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स्वाधीनता संग्राम…

25 मार्च 1931 को कानपुर में एक अत्यंत दुःखद घटना हुयी थी. एक साम्प्रदायिक उन्माद से भरी भीड़ ने गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या कर दी थी. विद्यार्थी जी हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरुष रहे हैं. वे न केवल व्यावसायिक पत्रकार रहे हैं, बल्कि जन जागृति के इस लोक माध्यम को उन्होंने एक मिशन की तरह लिया. यह उनकी शहादत थी. वर्ष1931 को साम्प्रदायिक दंगा, कानपुर के इतिहास में बहुत व्यापक और बीभत्स था. विद्यार्थी जी इस उन्माद से पगलाई भीड़ को शांत करने के उद्देश्य से पुराने कानपुर की गलियों में निकले थे और उस उन्माद और पागलपन की आग ने उन्ही की जान ले ली, जिसे वे खुद बुझाने निकले थे. वह दुर्भाग्यपूर्ण दिन और तारीख आज ही की थी।

गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 1890 के 26, अक्टूबर को, इलाहाबाद में हुआ था. हाई स्कूल की परीक्षा वहाँ से उत्तीर्ण कर के वे वहाँ से निकलने वाले अखबार, हिंदी प्रदीप, स्वराज्य, कर्मयोगी और अभ्युदय से जुड़े. इन पत्रिकाओं में उनके लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते रहते थे. विद्यार्थीजी हालांकि प्रदेश कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेताओं में से एक थे. देश में चल रहे क्रांतिकारी आंदोलन के साथ भी जुड़े थे. उनके लेख, प्रेस की आज़ादी, दास प्रथा, क्रांतिकारी आंदोलन के उभार और यहाँ तक कि सशस्त्र संघर्ष के समर्थन में भी अपनी बात कहते थे.

वर्ष 1905 में ही तिलक और गोखले के वैचारिक मतभेद के कारण कांग्रेस गरम और नरम दलों में बंट चुकी थी. तिलक उस समय गोखले से अधिक लोकप्रिय हो गए थे. अँगरेज़, उन्हें ‘फादर ऑफ़ इंडियन अनरेस्ट’ ही कहते थे. विचारधारा का यह टकराव, इलाहाबाद के छात्रों में भी बहुत व्यापक था. म्योर सेन्ट्रल कॉलेज जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय का आज का विज्ञान संकाय है, में  वहाँ के छात्रों ने कांग्रेस के तत्कालीन नरम पंथी नेताओं सर सुन्दर लाल और महामना मदन मोहन मालवीय का प्रबल विरोध किया था.  गणेश शंकर विद्यार्थी ने उस समय राजनीतिक पत्रकारिता को अपना मिशन के रूप में चुना. वे पहले इलाहाबाद के स्वराज्य भवन स्थित कांग्रेस कार्यालय में पत्रकारिता से जुड़े. उस समय वहाँ से उर्दू में एक अखबार निकलता था, जो वर्ष 1908 में सरकार विरोधी लेख छापने के कारण प्रतिबंधित कर दिया गया था.

उस पत्रिका के संपादक शांति नारायण भटनागर थे, जिन्हें साढ़े तीन साल के कारावास की सजा दी गयी थी. इसी समय ब्रिटिश राज द्वारा प्रेस का उत्पीड़न शुरू हुआ था और, होती लाल वर्मा, राम हरि, नन्द गोपाल और लढ़ राम आदि संपादकों को, जो उस अखबार से जुड़े थे, राजद्रोह के आरोप में दस वर्ष के लिए जिला बदर कर दिया गया था. विद्यार्थी जी ऐसे ही वातावरण में स्वराज्य के साथ जुड़े. इलाहाबाद से ही निकलने वाले पत्र, कर्मयोगी और अभ्युदय के वे नियमित स्तंभकार भी रहे. अपने लेखों और विचारों के कारण वे भी प्रेस क़ानून के चंगुल से बच नहीं सके और बाद में वे इलाहाबाद से कानपुर आ गए.

कानपुर से ‘ प्रताप ‘ पत्र का सम्पादन इन्होंने शुरू किया और, चंपारण के निलहे किसानों की व्यथा (प्रवासी भारतीय जो अंग्रेजों द्वारा देश के बाहर अन्य उपनिवेशों में ले जाए जा रहे थे) के कष्टों एवं कानपुर के श्रमिकों के सन्दर्भ में  नियमित लिखना शुरू किया. उनका लेखन बहुत सधा हुआ था और विचार अत्यंत स्पष्ट थे. अपनी स्थापना के एक वर्ष बाद ही वर्ष 1914 में प्रताप का प्रथम विशेषांक निकला.  इसे राष्ट्रीय अंक नाम दिया गया. साठ पृष्ठों के इस पत्र की कीमत चार आना रखी गयी थी. इस अंक के लेखकों में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलि शरण गुप्त, मुंशी प्रेम चंद, विद्यावती सेठ, सैयद हैदर हुसैन, बद्रीनाथ भट्ट, श्रीमतीबालाजी, सत्यनारायण कविरत्न, और जनार्दन भट्ट जैसे लेखक थे. एक वर्ष में प्रताप और विद्यार्थी जी ने पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया था. प्रताप के अँगरेजी राज विरोधी लेखों और विचारों ने कानपुर के प्रशासन के कान खड़े कर दिए.

एक रोचक प्रकरण प्रताप के कार्यालय पर पुलिस के छापे का इस प्रकार है. कानपुर के डी.एस.पी ने प्रताप कार्यालय पर छापा मारा. उनके साथ तत्कालीन कोतवाली कानपुर के इन चार्ज बाक़र अली थे. दोनों प्रताप कार्यालय पहुंचे और कार्यालय को पुलिस ने घेर लिया. प्रताप कार्यालय के संपादक के कक्ष में एक मेज़ और दो कुर्सी पडी रहती थी. एक कुर्सी संपादक के लिए और दूसरी आगंतुक के लिए. पर जब छापा पड़ा तो संपादक के कार्यालय में एक कुर्सी पर डी.एस.पी और दूसरी पर बाक़र अली बैठ गए. इस पर विद्यार्थी जी ने आपत्ति की और बाक़र अली को कुर्सी खाली करनी पडी.

तब विद्यार्थीजी अपनी कुर्सी पर बैठे और छापे का सामना किया. हालांकि उस छापे में पुलिस को कुछ भी आपत्ति जनक नहीं मिला. प्रताप प्रेस और अखबार, विद्यार्थीजी के अतुलनीय बलिदान, श्रम और अदम्य साहस का प्रतिफल था. वर्ष 1919 में उन्होंने इसे एक ट्रस्ट के रूप में बदल दिया.  इसके न्यासियों में मैथिलि शरण गुप्त, डॉ० जवाहर लाल रोहतगी, फूल चंद और शिव नारायण मिश्र ‘वैद्य और स्वयं विद्यार्थी जी थे. बनारसी दास चतुर्वेदी के शब्दों में, गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘न’ केवल हिंदी पत्रकारिता में निर्भीक और सार्थक युग की शुरुआत की बल्कि, उन्होंने निर्भीक पत्रकारों की एक बड़ी जमात भी खड़ी की. विद्यार्थी जी, मूलतः आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के शिष्य थे.

आचार्य उस समय की अत्यन्त प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ के सम्पादक थे. आचार्य द्विवेदी ने आधुनिक हिंदी साहित्य के साथ साथ हिंदी भाषा के खड़ी बोली के स्वरुप का निर्धारण किया. हिंदी साहित्य के इतिहास में उनका अप्रतिम योगदान है. उस समय जो अन्य प्रमुख लेखक पत्रकार, विद्यार्थी जी से जुड़े थे, उनमें से  ‘बाल मुकुंद गुप्त’, लक्ष्मी नारायण गर्दै , बाबूराव विष्णु पराड़कर , आदि थे  साथ ही, उनके सहयोगियों में से बनारसी दास चतुर्वेदी, वृंदावन लाल वर्मा, कृष्ण दत्त पालीवाल, बाल कृष्ण शर्मा नवीन, दशरथ प्रसाद द्विवेदी, माखन लाल चतुर्वेदी आदि अन्य अन्य विभूतियाँ भी थीं.

वर्ष1931 का साल देश के इतिहास में अत्यन्त उथल पुथल भरा रहा. इसी साल 27 फरवरी को , इलाहबाद में “चन्द्रशेखर आज़ाद” शहीद हुए. आज़ाद हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के संस्थापकों में से थे. “भगत सिंह” भी इसी संगठन के थे. इस संगठन को विद्यार्थी जी और प्रताप का खुला समर्थन था. उनका घर और कार्यालय,  क्रांतिकारियों के गोपनीय गतिविधियों का केंद्र भी हुआ करता था. इसी साल 1931 के  23 मार्च को, भगत सिंह, राजगुरु, और सुखदेव को लाहौर सेन्ट्रल जेल में फांसी पर लटका दिया गया था. अगर आप स्वाधीनता संग्राम की इतिहास यात्रा का अध्ययन करेंगे तो एक हैरान करने वाला रोचक तथ्य यह मिलेगा कि, जैसे-जैसे आज़ादी की जंग तेज़ होती गयी, वैसे-वैसे ही हिन्दू मुस्लिम वैमनस्य बढ़ता गया. अँगरेज़ वर्ष 1857 के विप्लव का  प्रमुख बिंदु  , कि दोनों धार्मिक समुदायों की एकता का वह प्रतिफल था, भूले नहीं थे. देश का साम्प्रदायिक वातावरण बिगड़ रहा था. उसी समय इलाहबाद में दंगा भड़का और उसका असर कानपुर तक आया. उसी समय कानपुर के चौबेगोला क्षेत्र में दंगा भड़क गया. विद्यार्थीजी बहुत लोकप्रिय थे और वे दोनों ही समुदायों में सामान रूप से सम्मानित भी थे. वे इस दंगे के बीच बचाव के लिए चौबेगोला गए और वहीं 25 मार्च को उनकी हत्या हो गयी.  उनका युद्ध अंग्रेज़ों के खिलाफ था. वे हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर भी थे. पर वे उसी पागलपन और उन्माद  शिकार हुए जिसके विरोध में वे आजीवन खड़े रहे. उनका शव तत्काल नहीं मिला था.

अतः पुलिस ने, उन्हें उस समय गुमशुदा भी घोषित कर दिया था पर बाद में उनका शव बरामद हुआ. उस समय उनकी उम्र चालीस वर्ष थी.  यह एक सपने का अंत था. गांधी जी ने उनके मृत्यु पर अपने पत्र यंग इंडिया में उनके दुखद निधन के बारे में जो लिखा वह इस प्रकार है I do not know if the sacrifice of Mr. Ganesh Shankar Vidyarthi has gone in vain. His spirit always inspired me. I envy his sacrifice. Is it not shocking that this country has not produced another Ganesh Shankar? None after him came to fill the gap. Ganesh Shankar’s Ahimsa was perfect Ahimsa. My Ahimsa will also be perfect if I could die similarly peacefully with axe blows on my head. I have always been dreaming of such a death, and I wish to treasure this dream. How noble that death will be,—a daggar attack on me from one side; an axe blow from another; a lathi wound administered from yet another direction and kicks and abuses from all sides, and if in the midst of these, I could rise to the occasion and remain non-violent and peaceful and could ask others to act and behave likewise, and finally I could die with cheer on my face and smile on my lips, then and then alone my Ahimsa will be perfect and true. I am hankering after such an opportunity and also wish Congressmen to remain in search of such an opportunity, (Ref.- He Ram).

कानपुर में उस स्थान पर एक स्मारक है जहाँ वह शहीद हुए थे. इसके अतिरिक्त कानपुर मेडिकल कॉलेज का नाम और यहाँ के स्थल फूल बाग़ का नाम गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम है. वर्ष 1962 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया था. वर्ष 1989 में उनके नाम पर पत्रकारिता में योगदान के लिए पुरस्कार की व्यवस्था की गयी है. आज कॉरपोरेटीकरण की आंधी में कभी मिशन के रूप में प्रचलित पत्रकारिता, जब क्रोनी जर्नलिज़्म या गिरोहबंद पत्रकारिता में तब्दील हो रही है तो ऐसे हुतात्मा की याद आना स्वाभाविक है.

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On March 25, 1931, a very sad incident took place in Kanpur. Ganesh Shankar Vidyarti was killed by a communally frenzied mob. Vidyarti ji has been a torchbearer of Hindi journalism. He has not only been a professional journalist, but he has taken this public medium of public awareness as a mission. This was his martyrdom. The communal riot of 1931 was very widespread and gruesome in the history of Kanpur. Vidyarti ji had come out in the streets of old Kanpur to pacify the frenzied crowd and the fire of frenzy and insanity took his life, which he had set out to extinguish. That fateful day and date were today.

Ganesh Shankar Vidyarti was born on October 26, 1890, in Allahabad. After passing the high school examination from there, he joined the newspapers coming out from there, Hindi Pradeep, Swarajya, Karmayogi, and Abhyudaya. His articles were regularly published in these magazines. Although Vidyarji was one of the important leaders of the State Congress. He was also associated with the revolutionary movement going on in the country. His articles spoke in support of the freedom of the press, slavery, the rise of the revolutionary movement, and even the armed struggle.

In the year 1905 itself, due to the ideological differences between Tilak and Gokhale, the Congress was divided into extremist and moderate parties. Tilak had become more popular than Gokhale at that time. The British used to call him the ‘Father of Indian Unrest’. This clash of ideologies was also very widespread among the students of Allahabad. In Mayur Central College, which is today’s Science Faculty of Allahabad University, the students there strongly opposed the then-moderate Congress leaders Sir Sundar Lal and Mahamana Madan Mohan Malaviya. Ganesh Shankar Vidyarthi chose political journalism as his mission at that time. He first joined journalism in the Congress office at Swarajya Bhavan, Allahabad. At that time a newspaper used to come out from there in Urdu, which was banned in the year 1908 for publishing anti-government articles.

The editor of that magazine was Shanti Narayan Bhatnagar, who was sentenced to three and a half years imprisonment. At the same time, the persecution of the press by the British Raj started and the editors, Hoti Lal Verma, Ram Hari, Nand Gopal, and Ladh Ram, etc., who were associated with that newspaper, were banished to Badar district for ten years on charges of sedition. Vidyarti ji joined Swarajya in such an environment. He was also a regular columnist for the letters, Karmayogi and Abhyudaya published from Allahabad. Due to his writings and views, he too could not escape from the clutches of the Press Act and later he moved from Allahabad to Kanpur.

He started editing the letter ‘Pratap’ from Kanpur and started writing regularly about the plight of indigo farmers of Champaran (migrant Indians who were being taken to other colonies outside the country by the British) and the laborers of Kanpur. His writing was very systematic and his thoughts were very clear. Pratap’s first special issue came out in the year 1914, a year after its establishment. It was named the National Issue. The price of this letter of sixty pages was kept at four annas. The writers of this issue were writers like Acharya Mahavir Prasad Dwivedi, Maithili Sharan Gupta, Munshi Prem Chand, Vidyavati Seth, Syed Haider Hussain, Badrinath Bhatt, Shrimati Balaji, Satyanarayana Kaviratna, and Janardan Bhatt. In one year, Pratap and Vidyarthi had made a special place for themselves in the field of journalism. Pratap’s anti-English Raj articles and thoughts raised the ears of Kanpur’s administration.

An interesting episode of the police raid on Pratap’s office is as follows. DSP of Kanpur raided Pratap’s office. With him was Baqar Ali, in charge of the then Kotwali Kanpur. Both Pratap reached the office and the police surrounded the office. A table and two chairs were lying in the editor’s room of Pratap’s office. One chair for the editor and the other for the visitor. But when the raid happened, DSP sat on one chair and Baqar Ali on the other in the editor’s office. A student objected to this and Baqar Ali had to vacate the chair.

Then Vidyarji sat on his chair and faced the raid. However, the police did not find anything objectionable in that raid. Pratap Press and Newspaper were the results of Vidyarji’s incomparable sacrifice, labor, and indomitable courage. In the year 1919, he converted it into a trust. Among its trustees were Maithili Sharan Gupta, Dr. Jawahar Lal Rohatgi, Phool Chand and Shiv Narayan Mishra ‘Vaidya’, and the student himself. In the words of Banarasi Das Chaturvedi, Ganesh Shankar Vidyarti ‘not only’ ushered in a fearless and meaningful era in Hindi journalism, but he also created a great community of fearless journalists. Vidyarti ji was originally a disciple of Acharya Mahavir Prasad Dwivedi.

Acharya was the editor of ‘Saraswati’, the most prestigious literary magazine of that time. Acharya Dwivedi determined the form of Khadi Boli of the Hindi language along with modern Hindi literature. He has an immense contribution to the history of Hindi literature. Other prominent writers who were associated with Vidyarthi at that time were ‘Bal Mukund Gupta’, Laxmi Narayan Karee, Baburao Vishnu Paradkar, etc. Also, among his associates were Banarasi Das Chaturvedi, Vrindavan Lal Verma, and Krishna Dutt Paliwal. , Bal Krishna Sharma Naveen, Dashrath Prasad Dwivedi, Makhan Lal Chaturvedi, etc. were also other personalities.

The year 1931 was very turbulent in the history of the country. This year on 27 February, “Chandrashekhar Azad” was martyred in Allahabad. Azad was one of the founders of the Hindustan Socialist Republican Army. “Bhagat Singh” also belonged to this organization. Vidyarti ji and Pratap had open support for this organization. His house and office also used to be the center of secret activities of the revolutionaries. In the same year, on March 23, 1931, Bhagat Singh, Rajguru, and Sukhdev were hanged in the Lahore Central Jail. If you study the historical journey of the freedom struggle, then you will find a surprising and interesting fact that, as the freedom struggle intensified, so did the Hindu-Muslim animosity. The British did not forget the main point of the rebellion of 1857, that it was the result of the unity of both religious communities. The communal atmosphere of the country was deteriorating. At the same time, a riot broke out in Allahabad and its effect reached Kanpur. At the same time, a riot broke out in the Chaubegola area of Kanpur. Vidyartiji was very popular and he was equally respected in both communities. Amid this riot, he went to Chaubegola for rescue and he was killed there on 25 March. His war was against the British. He was also a strong supporter of Hindu-Muslim unity. But he became a victim of the same madness and frenzy against which he stood for life. His body was not immediately found.

Therefore, the police declared him missing at that time too, but later his body was found. At that time he was forty years old. It was the end of a dream. What Gandhiji wrote about his sad demise in his letter to Young India on his death is as follows I do not know if the sacrifice of Mr. Ganesh Shankar Vidyarthi has gone in vain. His spirit always inspired me. I envy his sacrifice. Is it not shocking that this country has not produced another Ganesh Shankar? None after him came to fill the gap. Ganesh Shankar’s Ahimsa was perfect Ahimsa. My Ahimsa will also be perfect if I could die equally peacefully with ax blows on my head. I have always been dreaming of such a death, and I wish to treasure this dream. How noble that death will be,—a dagger attack on me from one side; an ax blow from another; a lathi wound administered from yet another direction and kicks and abuses from all sides, and if in the midst of these, I could rise to the occasion and remain non-violent and peaceful and could ask others to act and behave likewise, and finally I could die with cheer on my face and smile on my lips, then and then alone my Ahimsa will be perfect and true. I am hankering after such an opportunity and also wish Congressmen to remain in search of such an opportunity, (Ref.- He Ram).

There is a memorial in Kanpur at the place where he was martyred. Apart from this, the name of Kanpur Medical College and the place Phool Bagh are named after Ganesh Shankar Vidyarthi. In the year 1962, the Government of India issued a postal stamp in his honor. In the year 1989, an award has been instituted in his name for his contribution to journalism. Today, in the storm of corporatization, when journalism, once popular as a mission, is turning into crony journalism or gang journalism, then it is natural to remember such a martyr.

Prabhakar Kumar.

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