
एक बूढ़ा आदमी, जिनका नाम गोपाल था, गाँव के एक छोर पर बने अपने छोटे से घर में अकेले रहते थे. उनके बाल पूरी तरह से सफेद हो चुके थे और चेहरे पर झुर्रियों का जाल उनकी लंबी उम्र और अनुभवों की कहानी कहता था. उनके बच्चे शहर में अच्छी तरह से बसे हुए थे. वे साल में एक या दो बार उनसे मिलने आते थे, कुछ दिन रुकते थे और फिर अपनी व्यस्त जिंदगी में लौट जाते थे. गोपाल उन्हें दोष नहीं देते थे, वह जानते थे कि शहर की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में समय निकालना मुश्किल होता है. फिर भी, उनकी अनुपस्थिति गोपाल के दिल में एक खालीपन छोड़ जाती थी.
गोपाल का दिन पुरानी यादों के सहारे बीतता था. वह अपनी पत्नी के साथ बिताए हुए पल, अपने बच्चों के बचपन की शरारतें, गाँव के मेले और त्योहार – ये सब उनकी यादों के पिटारे में सजे हुए थे. कभी-कभी वह उन यादों में इतना खो जाते थे कि उन्हें लगता था जैसे वह पल अभी भी जी रहे हों. लेकिन फिर वास्तविकता का स्पर्श होता और उन्हें अपने अकेलेपन का एहसास होता.
उनकी बेबसी यह थी कि वह जानते थे कि उनका शरीर अब धीरे-धीरे साथ छोड़ रहा है. उनकी चाल धीमी हो गई थी, सुनने में थोड़ी दिक्कत होती थी, और अक्सर उन्हें थकान महसूस होती थी. वह अपने बच्चों से यह सब कहना चाहते थे, उन्हें बताना चाहते थे कि वह कैसा महसूस कर रहे हैं. वह चाहते थे कि वे थोड़ा और समय उनके साथ बिताएँ. लेकिन हर बार जब वह उन्हें फोन करते या उनसे मिलते, तो उनके गले में कुछ अटक जाता था. उन्हें लगता था कि कहीं उनकी बातों से वे परेशान न हो जाएँ, कहीं उन्हें अपनी व्यस्त जिंदगी से समय निकालने में और मुश्किल न हो.
यह मौन गोपाल के लिए एक भारी बोझ बन गया था. उनकी भावनाएँ, उनकी चिंताएँ, उनका अकेलापन – सब कुछ उनके भीतर जमा होता रहता था. वे चाहकर भी उसे बाहर नहीं निकाल पाते थे. यह मौन उनके और उनके बच्चों के बीच एक अदृश्य दीवार की तरह खड़ा हो गया था. वे उनसे प्यार करते थे, और वे भी उनसे प्यार करते थे, लेकिन उस प्यार को व्यक्त करने के लिए शब्द कम पड़ जाते थे, या शायद हिम्मत.
गोपाल का “बेबसी का पिटारा” उनकी वह शांत और उदास दुनिया थी जहाँ उनकी पुरानी यादें और वर्तमान का अकेलापन एक साथ रहते थे. इस पिटारे में उनके बच्चों के प्रति स्नेह था, लेकिन उनकी दूरी का दर्द भी था. इसमें जीवन भर की मेहनत का संतोष था, लेकिन अब शरीर की लाचारी की पीड़ा भी थी.
एक दिन, उनका पोता, रवि, गाँव आया. रवि शहर में पढ़ता था और अपनी छुट्टियों में अक्सर दादाजी से मिलने आता था. उसने गोपाल को हमेशा हँसते-मुस्कुराते देखा था, लेकिन इस बार उसने उनकी आँखों में एक उदासी महसूस की. उसने दादाजी से पूछा, “दादाजी, क्या बात है? आप थोड़े उदास लग रहे हैं.”
गोपाल पहले तो टाल गए, लेकिन रवि ने ज़ोर दिया. तब गोपाल ने अपनी टूटी-फूटी आवाज़ में अपने अकेलेपन और अपनी कमजोर होती सेहत के बारे में बताया. उन्होंने कहा कि वह चाहते हैं कि उनके बच्चे उनके पास रहें, लेकिन वह उन्हें अपनी परेशानी बताकर बोझ नहीं डालना चाहते.
रवि ने अपने दादाजी की बात ध्यान से सुनी. उसे अपने दादाजी की बेबसी और उनके मौन के बोझ का एहसास हुआ. उसने तुरंत अपने माता-पिता को फोन किया और उन्हें दादाजी की हालत के बारे में बताया. रवि ने उन्हें समझाया कि दादाजी को उनकी ज़रूरत है, सिर्फ शारीरिक रूप से ही नहीं, बल्कि भावनात्मक रूप से भी.
रवि की बातों का उनके माता-पिता पर गहरा असर हुआ. उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ कि वे अपनी व्यस्तता में अपने पिता की भावनाओं को नज़र अंदाज़ कर रहे थे. उन्होंने तुरंत गाँव आने का फैसला किया.
जब गोपाल ने अपने बच्चों को अपने सामने देखा, तो उनकी आँखों में आँसू आ गए. यह आँसू दुख के नहीं, बल्कि खुशी के थे. बरसों से उनके भीतर दबा हुआ मौन आखिरकार टूट गया था. उन्होंने अपने बच्चों से खुलकर बात की, अपनी भावनाएँ साझा कीं. उनके बच्चों ने भी उन्हें आश्वासन दिया कि वे अब उनका ज़्यादा ध्यान रखेंगे और अक्सर उनसे मिलने आया करेंगे.
उस दिन, गोपाल ने महसूस किया कि बेबसी के अँधेरे में भी प्यार और अपनेपन की रोशनी हमेशा मौजूद रहती है, बस उसे पहचानने और उसे आने देने की ज़रूरत होती है. उनके मौन का बोझ कुछ हल्का हुआ था। उनके “बेबसी के पिटारे” में अब सिर्फ अकेलापन नहीं था, बल्कि अपने बच्चों के प्यार और साथ की गर्माहट भी महसूस हो रही थी.
शेष भाग अगले अंक में…,