एक मानक स्थापित करती हैं.

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पटकथा लेखक अभिषेक चौबे

अभिषेक चौबे भारतीय सिनेमा में एक पटकथा लेखक और फिल्म निर्देशक हैं, जो अपनी गहरी और जटिल कहानियों के लिए प्रसिद्ध हैं. उन्होंने मुख्य रूप से हिंदी फिल्मों में काम किया है और उन्हें उनकी उत्कृष्ट पटकथा और निर्देशन के लिए व्यापक रूप से सराहा गया है.

अभिषेक चौबे की फिल्में अक्सर भारतीय समाज के कम चर्चित पहलुओं को उजागर करती हैं, और उनकी कहानियाँ मानवीय संघर्षों, नैतिक दुविधाओं, और सामाजिक विषयों का गहराई से अन्वेषण करती हैं.

चौबे ने अपने कैरियर की शुरुआत विशाल भारद्वाज के सहायक के रूप में की थी, और “मकड़ी” (2002) और “ओमकारा” (2006) जैसी फिल्मों में अपने योगदान के लिए पहचाने गए. उनके निर्देशन में बनी पहली फिल्म “इश्किया” (2010) थी, जिसे समीक्षकों और दर्शकों दोनों से खूब सराहना मिली. इस फिल्म के बाद उन्होंने “डेढ़ इश्किया” (2014), “उड़ता पंजाब” (2016), और “सोनचिरैया” (2019) जैसी फिल्में निर्देशित की. जिसके बाद उन्हें भारतीय सिनेमा में एक महत्वपूर्ण निर्देशक के रूप में स्थापित किया.

अभिषेक चौबे की फिल्में अक्सर समाज के गहरे और विवादास्पद मुद्दों को छूती हैं, और वे अपने पात्रों की मानवीयता को बहुत ही ईमानदारी और संवेदनशीलता के साथ पेश करते हैं. उनका काम न केवल मनोरंजन प्रदान करता है, बल्कि दर्शकों को सोचने पर भी मजबूर करता है, जो उन्हें आधुनिक भारतीय सिनेमा के सबसे प्रमुख और प्रतिभाशाली फिल्मकारों में से एक बनाता है.

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गुरु हर किशन सिंह

सिख धर्म के आठवें गुरु, ‘गुरु हर कृष्ण सिंह’ सिखों के सातवें गुरु, ‘गुरु हर राय सिंह’ के सबसे छोटे पुत्र थे. ‘गुरु हर कृष्ण’ का जन्म 7 जुलाई 1656 को हुआ था. महज पांच साल की उम्र में उन्होंने गुरुगद्दी संभाली थी, जिससे वे सिख गुरुओं में सबसे युवा गुरु बन गए.

‘गुरु हर कृष्ण’ का शासनकाल 1661-64 तक रहा जबकि, उनका निधन मात्र 8 वर्ष की उम्र में हो गया. उनके छोटे जीवनकाल के बावजूद ‘गुरु हर कृष्ण’ को उनकी अद्भुत आध्यात्मिकता, दयालुता, और लोगों की सेवा के लिए उनके अथक प्रयासों के लिए याद किया जाता है. उन्होंने अपने छोटे से जीवन में भी समाज में एकता और भाईचारे की भावना को बढ़ावा दिया.

उनके शासनकाल में दिल्ली में चेचक की महामारी फैली थी. ‘गुरु हर कृष्ण’ ने बीमारी के प्रकोप के दौरान लोगों की सेवा की. ‘ गुरु हर कृष्ण ’ को चेचक की बीमारी में आशीर्वाद देने के लिए भी याद किया जाता है. यह कहा जाता है कि, उनकी यह सेवा ही उनके निधन का कारण बनी, क्योंकि उन्होंने खुद चेचक की बीमारी को प्राप्त कर लिया था.

गुरु हर कृष्ण की मृत्यु के समय, उन्होंने “बाबा बकाले” कहकर अपने उत्तराधिकारी का संकेत दिया, जिससे गुरु तेग बहादुर सिंह को सिखों के नौवें गुरु के रूप में पहचाना गया. गुरु हर कृष्ण की याद में, दिल्ली में गुरुद्वारा बांगला साहिब का निर्माण किया गया है, जो उनकी सेवा और समर्पण का प्रतीक है.

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गीतकार आनंद बख्शी

आनंद बख्शी भारतीय सिनेमा के एक गीतकार थे, जिन्होंने हिंदी फिल्म उद्योग में अपने योगदान के लिए व्यापक पहचान प्राप्त की. उनका जन्म 21 जुलाई 1930 को रावलपिंडी में हुआ था (अब पाकिस्तान में) और उनका निधन 30 मार्च 2002 को हुआ. बख्शी ने अपने लगभग पांच दशकों के कैरियर में 3500 से अधिक गाने लिखे, जो कि विभिन्न शैलियों और विषयों को समेटे हुए हैं.

आनंद बख्शी ने 1958 में फिल्म “भला आदमी” के साथ अपने गीतकार के रूप में कैरियर की शुरुआत की, लेकिन उन्हें पहचान 1965 में आई फिल्म “हिमालय की गोद में” के गीतों से मिली. उनके लिखे गीतों में जीवन के विभिन्न पहलुओं का चित्रण मिलता है, जिसमें प्रेम, दर्द, खुशी, और उत्साह शामिल हैं.

आनंद बख्शी के कुछ सबसे प्रसिद्ध गीतों में “दो लफ्जों की है दिल की कहानी”, “मेरे मेहबूब कयामत होगी”, “छिंगारी कोई भड़के”, “ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे”, और “तुझे देखा तो ये जाना सनम” शामिल हैं. उनके गीतों ने न केवल फिल्मों की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, बल्कि भारतीय संगीत की दुनिया में भी उनका एक अमिट स्थान बनाया.

आनंद बख्शी के योगदान को फिल्म उद्योग में उनके द्वारा जीते गए कई पुरस्कारों और सम्मानों से मान्यता प्राप्त है. उनके गीत आज भी भारतीय संगीत प्रेमियों के बीच लोकप्रिय हैं. उनके गीतों की अनूठी शैली और गहराई ने उन्हें समय के साथ एक कालजयी गीतकार के रूप में स्थापित किया है.

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साहित्यकार मनोहर श्याम जोशी

मनोहर श्याम जोशी एक भारतीय साहित्यकार थे, जिनका जन्म 9 अगस्त 1933 को अजमेर, राजस्थान में हुआ था और निधन 30 मार्च 2006 को हुआ. उन्होंने हिंदी साहित्य में अपने उपन्यासों, कहानियों, नाटकों और पत्रकारिता के माध्यम से महत्वपूर्ण योगदान दिया. जोशी विशेष रूप से अपने उपन्यासों “कसप”, “हरिया हरक्यूलिस की हैरानी”, और “कुरुक्षेत्र” के लिए जाने जाते हैं.

मनोहर श्याम जोशी ने अपने लेखन में सामाजिक विषयों और मानवीय संवेदनाओं का गहराई से अन्वेषण किया. उनका उपन्यास “कसप” एक युवा व्यक्ति की प्रेम और वासना की कहानी है, जबकि “हरिया हरक्यूलिस की हैरानी” में ग्रामीण भारत के जीवन का चित्रण किया गया है. “कुरुक्षेत्र” एक ऐसे परिवार की कहानी है जो भारतीय राजनीति के बदलते परिदृश्य में अपनी जड़ें तलाशता है.

जोशी ने टेलीविजन के लिए भी महत्वपूर्ण लेखन किया, जिनमें से “हम लोग”, “बुनियाद” और “मुंगेरीलाल के हसीन सपने” प्रमुख हैं. “हम लोग”, भारतीय टेलीविजन पर प्रसारित होने वाला पहला सोप ओपेरा था, जिसने भारतीय टेलीविजन दर्शकों के बीच एक नई लहर का सूत्रपात किया.

मनोहर श्याम जोशी का लेखन काल्पनिक और वास्तविकता के बीच की सीमाओं को धुंधला कर देता है, और उनकी कहानियां अक्सर गहरे मानवीय अनुभवों और सामाजिक समस्याओं को उजागर करती हैं. उनके लेखन में व्यंग्य और हास्य का भी सूक्ष्म मिश्रण है, जो उन्हें हिंदी साहित्य में एक अद्वितीय स्थान प्रदान करता है. उनके योगदान को साहित्य और टेलीविजन दोनों ही क्षेत्रों में व्यापक रूप से सराहा गया है.

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