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महौषधि है दूर्वा…

शायद ही कोई ऐसा इंसान होगा जो दूब घास को नहीं जानता होगा, अलग बात है कि हर क्षेत्रों में यह अलग अलग नामों से जाना जाता है. हिंदी में इसे दूब, दुबडा,संस्कृत में दुर्वा, सहस्त्रवीर्य, अनंत, भार्गवी, शतपर्वा, शतवल्ली, मराठी  में पाढरी दूर्वा, काली दूर्वा, गुजराती में धोलाध्रो, नीलाध्रो, अंग्रेजी में कोचग्रास, क्रिपिंग साइनोडन, बंगाली में नील दुर्वा, सादा दुर्वा आदि नामों से जाना जाता है. भारतीय संस्कृति में दूब को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है, चाहे कोई भी पूजा,विवाहोत्सव या फिर अन्य कोई शुभ मांगलिक अवसर, पूजन-सामग्री के रूप में दूब की उपस्थिति से उस समय उत्सव की शोभा और भी बढ़ जाती है. यह पौधा ज़मीन से ऊँचा नहीं उठता है, बल्कि ज़मीन पर ही फैला हुआ रहता है. दूब या दूर्वा का वानस्पतिक नाम है Cynodon Dactylon और मारवाडी भाषा में इसे ध्रो कहा जाता हैँ.

विष्णवादिसर्वदेवानां दूर्वे त्वं प्रीतिदा यदा.
क्षीरसागर संभूते वंशवृद्धिकारी भव..

अर्थात हे दुर्वा, तुम्हारा जन्म क्षीरसागर से हुआ है! तुम विष्णु आदि सब देवताओं को प्रिय हो.
तुलसीदास ने दूब को अपनी लेखनी से इस प्रकार सम्मान दिया है- ‘रामं दुर्वादल श्यामं, पद्माक्षं पीतवाससा.’

यह वही पौधा है, जिस पर उषा काल में जमी हुई ‘ओस’ की बूँदें मोतियों के समान चमकती हुई  प्रतीत होती हैं. ब्रह्म मुहूर्त में हरी-हरी घास पर नंगे पांव घुमने का अपना निराला अंदाज होता है साथ ही सेहत के लिए भी फायदेमंद होता है. पशुओं के लिए ही नहीं, बल्कि मनुष्यों के लिए भी पूर्ण पौष्टिक आहार है दूब. ज्ञात है कि, महाराणा प्रताप ने वनों में भटकते हुए जिस घास की रोटियाँ खाई थीं, वह ‘दूब’ ही थी. दूब में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट तो पर्याप्त मात्रा में मिलते ही  हैं. दूब के पौधे की जड़ें, तना, पत्तियाँ इन सभी का चिकित्सा क्षेत्र में भी अपना विशिष्ट महत्व होता है. आज से दो हज़ार साल पहले आयुर्वेद के महान “आचार्य चरक” भी दूब के गुणों से बखूबी अन्य जड़ी-बूटियों के साथ दूब का काढ़ा बनाकर दस्त तथा अत्यधिक प्रमाण में होने वाले मासिक धर्म को रोकने के लिए प्रयोग किया जाता है. पुराने प्रमेह रोग में दूब पीसकर दही के साथ देने का भी विधान है.

दूब की तासीर ठंडी होती है, इसलिए दूब का ताज़ा रस मिरगी, हिस्टीरिया, उन्माद इत्यादि मानसिक रोगों को दिया जाता है. दूब के काढ़े से कुल्ले करने से मुँह के छाले मिट जाते हैं, वहीं  दूब को पीसकर ललाट पर लेप करने से नकसीर बंद हो जाती है.

हरी दूब का रस पीने से बार-बार लगने वाली प्यास खत्म हो जाती है, इससे पेशाब खुलकर होने लगता है, साथ ही खून की अनावश्यक गरमी शांत होकर चर्म विकार को दूर करने में मदद करता है. आयुर्वेद में दूब में उपस्थित अनेक औषधीय गुणों के कारण दूब को ‘महौषधि’  कहा जाता है. आयुर्वेदाचार्य के अनुसार दूब का स्वाद कसैला व मीठा होता है.

दूब के प्रयोग:-

  • दूब का औषधीय प्रयोग रस के रूप में.
  • दूब के काढ़े के रूप में.
  • दूब के जड़ की चूर्ण के रूप में.
  • इसकी पत्तियों के चूर्ण के रूप में किया जाता है.
  • दूब से निकलने वाले हरे रस को एक तरह से हरा रक्त भी कहा जाता है, जिसका सेवन करने से एनीमिया ठीक हो जाता है.
  • मुंह में छालों को दूर करने के लिए दूब से बने काढे से कुल्ला करने से राहत मिलती है, और छाले भी ठीक हो जाते हैं.
  • यदि नाक से नकसीर बहती हो तो, आप इसके रस की कुछ बूंदे नाक में डालें.
  • नंगे पैर दूब पर चलने से आंखों की ज्योति बढ़ती है.
  • बार-बार उल्टी होने की समस्या में दूब का रस पीनें से फायदा मिलता है.
  • दूब घास में मौजूद फलेवनाइड खनिज उल्सर को बढ़ने से रोक देता है.
  • पेट संबंधित रोगों को खत्म करने के साथ-साथ दूब हमारे पाचन तंत्र को भी मजबूत बनाती है.
  • दूब घास में एंटीवायरल और एंटीमाइक्रोबायल के गुण होने की वजह से यह शरीर को बीमारियों से लड़ने में मदद करता है.
  • खून में ग्लूकोज के स्तर को कम करने में दुब का प्रयोग किया जाता है. इससे मधुमेह को आसानी से नियंत्रित किया जाता है.
  • महिलाओं की होने वाली समस्याओं में भी दुब का प्रयोग कारगर होता है.
  • घातु रोग या बवासीर आदि में दूब सेवन अति लाभदायक होता है.
  • दूब घास को दही के साथ अच्छे से मिलाकर सेवन करना चाहिए.
  • त्वचा संबधी रोग और दांतों के दर्द आदि होने पर दूब का लेप लगाने से फायदा मिलता है.
  • दूब का सेवन करने से खून साफ होता है, व हमारी लाल रक्त कोशिकाओं को भी बढ़ाने में सहायक होता है.
  • शरीर को उर्जावान बनाने के साथ ही तनाव, थकान,अनिंद्रा जैसी समस्याओं को भी दूर करने में मदद करती है.
  • अधोगामी रक्तपित या उर्धगामी रक्तपित में दूर्वा का स्वरस फायदेमंद होता है.

 डा० बिनोद उपाध्याय, 

ध्रुव आयुर्वेदिक केंद्र, मुन्ना चौक,

तिलक नगर, कंकरबाग, पटना.

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