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व्यक्ति विशेष

भाग – 182.

नृत्यांगना एवं कोरियोग्राफर अमला शंकर

अमला शंकर (27 जून 1919 – 24 जुलाई 2020) एक प्रतिष्ठित भारतीय नृत्यांगना और कोरियोग्राफर थीं, जिन्होंने भारतीय शास्त्रीय नृत्य में अपनी उल्लेखनीय योगदान के लिए ख्याति प्राप्त की. उनका जन्म 27 जून 1919 को हुआ था और वे प्रसिद्ध नर्तक और कोरियोग्राफर उदय शंकर की पत्नी थीं. अमला शंकर ने अपने जीवनकाल में भारतीय नृत्य को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया और अनेक शिष्यों को प्रशिक्षित किया.

उनकी नृत्य कला की विशिष्ट शैली में भारतीय शास्त्रीय नृत्य के साथ-साथ लोक और आधुनिक नृत्य के तत्वों का मिश्रण था. अमला शंकर ने कई प्रसिद्ध नृत्य नाटिकाओं में अभिनय किया और भारतीय नृत्य को अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी प्रस्तुत किया. उन्होंने ‘कल्पना’ (1948) जैसी फिल्म में भी अभिनय किया, जिसे उनके पति उदय शंकर ने निर्देशित किया था.

अमला शंकर को उनके योगदान के लिए अनेक पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए. उनका निधन 24 जुलाई 2020 को हुआ, लेकिन उनकी विरासत और नृत्य कला की धरोहर आज भी जीवित है.

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पूर्व केंद्रीय गृह सचिव आर. डी. प्रधान

आर. डी. प्रधान एक भारतीय सिविल सेवक थे, जिन्होंने विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया. वे भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) के सदस्य थे और अपने कैरियर के दौरान कई महत्वपूर्ण सरकारी भूमिकाओं में सेवा की.

आर. डी. प्रधान का जन्म 27 जून, 1928 को हुआ था और उनकी मृत्यु 31 जुलाई, 2020 को हुआ.  आर. डी. प्रधान का पूरा नाम राम डी. प्रधान था.

आर. डी. प्रधान ने केंद्रीय गृह सचिव के रूप में कार्य किया। इस भूमिका में, उन्होंने भारत की आंतरिक सुरक्षा और प्रशासनिक मामलों को संभाला। उनकी सेवा के दौरान, उन्होंने कई महत्वपूर्ण नीतियों और कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्रधान ने महाराष्ट्र के राज्यपाल के सचिव के रूप में भी कार्य किया। इस पद पर, उन्होंने राज्य के प्रशासनिक कार्यों की देखरेख की और राज्यपाल को विभिन्न मुद्दों पर सलाह दी.

अपनी सेवानिवृत्ति के बाद, आर. डी. प्रधान ने कई किताबें लिखीं, जिनमें भारतीय राजनीति और प्रशासनिक सुधारों पर आधारित लेख शामिल हैं. उनकी किताबें उनके अनुभवों और विचारों को प्रदर्शित करती हैं और भारतीय प्रशासनिक तंत्र के बारे में गहन जानकारी प्रदान करती हैं.

आर. डी. प्रधान ने अपने कार्यकाल के दौरान अपनी निपुणता और व्यावसायिकता से भारतीय प्रशासनिक सेवा में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया. उनके योगदान को भारतीय प्रशासनिक इतिहास में याद किया जाता है.

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संगीतकार राहुल देव बर्मन

राहुल देव बर्मन, जिन्हें आर. डी. बर्मन या ‘पंचम दा’ के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय फिल्म संगीत के इतिहास में सबसे प्रभावशाली और क्रांतिकारी संगीतकारों में से एक थे. उनका जन्म 27 जून 1939 को कोलकाता में हुआ था और उनका निधन 4 जनवरी 1994 को मुंबई में हुआ. वे प्रसिद्ध संगीतकार सचिन देव बर्मन के पुत्र थे.

राहुल देव बर्मन ने अपने पिता सचिन देव बर्मन से संगीत की शिक्षा प्राप्त की. उन्होंने अली अकबर खान और समता प्रसाद जैसे उस्तादों से शास्त्रीय संगीत का प्रशिक्षण भी लिया.

आर. डी. बर्मन ने 1960 के दशक से लेकर 1990 के दशक तक बॉलीवुड फिल्मों के लिए संगीत तैयार किया. उनके संगीत में पश्चिमी और भारतीय संगीत का मिश्रण देखने को मिलता है. उन्होंने कई हिट गाने दिए, जिनमें महबूबा महबूबा”, “दम मारो दम”, “पिया तू अब तो आजा”, “चुरा लिया है तुमने जो दिल को”, और “तुम आ गए हो” शामिल हैं.

प्रसिद्ध फिल्में: – “तीसरी मंजिल” (1966), “पड़ोसन” (1968),  “कारवां” (1971),  “हरे रामा हरे कृष्णा” (1971),  “शोले” (1975),  “हम किसी से कम नहीं” (1977),  “सनम तेरी कसम” (1982),  “मासूम” (1983) और “1942: ए लव स्टोरी” (1994).

आर. डी. बर्मन ने कई प्रसिद्ध गायक और गायिकाओं के साथ काम किया, जैसे कि किशोर कुमार, लता मंगेशकर, आशा भोसले (जिनसे उन्होंने विवाह भी किया), और मोहम्मद रफी. उनके संगीत में नवीनता और विविधता थी, जिसमें लोक संगीत, जैज़, रॉक, डिस्को और शास्त्रीय संगीत का मिश्रण था.

उन्होंने अपने कैरियर के दौरान कई पुरस्कार जीते, जिनमें फिल्मफेयर अवार्ड्स भी शामिल हैं. उनकी संगीत की धुनें आज भी लोगों के दिलों में बसी हुई हैं और नए संगीतकारों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं.

आर. डी. बर्मन का संगीत न केवल उस समय के लोगों को, बल्कि आज की पीढ़ी को भी मंत्रमुग्ध करता है. उनका योगदान भारतीय फिल्म संगीत के क्षेत्र में अद्वितीय और अमूल्य है.

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पार्श्व गायक नितिन मुकेश

नितिन मुकेश एक भारतीय पार्श्व गायक हैं, जिन्हें हिंदी सिनेमा में उनके योगदान के लिए जाना जाता है. उनका जन्म 27 जून 1950 को हुआ था. वे महान गायक मुकेश के पुत्र हैं, जिन्होंने हिंदी सिनेमा में अपने सुरीले गीतों से दर्शकों का दिल जीत लिया. नितिन मुकेश ने अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाया और अपने अनोखे और मधुर स्वर से संगीत प्रेमियों के दिलों में जगह बनाई.

नितिन मुकेश का संगीत से परिचय बचपन में ही हो गया था. उन्होंने अपने पिता मुकेश से संगीत की बारीकियाँ सीखी. वे अपने पिता के साथ मंच पर भी गाया करते थे और अपने पिता के गानों को सुनकर बड़े हुए.

नितिन मुकेश ने 1970 के दशक में हिंदी फिल्मों में गाना शुरू किया. उन्होंने कई प्रसिद्ध फिल्मों के लिए गीत गाए, जिनमें “साजन”, “तेरे नाम”, “हम साथ-साथ हैं”, “खुदा गवाह”, और “अग्निपथ” शामिल हैं.

प्रसिद्ध गीत: –  “साजन जी घर आए” (कभी खुशी कभी ग़म), “जीवन की भोर” (जीवनधारा), “वो चाँद जसे चहरे” (साजन), “मैं यहाँ तू वहाँ” (बाग़ी) एवं  “तुमसे मिलना बातें करना” (संगीत).

नितिन मुकेश ने दुनिया भर में कंसर्ट और लाइव प्रदर्शन किए हैं, जिसमें उन्होंने अपने पिता के गीतों के साथ-साथ अपने गीत भी गाए हैं. नितिन अपनी मधुर आवाज़ और उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए प्रशंसित हैं.

नितिन मुकेश को उनके संगीत योगदान के लिए कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए हैं. वे अपने पिता की संगीत विरासत को सम्मानित करने और उसे आगे बढ़ाने के लिए निरंतर प्रयासरत रहते हैं. नितिन मुकेश के बेटे, नील नितिन मुकेश, भी एक प्रसिद्ध अभिनेता हैं, जिन्होंने बॉलीवुड में अपनी पहचान बनाई है.

नितिन मुकेश की आवाज में वह मिठास और संवेदना है जो उनके पिता की आवाज में थी, और उन्होंने अपनी अनोखी शैली से भारतीय संगीत प्रेमियों के दिलों में अपनी जगह बनाई है.

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उड़न परी पी. टी. उषा

पी. टी. उषा जिन्हें “उड़न परी” के नाम से जाना जाता है, भारत की सबसे महान एथलीटों में से एक हैं. उनका पूरा नाम पिलावुळ्ळकण्टि तेक्केपरम्पिल उषा है. उनका जन्म 27 जून 1964 को केरल राज्य के कन्नूर जिले के पय्योली गाँव में हुआ था. उषा ने भारतीय खेल इतिहास में अपनी उपलब्धियों के लिए एक अद्वितीय स्थान प्राप्त किया है.

उषा ने बहुत कम उम्र में ही एथलेटिक्स में रुचि दिखानी शुरू कर दी थी. उनके कोच ओ. एम. नम्बियार ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें प्रशिक्षण देना शुरू किया.

वर्ष 1980 में, मात्र 16 वर्ष की उम्र में, उन्होंने मॉस्को ओलंपिक में भाग लिया. वर्ष 1982 के एशियाई खेलों में, उन्होंने 100 मीटर और 200 मीटर स्पर्धाओं में रजत पदक जीते. वर्ष 1984 के लॉस एंजिल्स ओलंपिक में, उषा 400 मीटर बाधा दौड़ में चौथे स्थान पर रहीं, जो कि ओलंपिक में किसी भी भारतीय महिला एथलीट का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन था. वह पदक से मात्र 1/100 सेकंड से चूक गईं.

वर्ष 1986 के सियोल एशियाई खेलों में, उषा ने चार स्वर्ण और एक रजत पदक जीते. उन्होंने 200 मीटर, 400 मीटर, 400 मीटर बाधा दौड़, और 4×400 मीटर रिले में स्वर्ण पदक जीते और 100 मीटर में रजत पदक जीता. उनके उत्कृष्ट प्रदर्शन के कारण, वे “एशियाई खेलों की रानी” कहलाईं.

उनके असाधारण प्रदर्शन के लिए, उन्हें 1983 में अर्जुन पुरस्कार और 1985 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया.

अपने प्रतिस्पर्धी कैरियर के बाद, उषा ने युवा और प्रतिभाशाली एथलीटों को प्रशिक्षण देने के लिए पी. टी. उषा स्कूल ऑफ एथलेटिक्स की स्थापना की. इस स्कूल का उद्देश्य उच्च गुणवत्ता वाले एथलेटिक्स प्रशिक्षण प्रदान करना और देश के लिए भविष्य के चैंपियन तैयार करना है.

पी. टी. उषा का विवाह वी. श्रीनिवासन से हुआ है और उनके एक पुत्र है, जिसका नाम उत्पल है. पी. टी. उषा ने भारतीय एथलेटिक्स में अपनी अद्वितीय क्षमता और समर्पण से एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया है. उनकी उपलब्धियाँ और उनके योगदान भारतीय खेल जगत के लिए प्रेरणा स्रोत हैं.

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महाराजा रणजीत सिंह

महाराजा रणजीत सिंह (1780-1839) भारतीय इतिहास के महानतम शासकों में से एक थे. उन्हें पंजाब के महाराजा के रूप में जाना जाता है और उन्होंने सिख साम्राज्य की स्थापना की थी. उनका जन्म 13 नवंबर 1780 को गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) में हुआ था और उनका निधन 27 जून 1839 को लाहौर (अब पाकिस्तान में) में हुआ.

रणजीत सिंह का जन्म सिख संप्रदाय के सुकरचाकिया मिसल के प्रमुख महा सिंह और राज कौर के घर हुआ था. बहुत छोटी उम्र में ही उन्होंने अपने पिता से सैन्य कौशल सीखा और युद्ध में भाग लिया. वर्ष 1792 में उनके पिता की मृत्यु के बाद, रणजीत सिंह ने 12 वर्ष की आयु में सुकरचाकिया मिसल की जिम्मेदारी संभाली.

रणजीत सिंह ने पंजाब के विभिन्न मिसालों को एकजुट किया और एक शक्तिशाली सिख साम्राज्य की स्थापना की. उन्होंने 1799 में लाहौर को अपने नियंत्रण में लिया और 1801 में औपचारिक रूप से महाराजा के रूप में राज्याभिषेक किया. रणजीत सिंह ने कश्मीर, पेशावर, मुल्तान और पंजाब के अन्य क्षेत्रों को जीतकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया. उनकी सेना, जिसे खालसा सेना के नाम से जाना जाता था, आधुनिक हथियारों और यूरोपीय प्रशिक्षकों से सुसज्जित थी.

रणजीत सिंह ने अपने साम्राज्य में न्याय और प्रशासन का एक कुशल प्रणाली स्थापित किया. उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता को प्रोत्साहित किया और सभी धर्मों के लोगों को अपने प्रशासन में शामिल किया. उनके शासनकाल में कला, संस्कृति और स्थापत्य का विकास हुआ. अमृतसर में स्वर्ण मंदिर का पुनर्निर्माण और विस्तार उनके शासनकाल की प्रमुख उपलब्धियों में से एक था.

रणजीत सिंह ने अपने सादगीपूर्ण जीवन और धार्मिक सहिष्णुता के लिए ख्याति प्राप्त की. उन्होंने अपने राज्य में शांति और स्थिरता बनाए रखी और अपने लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय थे. उनकी मृत्यु के बाद, उनका साम्राज्य कमजोर पड़ गया और अंततः 1849 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा अधिग्रहीत कर लिया गया.

महाराजा रणजीत सिंह को “शेर-ए-पंजाब” (पंजाब का शेर) के नाम से भी जाना जाता है. उनकी वीरता और शासन के गुण आज भी लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं और उन्हें सिख इतिहास में एक महान नायक के रूप में याद किया जाता है.

महाराजा रणजीत सिंह की उपलब्धियाँ और उनकी प्रशासनिक कुशलता भारतीय इतिहास के सुनहरे अध्यायों में शामिल हैं. उनका योगदान न केवल सिख साम्राज्य के निर्माण में महत्वपूर्ण था, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को भी प्रभावित किया.

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सैम मानेकशॉ

फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ (Sam Hormusji Framji Jamshedji Manekshaw) भारतीय सेना के सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानित सैन्य अधिकारी थे. उन्हें 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान भारतीय सेना का नेतृत्व करने के लिए जाना जाता है, जिसने बांग्लादेश के स्वतंत्रता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

सैम मानेकशॉ का जन्म 3 अप्रैल 1914 को अमृतसर, पंजाब में हुआ था और उनका निधन 27 जून 2008 को वेलिंगटन, तमिलनाडु में हुआ. के एक पारसी परिवार में हुआ था. उन्होंने शेरवुड कॉलेज, नैनीताल और बाद में अमृतसर में पढ़ाई की. उन्होंने भारतीय सैन्य अकादमी (IMA), देहरादून से स्नातक किया.

सैम मानेकशॉ ने 1934 में भारतीय सेना में कमीशन प्राप्त किया और अपनी सेवा की शुरुआत की. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, उन्होंने बर्मा (म्यांमार) अभियान में भाग लिया, जहां वे गंभीर रूप से घायल हो गए थे लेकिन उनकी बहादुरी और नेतृत्व की प्रशंसा हुई.

मानेकशॉ को भारतीय सेना का प्रमुख (चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ) 1969 में नियुक्त किया गया. उनके नेतृत्व में भारतीय सेना ने 1971 के युद्ध में पाकिस्तान को हराया, जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश एक स्वतंत्र राष्ट्र बना. इस युद्ध में उनकी रणनीतिक कुशलता और निर्णायक नेतृत्व के कारण उन्हें व्यापक प्रशंसा मिली.

सैम मानेकशॉ को उनकी असाधारण सेवा और उपलब्धियों के लिए 1973 में फील्ड मार्शल के पद से सम्मानित किया गया. यह भारतीय सेना का सर्वोच्च सैन्य रैंक है. सैम मानेकशॉ अपने स्पष्टवादी और निर्भीक व्यक्तित्व के लिए जाने जाते थे. वे अपने सैनिकों के प्रति गहरी सहानुभूति और नेतृत्व के अद्वितीय गुणों के लिए प्रसिद्ध थे. उनके प्रेरणादायक नेतृत्व ने उन्हें न केवल उनके सहयोगियों बल्कि जनता के बीच भी बेहद लोकप्रिय बनाया.

वर्ष 1973 में सेवानिवृत्त होने के बाद, मानेकशॉ ने अपने जीवन का अधिकांश समय तमिलनाडु के कुन्नूर में बिताया. वे भारतीय रक्षा क्षेत्र में एक प्रतिष्ठित व्यक्तित्व बने रहे और उनके योगदान के लिए उन्हें अनेक पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए. सैम मानेकशॉ का नाम भारतीय सैन्य इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है. उनकी वीरता, नेतृत्व और देशभक्ति की कहानियाँ आज भी भारतीय सेना और जनता के बीच प्रेरणा का स्रोत हैं.

सैम मानेकशॉ का जीवन और कैरियर भारतीय सेना के गौरवशाली इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, और उनके योगदान को देश हमेशा याद रखेगा.

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