साहित्यकार श्रद्धाराम शर्मा
साहित्यकार श्रद्धाराम शर्मा, जिन्हें श्रद्धानंद भी कहा जाता है, 19वीं शताब्दी के प्रसिद्ध भारतीय लेखक, समाज सुधारक और संगीतकार थे. उनका जन्म 30 सितम्बर 1837 में पंजाब के लुधियाना जिले के जगरांव में हुआ था. वे भारतीय साहित्य और भक्ति आंदोलन में एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व थे, जिन्हें उनके रचित भजन “ओम जय जगदीश हरे” के लिए सबसे अधिक जाना जाता है, जो आज भी भारतीय धार्मिक समारोहों में एक प्रमुख भक्ति गीत के रूप में गाया जाता है.
श्रद्धाराम शर्मा ने न केवल धार्मिक भजनों की रचना की, बल्कि वे समाज सुधार के भी प्रबल समर्थक थे. उन्होंने आर्य समाज के सिद्धांतों का पालन करते हुए धार्मिक अंधविश्वासों और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ काम किया. उन्होंने अपने लेखन और गीतों के माध्यम से लोगों को शिक्षित करने और सामाजिक जागरूकता फैलाने का प्रयास किया.
उनके प्रमुख योगदान में ‘सत्य धर्म विद्यावली’ जैसे साहित्यिक ग्रंथ शामिल हैं, जो धार्मिक और नैतिक शिक्षाओं पर आधारित थे. श्रद्धाराम शर्मा का लेखन और भक्ति संगीत भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव डालने वाला था, और उनके गीत आज भी विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों में गाए जाते हैं. श्रद्धाराम शर्मा का निधन 24 जून, 1881 को लाहौर में हुआ था लेकिन उनके भजन और साहित्यिक योगदान आज भी लोगों को प्रेरित करते हैं.
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अभिनेता मदन पुरी
मदन पुरी भारतीय फिल्म उद्योग के एक प्रमुख अभिनेता थे, जो मुख्य रूप से हिंदी सिनेमा में अपने खलनायक और चरित्र भूमिकाओं के लिए जाने जाते हैं. उनका जन्म 30 सितम्बर 1915 में पंजाब के नवांशहर (अब शाहिद भगत सिंह नगर) में हुआ था. वे बॉलीवुड के प्रतिष्ठित अभिनेता अमरीश पुरी के बड़े भाई थे.
मदन पुरी ने वर्ष 1940 के दशक में अपने कैरियर की शुरुआत की और करीब 40 वर्षों तक हिंदी फिल्मों में सक्रिय रहे. उन्होंने 400 से अधिक फिल्मों में काम किया, और उन्हें विभिन्न प्रकार की भूमिकाएँ निभाने के लिए जाना जाता था, जिनमें खलनायक, धूर्त व्यापारी, भ्रष्ट अधिकारी, और सहायक चरित्र भूमिकाएं शामिल थीं.
यादगार फिल्में: – “देवर” (1966), “कटी पतंग” (1970), “अमर प्रेम” (1972), “जंजीर” (1973), “बॉबी” (1973), “मजबूर” (1974).
मदन पुरी की अभिनय शैली बहुत स्वाभाविक और प्रभावशाली थी, जिससे उन्होंने हिंदी सिनेमा में एक अलग पहचान बनाई. उन्हें मुख्य रूप से नकारात्मक भूमिकाओं में हीरो के विरोधी के रूप में देखा गया, लेकिन वे कभी भी एक स्टीरियोटाइप खलनायक नहीं बने. उनकी भूमिकाएँ अक्सर जटिल और गहरी होती थीं, जिसमें वे अपनी भावनाओं को बड़ी कुशलता से व्यक्त करते थे.
मदन पुरी ने वर्ष 1980 के दशक तक फिल्मों में काम किया और उनका निधन 13 जनवरी 1985 को हुआ. उनकी विरासत आज भी भारतीय सिनेमा के इतिहास में अमूल्य मानी जाती है.
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निर्माता एवं निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी
ऋषिकेश मुखर्जी भारतीय सिनेमा के महान निर्माता, निर्देशक और पटकथा लेखक थे. वे अपनी साधारण जीवन की कहानियों, गहरे मानवीय संवेदनाओं और हल्के-फुल्के हास्य के साथ सामाजिक संदेश देने वाली फिल्मों के लिए प्रसिद्ध थे. उन्हें हिंदी सिनेमा में “मध्यवर्गीय जीवन” को चित्रित करने वाले सबसे महत्वपूर्ण निर्देशकों में से एक माना जाता है.
ऋषिकेश मुखर्जी का जन्म 30 सितंबर 1922 को कोलकाता (तब कलकत्ता) में हुआ था. उनकी प्रारंभिक शिक्षा विज्ञान और गणित में हुई थी, लेकिन बाद में उन्होंने फिल्मी दुनिया की ओर रुख किया. उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत एक फिल्म संपादक और सहायक निर्देशक के रूप में की और बिमल रॉय जैसे प्रतिष्ठित फिल्मकार के साथ काम किया.
ऋषिकेश मुखर्जी ने वर्ष 1957 में अपनी पहली फिल्म “मुसाफ़िर” का निर्देशन किया, लेकिन उन्हें वास्तविक पहचान वर्ष 1959 में आई फिल्म “अनाड़ी” से मिली, जिसमें राज कपूर और नूतन ने प्रमुख भूमिकाएँ निभाईं. इसके बाद उन्होंने हिंदी सिनेमा को एक से बढ़कर एक उत्कृष्ट फिल्में दीं, जो आज भी भारतीय सिनेमा के इतिहास में अद्वितीय मानी जाती हैं.
प्रमुख फ़िल्में: –
“अनुपमा” (1966): – एक भावनात्मक और सुंदर कहानी, जिसमें धर्मेंद्र और शर्मिला टैगोर ने अभिनय किया.
“आनंद” (1971): – एक क्लासिक फिल्म जिसमें राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन ने मुख्य भूमिकाएं निभाईं. यह फिल्म मृत्यु और जीवन के बीच के संबंधों को बड़े मार्मिक तरीके से प्रस्तुत करती है.
“गोलमाल” (1979): – एक हास्य प्रधान फिल्म, जिसमें उत्पल दत्त और अमोल पालेकर ने बेहतरीन अभिनय किया.
“चुपके चुपके” (1975): – एक हल्की-फुल्की कॉमेडी फिल्म, जिसमें धर्मेंद्र, शर्मिला टैगोर, और अमिताभ बच्चन मुख्य भूमिकाओं में थे.
“सत्यकाम” (1969): – एक गंभीर सामाजिक फिल्म, जो धर्म और ईमानदारी के सवालों को उठाती है, इसमें धर्मेंद्र की बेहतरीन अदाकारी देखने को मिली.
“बावर्ची” (1972): – एक साधारण, लेकिन गहरे मानवीय मूल्यों पर आधारित फिल्म, जिसमें राजेश खन्ना ने मुख्य भूमिका निभाई.
ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों की विशेषता यह थी कि वे अत्यधिक ग्लैमर और नाटकीयता से दूर थीं. उनकी कहानियों में आम आदमी के जीवन की चुनौतियाँ, परिवारिक मूल्यों और संबंधों की गहराइयाँ दिखाई जाती थीं. वे हल्के हास्य, संवेदनशीलता और गंभीर सामाजिक मुद्दों का अनूठा मिश्रण पेश करते थे. उनके काम ने हिंदी सिनेमा में एक नया आयाम जोड़ा, जिसे “मध्यवर्गीय सिनेमा” कहा जा सकता है.
ऋषिकेश मुखर्जी को भारतीय सिनेमा में उनके योगदान के लिए कई पुरस्कार मिले, जिनमें प्रमुख हैं: –
दादा साहेब फाल्के पुरस्कार (1999): – भारतीय सिनेमा में उनके जीवनभर के योगदान के लिए.
पद्म विभूषण (2001): – देश के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान से सम्मानित किया गया.
फिल्मफेयर और राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों सहित कई अन्य सम्मान भी उन्हें उनके उत्कृष्ट निर्देशन के लिए मिले.
ऋषिकेश मुखर्जी का निधन 27 अगस्त 2006 को मुंबई में हुआ. उनका निधन भारतीय सिनेमा के लिए एक बड़ी क्षति थी, लेकिन उनकी फिल्में और उनका सिनेमा के प्रति दृष्टिकोण आज भी सिनेमा प्रेमियों के बीच जीवित हैं. ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों ने भारतीय दर्शकों के दिलों में एक खास जगह बनाई और वे आज भी हिंदी सिनेमा के सबसे प्यारे और सम्मानित निर्देशकों में से एक माने जाते हैं.
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पार्श्व गायक शान
शान (शांतनु मुखर्जी) भारतीय संगीत उद्योग के प्रमुख पार्श्व गायकों में से एक हैं. उनका जन्म 30 सितंबर 1972 को मुंबई में हुआ था. शान न केवल हिंदी सिनेमा के गायक हैं, बल्कि उन्होंने बंगाली, कन्नड़, मराठी, तेलुगु, तमिल, गुजराती, और उर्दू जैसी विभिन्न भाषाओं में भी गाने गाए हैं. उनके नाम से कई हिट गाने जुड़े हैं, जो आज भी संगीत प्रेमियों के बीच लोकप्रिय हैं.
शान का संगीत के प्रति लगाव बचपन से था क्योंकि उनके पिता मानस मुखर्जी एक संगीतकार थे और उनकी बहन सागरिका भी एक गायिका हैं. शान के दादा, जाहर मुखर्जी, एक गीतकार थे. शान के पिता के निधन के बाद, उनकी मां ने पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाया और उन्होंने और सागरिका ने मिलकर गायन कैरियर की शुरुआत की.
शान ने अपने कैरियर की शुरुआत विज्ञापनों में जिंगल्स गाकर की. बाद में उन्होंने अपनी बहन सागरिका के साथ एक एल्बम निकाला, जिससे उनकी गायन प्रतिभा सामने आई. शान का पहला बड़ा ब्रेक 1990 के दशक में आया, जब उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिए गाना शुरू किया. उनका पहला लोकप्रिय गाना “लवोलॉजी” था. शान की आवाज़ में मिठास और नयापन है, जिसने उन्हें 1990 – 2000 के दशक में सबसे प्रमुख गायकों में से एक बना दिया.
प्रसिद्ध गाने: –
“तन्हा दिल” (तन्हा दिल, 2000): – शान का यह सोलो एल्बम बहुत सफल रहा और उन्हें बड़ी पहचान दिलाई.
“चाँद सिफारिश” (फना, 2006): – इस गाने ने उन्हें कई पुरस्कार दिलाए.
“जब से तेरे नैना” (सांवरिया, 2007): – इस गाने ने श्रोताओं के दिलों में एक खास जगह बनाई.
“मुसु मुसु हासी” (प्यार में कभी कभी, 1999).
“कुछ तो हुआ है” (कल हो ना हो, 2003).
“माय दिल गोज़ म्म” (दिल मांगे मोर, 2004).
“रॉक एन रोल सोनीये” (कभी अलविदा ना कहना, 2006).
शान ने रोमांटिक, दुखभरे, और मस्ती भरे सभी तरह के गाने गाए हैं. उनकी आवाज़ का एक अलग ही प्रभाव है, जो हर गाने को खास बना देती है.
शान न सिर्फ गायक हैं, बल्कि वे एक होस्ट और म्यूजिक डायरेक्टर भी हैं. उन्होंने कई म्यूजिक रियलिटी शोज़ जैसे “सा रे गा मा पा” और “द वॉयस इंडिया” में होस्ट और जज के रूप में काम किया. उनकी सहज और मृदु व्यक्तित्व ने उन्हें श्रोताओं के बीच और भी लोकप्रिय बना दिया है.
शान को उनके गायन के लिए कई पुरस्कारों से नवाजा गया है, जिनमें प्रमुख हैं: – फिल्मफेयर पुरस्कार (सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक के लिए), आईफा पुरस्कार, जी सिने अवार्ड्स, कई अन्य क्षेत्रीय और राष्ट्रीय संगीत पुरस्कार, शान ने राधिका मुखर्जी से शादी की है, और उनके दो बच्चे हैं. शान अपने पारिवारिक जीवन और संगीत कैरियर को सफलतापूर्वक संतुलित करते हैं.
शान ने न केवल पार्श्व गायन किया है, बल्कि उनके द्वारा गाए गए इंडी-पॉप गाने और एल्बम भी लोकप्रिय रहे हैं. उनका एल्बम “तन्हा दिल” आज भी श्रोताओं के बीच पसंदीदा है. इसके अलावा, उन्होंने बच्चों के लिए भी गीत गाए हैं और नए गायकों को मंच देने के लिए काम किया है. शान की मधुर आवाज़, मृदुभाषी व्यक्तित्व और विविधतापूर्ण गायकी ने उन्हें भारतीय संगीत जगत का एक अमूल्य हिस्सा बना दिया है.
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अभिनेत्री दीपती भटनागर
दीप्ति भटनागर एक भारतीय अभिनेत्री, मॉडल, और टेलीविजन प्रस्तोता हैं, जिन्होंने 1990 – 2000 के दशक में हिंदी सिनेमा में अपना कैरियर बनाया. उनका जन्म 30 सितंबर 1967 को मेरठ, उत्तर प्रदेश में हुआ था. वे अपनी सुंदरता और आकर्षक व्यक्तित्व के लिए जानी जाती हैं, और हिंदी फिल्मों के अलावा, उन्होंने तेलुगु और तमिल फिल्मों में भी काम किया है.
दीप्ति भटनागर ने अपने कैरियर की शुरुआत मॉडलिंग से की थी. उन्होंने 1990 में “Eve’s Weekly Miss India” प्रतियोगिता में हिस्सा लिया, जहाँ वे टॉप 5 में शामिल हुईं. इसके बाद उन्होंने विभिन्न फैशन अभियानों में काम किया और कई विज्ञापन किए. उनकी मॉडलिंग की सफलता ने उन्हें फिल्मों में आने का अवसर दिया. दीप्ति भटनागर ने अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत 1995 में फिल्म “राम शास्त्र” से की. इसके बाद उन्होंने हिंदी फिल्मों में काम किया और दक्षिण भारतीय सिनेमा में भी पहचान बनाई.
प्रमुख फ़िल्में: –
“पहला नशा” (1993): – यह उनकी पहली फिल्म थी, जिसमें उन्होंने एक कैमियो किया था.
“राम शास्त्र” (1995): – यह फिल्म उनके कैरियर की शुरुआत थी, जिसमें उन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई.
“राजा” (1995): – माधुरी दीक्षित और संजय कपूर की इस सुपरहिट फिल्म में दीप्ति भटनागर ने सहायक भूमिका निभाई.
“प्यार इश्क और मोहब्बत” (2001): – इस फिल्म में अर्जुन रामपाल, सुनील शेट्टी और आफताब शिवदासानी के साथ उन्होंने काम किया.
“बॉर्डर” (1997): – इस बहुचर्चित फिल्म में दीप्ति ने एक छोटी, लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
इसके अलावा, उन्होंने तेलुगु और तमिल फिल्मों में भी काम किया और इन फिल्मों में भी अपने अभिनय का जौहर दिखाया. दीप्ति भटनागर ने फिल्मों के अलावा टेलीविजन में भी काम किया. वे धार्मिक और यात्रा से जुड़ी कार्यक्रमों की प्रस्तोता के रूप में जानी जाती हैं. उन्होंने “यात्रा” नामक एक लोकप्रिय धार्मिक और यात्रा शो को होस्ट किया, जिसमें वे भारत के प्रसिद्ध तीर्थस्थलों और पवित्र स्थानों के बारे में जानकारी देती थीं. इसके अलावा उन्होंने “मुसाफिर हूँ यारों” नामक यात्रा शो की भी मेजबानी की, जिसमें उन्होंने दुनिया भर के विभिन्न पर्यटन स्थलों का दौरा किया और उनकी खासियतें बताईं.
दीप्ति भटनागर ने 1998 में राहुल नामक व्यक्ति से शादी की, जो उनके प्रोडक्शन हाउस से जुड़े थे. उनके दो बच्चे हैं और वे अपने पारिवारिक जीवन को भी प्राथमिकता देती हैं. दीप्ति ने अभिनय और मॉडलिंग के अलावा एक सफल प्रोड्यूसर के रूप में भी काम किया है. उन्होंने यात्रा और यात्रा आधारित शो प्रोड्यूस किए, जो दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय हुए. उनका प्रोडक्शन हाउस मुख्य रूप से ट्रैवल शोज़ के निर्माण के लिए प्रसिद्ध है.
दीप्ति भटनागर अब फिल्मों में ज्यादा सक्रिय नहीं हैं, लेकिन वे टेलीविजन और ट्रैवल शो के माध्यम से अपनी मौजूदगी बनाए रखती हैं. उनका योगदान न केवल भारतीय फिल्म और टेलीविजन उद्योग में है, बल्कि उन्होंने यात्रा और पर्यटन के क्षेत्र में भी अपनी एक खास पहचान बनाई है. दीप्ति भटनागर अपने अभिनय और ग्लैमर से 1990 के दशक की एक चर्चित अभिनेत्री रहीं, और वे अब भी भारतीय मनोरंजन जगत में अपनी एक अलग पहचान रखती हैं.
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खिलाड़ी दीपा मलिक
दीपा मलिक एक भारतीय पैरालंपिक एथलीट हैं, जो विशेष रूप से शॉट पुट, जेवेलिन थ्रो और तैराकी में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए जानी जाती हैं. वह भारत की पहली महिला पैरालंपिक पदक विजेता हैं, जिन्होंने 2016 के रियो पैरालंपिक खेलों में शॉट पुट (F-53 वर्ग) में सिल्वर मेडल जीतकर इतिहास रचा. दीपा मलिक सिर्फ एक एथलीट ही नहीं, बल्कि हिम्मत, साहस, और प्रेरणा की मिसाल हैं, जिन्होंने अपने शारीरिक चुनौतियों के बावजूद अपनी उपलब्धियों से देश का नाम रोशन किया है.
दीपा मलिक का जन्म 30 सितंबर 1970 को हरियाणा के भैंसवाल गाँव में हुआ था. उनके पिता, कर्नल बीके नागपाल, भारतीय सेना में थे, इसलिए दीपा का बचपन एक अनुशासित माहौल में गुजरा. उनकी शादी भी एक आर्मी अधिकारी कर्नल बिक्रम सिंह से हुई. सिर्फ 29 साल की उम्र में दीपा मलिक को स्पाइनल ट्यूमर हो गया, जिसके कारण उनकी 31 सर्जरी हुईं और उनकी कमर के नीचे का हिस्सा पूरी तरह से लकवाग्रस्त हो गया. इसके बाद दीपा व्हीलचेयर पर आ गईं। इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और अपने जीवन को सकारात्मक दिशा में मोड़ दिया.
दीपा मलिक ने अपने जीवन में चुनौतियों का सामना करते हुए खेलों में अपने कैरियर की शुरुआत की. वह शॉट पुट, जेवेलिन थ्रो, तैराकी, और बाइकिंग में रुचि रखती थीं. अपनी शारीरिक चुनौतियों के बावजूद उन्होंने खेलों में अपनी एक पहचान बनाई.
प्रमुख उपलब्धियाँ: –
रियो पैरालंपिक (2016): – शॉट पुट (F-53 वर्ग) में सिल्वर मेडल जीतकर दीपा मलिक भारत की पहली महिला पैरालंपिक पदक विजेता बनीं.
एशियाई पैरा गेम्स: – दीपा ने एशियाई पैरा खेलों में भी कई पदक जीते हैं। 2018 में उन्होंने शॉट पुट में गोल्ड मेडल जीता.
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खेल: – उन्होंने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई शॉट पुट और जेवेलिन थ्रो प्रतियोगिताओं में पदक जीते हैं.
पैरालंपिक एशियन गेम्स: – उन्होंने जेवेलिन थ्रो और शॉट पुट में कई एशियन और वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाए हैं.
दीपा मलिक ने तैराकी में भी कई प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया और अपने नाम पदक किए. इसके अलावा, वह बाइकिंग की भी शौकीन हैं और उन्होंने 1700 किलोमीटर तक की यात्रा भी की है. दीपा मलिक सिर्फ एक एथलीट नहीं हैं, बल्कि वह एक प्रेरक वक्ता भी हैं. वह विकलांगता और शारीरिक चुनौतियों से जूझ रहे लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं. उन्होंने कई मंचों पर अपनी कहानी साझा की है और समाज में सकारात्मक बदलाव लाने का काम किया है. दीपा मलिक विकलांग व्यक्तियों के लिए काम करने वाले विभिन्न संगठनों से जुड़ी हुई हैं.
दीपा मलिक को उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है: –
पद्मश्री (2017): – भारत सरकार ने दीपा मलिक को देश के चौथे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्मश्री से सम्मानित किया.
राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार (2019): – दीपा मलिक को देश के सर्वोच्च खेल सम्मान से नवाजा गया.
अर्जुन पुरस्कार (2012): – खेलों में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए उन्हें अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
दीपा मलिक भारतीय पैरालंपिक समिति (Paralympic Committee of India) की अध्यक्ष हैं और भारतीय पैरा-खिलाड़ियों के हितों के लिए काम कर रही हैं. उनके नेतृत्व में भारत के पैरा-खिलाड़ी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और भी बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं.
दीपा मलिक की कहानी साहस, दृढ़ता और आत्मविश्वास की एक मिसाल है. उन्होंने अपनी शारीरिक सीमाओं को कभी भी अपने सपनों के आड़े नहीं आने दिया. उनकी ज़िंदगी और कैरियर सभी के लिए प्रेरणा है कि कड़ी मेहनत और आत्मविश्वास से किसी भी चुनौती का सामना किया जा सकता है.
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अभिनेत्री बिदिता बाग़
बिदिता बाग एक भारतीय अभिनेत्री और मॉडल हैं, जो मुख्य रूप से हिंदी सिनेमा में अपने काम के लिए जानी जाती हैं. वह अपने बोल्ड और प्रभावशाली किरदारों के लिए प्रसिद्ध हैं. बिदिता ने इंडी फिल्मों से लेकर व्यावसायिक सिनेमा तक विभिन्न प्रकार की फिल्मों में काम किया है, और उनकी भूमिकाओं में सामाजिक मुद्दों को प्रमुखता से चित्रित किया गया है.
बिदिता बाग का जन्म 30 सितंबर 1991 को पश्चिम बंगाल में एक बंगाली परिवार में हुआ. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा कोलकाता के बिद्यासागर कॉलेज से पूरी की और इतिहास में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। बचपन से ही बिदिता का झुकाव कला और नाटक की ओर था, लेकिन उनका मॉडलिंग और अभिनय कैरियर कॉलेज के दिनों में ही शुरू हो गया था.
बिदिता ने अपने कैरियर की शुरुआत एक मॉडल के रूप में की थी. उन्होंने विभिन्न विज्ञापनों और फैशन अभियानों में काम किया. वह कई प्रमुख ब्रांड्स के लिए मॉडलिंग कर चुकी हैं और उनकी प्राकृतिक सुंदरता और आत्मविश्वास ने उन्हें मॉडलिंग की दुनिया में एक पहचान दिलाई. वह फेयर एंड लवली, वीआईपी बैग्स, और कॉलेज केम्पस जैसे बड़े ब्रांड्स के विज्ञापनों में नजर आईं. बिदिता ने अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत इंडी फिल्मों से की और धीरे-धीरे मुख्यधारा की फिल्मों में भी अपनी पहचान बनाई.
प्रमुख फिल्मों: –
“उड़नचू” (2015): – इस फिल्म में उन्होंने अपना अभिनय कौशल दिखाया और इंडी सिनेमा में अपनी एक जगह बनाई.
“बाबूमोशाय बंदूकबाज़” (2017): – नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी के साथ उनकी इस फिल्म ने बिदिता को व्यापक पहचान दिलाई. इस फिल्म में उन्होंने एक बोल्ड और चुनौतीपूर्ण भूमिका निभाई, जो उनके कैरियर के लिए मील का पत्थर साबित हुई.
“द शोल्डर”: – यह फिल्म कान्स फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित हुई थी, जिसमें बिदिता के अभिनय की सराहना की गई. यह एक सामाजिक मुद्दे पर आधारित फिल्म थी, जिसमें उन्होंने एक महिला के दर्द और संघर्ष को बखूबी चित्रित किया.
“रक्तरहस्य”: – इस फिल्म में उन्होंने एक दमदार किरदार निभाया, जिसमें उनके अभिनय को क्रिटिक्स और दर्शकों दोनों से सराहना मिली.
बिदिता बाग अपने अभिनय में गहराई और ईमानदारी लाने के लिए जानी जाती हैं. वे उन अभिनेत्रियों में से हैं, जो कठिन और जटिल भूमिकाओं को निभाने में संकोच नहीं करतीं. उनकी फिल्मों में सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर आधारित विषयों को प्रमुखता से चित्रित किया जाता है.
बिदिता बाग सामाजिक मुद्दों पर भी काफी मुखर रही हैं. उन्होंने महिला सशक्तिकरण, जातिवाद, और लैंगिक समानता जैसे विषयों पर खुलकर बात की है. वे महिलाओं से जुड़े विभिन्न अभियानों और सामाजिक जागरूकता कार्यक्रमों में भी सक्रिय रूप से भाग लेती हैं. फिल्मों के अलावा बिदिता ने वेब सीरीज और डिजिटल मीडिया में भी अपनी पहचान बनाई है. उन्होंने कुछ प्रमुख वेब सीरीज में अभिनय किया है, जिससे उनकी लोकप्रियता में और भी इजाफा हुआ है.
बिदिता बाग आने वाले दिनों में और भी फिल्मों और वेब सीरीज में नजर आने वाली हैं. वह अपने अभिनय कौशल और अलग-अलग प्रकार की भूमिकाओं के लिए जानी जाती हैं और दर्शकों को उनकी अगली फिल्मों का बेसब्री से इंतजार रहता है. बिदिता बाग अपनी कला और अभिनय से हिंदी फिल्म उद्योग में एक सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुकी हैं और अपने बोल्ड और प्रेरणादायक काम के लिए जानी जाती हैं.
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स्वतंत्रता सेनानी रामानन्द चैटर्जी
रामानंद चटर्जी भारत के स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, और संपादक थे. उन्हें भारतीय पत्रकारिता के “भीष्म पितामह” के रूप में जाना जाता है, क्योंकि उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय पत्रकारिता को एक नई दिशा दी और भारतीय राष्ट्रीयता की भावना को जन-जन तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनके संपादन में प्रकाशित पत्रिकाओं और अखबारों ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ जनमत तैयार करने में अहम योगदान दिया.
रामानंद चटर्जी का जन्म 29 मई 1865 को बंगाल के एक साधारण परिवार में हुआ था. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बंगाल में ही पूरी की और बाद में उच्च शिक्षा प्राप्त की. उनकी प्रारंभिक शिक्षा ने ही उनके मन में भारतीय संस्कृति, सभ्यता और राष्ट्रवाद के प्रति गहरी रुचि पैदा की.
रामानंद चटर्जी ने अपना कैरियर एक शिक्षक के रूप में शुरू किया था, लेकिन बाद में वे पत्रकारिता की ओर आकर्षित हुए. उन्होंने कई प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया, जिनमें दो सबसे प्रमुख हैं: –
प्रबासी (1901): – रामानंद चटर्जी ने “प्रबासी” नामक बंगाली पत्रिका की स्थापना की. यह पत्रिका बंगाली समाज और संस्कृति के उत्थान के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित मुद्दों पर भी केंद्रित थी.
मॉडर्न रिव्यू (1907): – चटर्जी ने अंग्रेजी भाषा में “मॉडर्न रिव्यू” नामक पत्रिका की स्थापना की, जो भारत की राष्ट्रीय चेतना और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक बनी. इस पत्रिका ने ब्रिटिश शासन की आलोचना करते हुए भारतीयों को संगठित करने का काम किया. मॉडर्न रिव्यू ने स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं और विचारकों को अपने विचार व्यक्त करने के लिए एक मंच प्रदान किया. इसमें महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, और अन्य प्रमुख नेताओं के लेख प्रकाशित होते थे.
रामानंद चटर्जी अपने लेखों और संपादकीय के माध्यम से ब्रिटिश शासन की नीतियों की कड़ी आलोचना करते थे. उन्होंने पत्रकारिता के जरिए राष्ट्रीय भावना को जाग्रत करने का काम किया. उनके द्वारा संपादित पत्रिकाओं और अखबारों ने भारतीयों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ एकजुटता पैदा की और स्वतंत्रता की भावना को मजबूती दी.
चटर्जी की पत्रकारिता में न केवल राजनीति और समाज की चर्चा होती थी, बल्कि उन्होंने भारत की संस्कृति, कला, साहित्य, और सामाजिक सुधारों को भी प्रमुखता से स्थान दिया. वे भारतीय संस्कृति और उसकी गौरवशाली परंपरा के समर्थक थे और इसे ब्रिटिश प्रभाव से बचाने के लिए सक्रिय रहे.
हालांकि रामानंद चटर्जी ने प्रत्यक्ष रूप से स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा नहीं लिया, लेकिन उनकी लेखनी ने लोगों में राष्ट्रीय भावना और स्वतंत्रता के प्रति उत्साह भरने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. वे महात्मा गांधी और अन्य नेताओं के समर्थक थे, और उनके लेखन ने भारतीय जनता को संगठित करने में मदद की.
ब्रिटिश सरकार ने कई बार उनके लेखों पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की और उन्हें कई बार सेंसरशिप का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपनी लेखनी से कभी समझौता नहीं किया. वे हमेशा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रति समर्पित रहे और अपनी पत्रकारिता के जरिए लोगों में जागरूकता फैलाते रहे.
रामानंद चटर्जी का निधन 30 सितंबर 1943 को कोलकाता में हुआ, लेकिन उनकी पत्रकारिता और उनके विचार आज भी भारतीय पत्रकारिता में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जो योगदान दिया, वह उनके साहसिक और निडर लेखन के माध्यम से हमेशा याद रखा जाएगा.
उनका जीवन और कार्य उन पत्रकारों के लिए एक प्रेरणा है, जो समाज में बदलाव लाने के लिए अपनी लेखनी का इस्तेमाल करते हैं. भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में रामानंद चटर्जी का नाम हमेशा आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है.
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जन्म: –
साहित्यकार गुरुजाडा अप्पाराव: – गुरुजाडा अप्पाराव का जन्म 30 सितंबर 1861 को आन्ध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम क्षेत्र में हुआ था.
निधन:-
कवियित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा: -कवियित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा का निधन 30 सितंबर 1994 को हुआ था.
राजनीतिज्ञ माधव राव सिंधिया: –राजनीतिज्ञ माधव राव सिंधिया का निधन 30 सितंबर 2001 को मैनपुरी में वायुयान दुर्घटना में निधन हुआ था.
अन्य: –
गोलकुंडा किले पर क़ब्जा: – 30 सितंबर 1687 में औरंगजेब ने हैदराबाद के गोलकुंडा के किले पर कब्जा कर लिया था उस समय गोलकुंडा का शासक अबुल हसन कुतुब शाह हुआ करते थे.
लातूर में भयानक भूकंप: – 30 सितंबर 1993 में महाराष्ट्र के लातूर में भयानक भूकंप आया था जिसकी तीव्रता रिक्टर स्केल पर 6.2 दर्ज की गयी थी. इस विनाशकारी भूकंप के कारण 10 हजार से अधिक लोग मारे गए एवं लाखों बेघर हो गए थे.
पार्श्व गायक मन्ना डे: – 30 सितंबर 2009 में पार्श्व गायक मन्ना डे को दादा साहब फाल्के पुरस्कार 2007 के लिए चुना गया था.