
मीरा की आँखें हमेशा चमकती थीं – सपनों की चमक, ज्ञान की प्यास की चमक। वह उन लड़कियों में से थी जिनका मन गाँव की संकरी गलियों से निकलकर शहर के विशाल पुस्तकालयों और बड़ी कंपनियों के चमकदार दफ्तरों तक उड़ान भरता था। उसने अपनी किताबों में एक ऐसी दुनिया देखी थी जहाँ उसकी प्रतिभा को पहचान मिलती, जहाँ उसकी मेहनत रंग लाती। वह जानती थी कि उसके भीतर एक आग है, कुछ कर दिखाने की तीव्र इच्छा है।
लेकिन वास्तविकता की ज़मीन बड़ी पथरीली थी। मीरा का परिवार आर्थिक रूप से कमजोर था। उसके पिता, जो एक छोटे से खेत में काम करते थे, मुश्किल से घर चला पाते थे। मीरा जानती थी कि शहर जाकर पढ़ना और नौकरी करना उनके लिए एक बहुत बड़ा बोझ होगा। उसने कई बार अपने मन की बात कहने की कोशिश की, लेकिन अपने माता-पिता की चिंता और उनकी सीमित आय को देखकर वह चुप रह जाती थी।
यह चुप्पी धीरे-धीरे उसके भीतर एक अनकही चीख बन गई थी। हर बार जब वह अपनी सहेलियों को आगे की पढ़ाई के लिए योजना बनाते हुए देखती, हर बार जब वह अखबार में शहर की सफल महिलाओं के बारे में पढ़ती, उसके दिल में एक कसक उठती। वह भी उन जैसा बनना चाहती थी, अपनी पहचान बनाना चाहती थी, लेकिन उसे लगता था जैसे उसके पैरों में अदृश्य बेड़ियाँ पड़ी हुई हैं।
उसका कमरा किताबों से भरा रहता था। ये किताबें ही उसकी वह खिड़की थीं जो उसे उस दुनिया से जोड़ती थीं जिसका वह सपना देखती थी। वह घंटों पढ़ती, नए विचारों में खो जाती, अपनी कल्पनाओं को उड़ान देती। लेकिन जब वह किताब बंद करती और आसपास की वास्तविकता में लौटती, तो उसे अपनी बेबसी का गहरा एहसास होता। वह जानती थी कि ज्ञान और सपने होना पर्याप्त नहीं है, उन्हें साकार करने के लिए अवसर और संसाधन भी चाहिए होते हैं, और यही वह जगह थी जहाँ वह खुद को असहाय महसूस करती थी।
यह बेबसी उसके दिल में एक मौन का बोझ बन गई थी। वह अपनी भावनाओं को किसी से खुलकर कह नहीं पाती थी। उसे डर था कि कहीं उसकी इच्छाओं को फिजूल न समझा जाए, कहीं उसके सपनों का मज़ाक न उड़ाया जाए। इसलिए वह सब कुछ अपने अंदर ही दबाए रखती थी। यह दबी हुई इच्छा और असहायता धीरे-धीरे एक घुटन में बदल गई थी।
मीरा के लिए, “बेबसी का पिटारा” उसकी वह आंतरिक दुनिया थी जहाँ उसकी आकांक्षाएँ और उसकी विवशताएँ एक साथ रहती थीं। एक तरफ उसके उज्ज्वल सपने थे, और दूसरी तरफ उन सपनों को पूरा करने के रास्ते में आने वाली बाधाएँ। इस पिटारे में उसकी उम्मीदें भी थीं, और उन उम्मीदों के टूटने का डर भी।
एक दिन, मीरा की एक सहेली, जो शहर में पढ़ती थी, गाँव आई। उसने मीरा की प्रतिभा और पढ़ने की लगन को देखा और उसे एक छात्रवृत्ति के बारे में बताया जो गरीब लेकिन प्रतिभाशाली लड़कियों को आगे बढ़ने में मदद करती थी। मीरा ने पहले तो हिचकिचाई। उसे लगा कि यह सब उसके लिए बहुत दूर की बात है। लेकिन उसकी सहेली ने उसे प्रेरित किया और आवेदन करने के लिए प्रोत्साहित किया।
मीरा ने पूरी लगन से छात्रवृत्ति के लिए आवेदन तैयार किया। उसने अपनी सारी मेहनत और प्रतिभा को अपने आवेदन में उड़ेल दिया। कई दिनों तक वह रात-रात भर जागकर लिखती रही। उसके मन में एक उम्मीद की किरण जगमगा रही थी, लेकिन साथ ही असफलता का डर भी उसे घेरे हुए था।
जब छात्रवृत्ति का परिणाम आया, तो मीरा का नाम चयनित छात्रों की सूची में था। उस पल, उसके भीतर दबी हुई चीख एक ज़ोर की आह बनकर निकली – एक राहत की आह, एक खुशी की आह, एक ऐसी आह जिसने उसकी बरसों की बेबसी को धो डाला था।
उस दिन मीरा ने महसूस किया कि बेबसी की जंजीरें तोड़ी जा सकती हैं, अगर दिल में सच्ची चाहत और हिम्मत हो। छात्रवृत्ति उसके लिए सिर्फ आर्थिक मदद नहीं थी, यह उसके सपनों की ओर पहला कदम था, उस अनकही चीख का जवाब था जो बरसों से उसके भीतर गूँज रही थी।
अब मीरा के पास अपना रास्ता खुद बनाने का अवसर था। बेबसी का वह पिटारा, जो कभी निराशा से भरा हुआ था, अब उम्मीद और उत्साह से लबालब था। उसकी आँखों की चमक और तेज़ हो गई थी – अब यह सिर्फ सपनों की चमक नहीं थी, बल्कि उन सपनों को साकार करने के आत्मविश्वास की चमक थी।
शेष भाग अगले अंक में…,