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व्यक्ति विशेष -627.

झण्डा गीत के रचयिता श्यामलाल गुप्त “पार्षद”

श्यामलाल गुप्त “पार्षद” एक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और कवि थे, जिन्होंने प्रसिद्ध झण्डा गीत “विजयी विश्व तिरंगा प्यारा” की रचना की. यह गीत भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान बहुत लोकप्रिय हुआ और आज भी इसे बड़े सम्मान के साथ गाया जाता है.

श्यामलाल गुप्त का जन्म 16 सितंबर 1896 को उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के नरवाल गाँव में हुआ था. वे एक साधारण परिवार से थे और उनकी शिक्षा भी साधारण थी। बचपन से ही उन्हें साहित्य और कविता में रुचि थी. श्यामलाल गुप्त “पार्षद” भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेते थे. वे महात्मा गांधी के अनुयायी थे और उनके नेतृत्व में देश को आज़ाद कराने के लिए कई आंदोलनों में भाग लिया. उन्होंने अपनी कविताओं और लेखनी के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम में लोगों को प्रेरित किया.

वर्ष 1924 में, जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में एक प्रेरणादायक झण्डा गीत की आवश्यकता महसूस हुई, तब श्यामलाल गुप्त “पार्षद” ने “विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा” गीत की रचना की. यह गीत जल्द ही स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीयों के बीच प्रेरणा का स्रोत बन गया और राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया.

झण्डा गीत स्वतंत्रता सेनानियों के लिए साहस और संघर्ष का प्रतीक बन गया. यह गीत स्वतंत्रता आंदोलन के समय राष्ट्रीय एकता और देशभक्ति का संदेश देता था. आज भी, यह गीत भारत के राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है और स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर गाया जाता है.

श्यामलाल गुप्त “पार्षद” को उनके योगदान के लिए भारतीय सरकार और विभिन्न संगठनों द्वारा सम्मानित किया गया. उनकी रचनाएँ और विशेष रूप से उनका झण्डा गीत आज भी भारतीय समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है. श्यामलाल गुप्त “पार्षद” का निधन 10 अगस्त 1977 को हुआ. उनकी लेखनी और उनके योगदान को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और साहित्य में हमेशा याद किया जाएगा.

श्यामलाल गुप्त “पार्षद” का जीवन एक प्रेरणा है, जो बताता है कि साहित्य और लेखनी के माध्यम से भी एक व्यक्ति स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है. उनका झण्डा गीत आज भी देशभक्ति की भावना को प्रकट करता है और भारतीयों के दिलों में विशेष स्थान रखता है.

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राजनीतिज्ञ एम. एन. कौल

पहली लोकसभा के पहले महासचिव थे एम. एन. कौल. उनका जन्म 16 सितंबर 1901 को कश्मीर, भारत में हुआ था. कौल ने अपनी पढ़ाई कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से की साथ ही उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में भी अध्ययन किया था. शिक्षा पूर्ण करने के बाद एम. एन. कौल ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय से अपनी वकालत प्रारम्भ की.

एम. एन. कौल को भारत में लोकसभा के पहले आम चुनाव के बाद लोकसभा का सचिव नियुक्त किया गया था. कौल ने वर्ष 1952- 64 तक इस पद पर अपनी सेवा दी. उनका मुख्य योगदान भारतीय संसदीय प्रक्रियाओं को स्थापित करने और मजबूत करने में था. उन्हें भारतीय संसदीय परंपराओं के वास्तुकार के रूप में जाना जाता है. उन्होंने संसद की नियमावली, परंपराओं और कामकाज को व्यवस्थित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

कौल के कार्य और अनुभव पर आधारित पुस्तक “Practice and Procedure of Parliament” आज भी संसदीय कार्यप्रणाली को समझने के लिए एक मानक ग्रंथ मानी जाती है. एम. एन. कौल का निधन 20 नवंबर, 1984 को हुआ था.

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गायिका और अभिनेत्री एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी

एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी एक महान भारतीय गायिका और अभिनेत्री थीं. जिनका पूरा नाम मदुरै षण्मुखवडिवु सुब्बुलक्ष्मी है. उन्हें कर्नाटक संगीत (दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत) की रानी माना जाता है. उनके संगीत में भक्ति और आध्यात्म का गहरा प्रभाव था.

एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी का जन्म 16 सितंबर 1916 को तमिलनाडु के मदुरै शहर में हुआ था. उन्होंने बहुत कम उम्र में ही संगीत सीखना शुरू कर दिया था. करीब 10 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली रिकॉर्डिंग की. उन्होंने सेम्मंगुडी श्रीनिवास अय्यर से कर्नाटक संगीत और पंडित नारायण राव व्यास से हिंदुस्तानी संगीत की शिक्षा ली. महज 17 साल की उम्र में, उन्होंने चेन्नई की प्रसिद्ध ‘म्यूजिक एकेडमी’ में अपना पहला संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत किया.

सुब्बुलक्ष्मी ने अपने शुरुआती दिनों में कुछ तमिल फिल्मों में भी अभिनय किया. उनकी पहली फिल्म वर्ष 1938 में “सेवासदनम” थी. उनकी सबसे यादगार और प्रसिद्ध फिल्म वर्ष 1945 में  “मीरा” थी, जिसमें उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई थी. इस फिल्म ने उन्हें बहुत लोकप्रियता दिलाई.

एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी को भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया था. वह संगीत के क्षेत्र में यह सम्मान पाने वाली पहली भारतीय थीं. वह पहली भारतीय थीं जिन्होंने वर्ष 1966 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रदर्शन किया था. उन्हें वर्ष 1974 में रेमन मैगसेसे पुरस्कार मिला, जो पाने वाली वह पहली भारतीय संगीतकार थीं. उन्हें कई अन्य प्रतिष्ठित पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया, जिनमें पद्म भूषण (1954), पद्म विभूषण (1975) और संगीत कलानिधि (1968) शामिल हैं.

एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी को उनकी अद्भुत आवाज, भक्तिपूर्ण गायन और मानवीय कार्यों के लिए हमेशा याद किया जाता है. महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू भी उनके संगीत के बहुत बड़े प्रशंसक थे. लता मंगेशकर ने उन्हें “तपस्विनी” और सरोजिनी नायडू ने “भारत की कोकिला” कहकर संबोधित किया था. उनका निधन 11 दिसंबर 2004 को चेन्नई में हुआ था. 

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संगीतकार रामलक्ष्मण

भारतीय संगीतकार और संगीत निर्माता थे रामलक्ष्मण. उनका वास्तविक नाम विजय पाटिल था. उन्होंने मुख्यतः हिंदी और मराठी फ़िल्म उद्योगों में काम किया. उनका संगीत विशेष रूप से फ़िल्म निर्माता सूरज बड़जात्या और प्रोडक्शन हाउस राजश्री प्रोडक्शंस के साथ उनके दीर्घकालिक सहयोग के लिए जाना जाता है.

रामलक्ष्मण का जन्म 16 सितंबर 1942 को हुआ था. उन्होंने संगीत की शिक्षा अपने पिता और चाचा से ली थी. बाद में उन्होंने ‘भातखंडे शिक्षण संस्थान’ में संगीत का अध्ययन किया. उन्होंने हिंदी फिल्मों के अलावा रामलक्ष्मण ने मराठी और भोजपुरी फिल्मों के लिए भी काम किया था. उन्होंने करीब 150 फिल्मों में संगीत दिया था, जिसमें हिंदी के अलावा मराठी और भोजपुरी भी शामिल है.

संगीत: –

“मैंने प्यार किया” (1989): – इस फ़िल्म का साउंडट्रैक बेहद सफल रहा और अपने समय का सबसे लोकप्रिय साउंडट्रैक था.

“हम आपके हैं कौन..!” (1994): – इस फ़िल्म का संगीत एक क्लासिक माना जाता है और आज भी पसंद किया जाता है.

“हम साथ साथ हैं” (1999): – इस फ़िल्म के गाने भी काफ़ी सफल रहे.

“तारस” (1987): – एक लोकप्रिय मराठी फ़िल्म.

 राम लक्ष्मण का संगीत अक्सर सरल लेकिन मधुर होता था, जो दर्शकों से अच्छी तरह जुड़ जाता था. राजश्री प्रोडक्शंस की फिल्मों के उनके गीत, विशेष रूप से, संस्कृति का अभिन्न अंग बन गए. रामलक्ष्मण का निधन 22 मई 2021 को नागपुर, महाराष्ट्र में हुआ था.

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बेगम जहाँआरा

जहाँआरा बेगम मुग़ल साम्राज्य की एक महत्वपूर्ण हस्ती थीं, जिन्हें राजनीति, संस्कृति और अर्थव्यवस्था में उनके विविध योगदान के लिए याद किया जाता है. सम्राट शाहजहाँ और मुमताज महल की सबसे बड़ी बेटी के रूप में, उन्हें पादशाह बेगम की उपाधि दी गई, जिससे वह साम्राज्य की सबसे शक्तिशाली महिलाओं में से एक बन गईं. उन्हें साहिबात अल-ज़मानी (उम्र की महिला) और बेगम साहिब (राजकुमारियों की राजकुमारी) के नाम से भी जाना जाता था.

बेगम जहाँआरा का जन्म 23 मार्च 1614 को अजमेर में हुआ था. जहाँआरा उच्च शिक्षित थी, राजनीति और अर्थशास्त्र की पेचीदगियों को समझती थी और सूफीवाद में उसकी गहरी रुचि थी. उनकी शिक्षा में फ़ारसी साहित्य और कुरान शामिल थे, और उन्होंने मुगल दरबार के दैनिक कार्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. विशेष रूप से, उन्होंने पारिवारिक संघर्षों के दौरान अपने पिता शाहजहाँ और अपने भाई औरंगजेब के बीच मध्यस्थता की थी. उसकी राजनीतिक कुशलता ऐसी थी कि वह सम्राट के निर्णयों को भी प्रभावित कर सकती थी.

जहाँआरा का एक महत्वपूर्ण योगदान मुगल भारत के स्थापत्य और शहरी विकास में था. उन्होंने दिल्ली के चांदनी चौक को डिज़ाइन किया, जो शहर के सबसे प्रसिद्ध बाज़ारों में से एक है, जो आज भी एक प्रमुख व्यावसायिक केंद्र बना हुआ है. वास्तुकला और शहरी नियोजन के प्रति उनका दृष्टिकोण उनकी नवोन्वेषी और दूरदर्शी सोच को दर्शाता है.

जहाँआरा न केवल राजनीति और वास्तुकला में शामिल थीं बल्कि उन्होंने आर्थिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनके पास साहिबी नाम का एक जहाज था, जो उनके कारखानों से माल सूरत में उनके बंदरगाह तक ले जाता था, जिससे उनकी आय में काफी वृद्धि हुई. अंग्रेज़ों और डचों के साथ उनके व्यापारिक संबंध उनकी व्यापारिक कुशलता का प्रमाण थे. अपनी संपत्ति और शक्ति के बावजूद, वह दान के प्रति गहराई से प्रतिबद्ध थी, नियमित रूप से भिक्षा देने के कार्यों में संलग्न रहती थी और विभिन्न सामाजिक कारणों का समर्थन करती थी.

सूफीवाद के प्रति उनका समर्पण गहरा था, जैसा कि उनके लेखन और मुल्ला शाह बदख्शी के शिष्य के रूप में उनकी भूमिका से पता चलता है. उन्होंने सूफीवाद पर कई किताबें लिखीं, जिनमें मोइनुद्दीन चिश्ती की जीवनी भी शामिल है, जो इस्लाम की रहस्यमय शाखा के साथ उनके गहरे आध्यात्मिक और बौद्धिक जुड़ाव को दर्शाती है.

जहाँआरा का जीवन वैभव और त्रासदी दोनों से चिह्नित था, आग से उसकी लगभग घातक दुर्घटना से लेकर उसके अंतिम वर्षों के दौरान अपने पिता के प्रति उसके अटूट समर्थन तक. अपनी संपत्ति और पद के बावजूद, उन्होंने अपनी सूफी मान्यताओं के अनुरूप एक साधारण विश्राम स्थल चुना, जो आकाश की ओर खुला था और केवल हरियाली से ढका हुआ था. बेगम जहाँआरा का निधन 16 सितंबर 1681 को हुआ था. उनकी जीवन कहानी उनके लचीलेपन, बुद्धिमत्ता और गहरी आध्यात्मिकता का प्रमाण है, जो उन्हें मुगल काल की सबसे उल्लेखनीय महिलाओं में से एक बनाती है.

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परमवीर चक्र से सम्मानित ए. बी. तारापोरे

लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोर्जी तारापोरे (ए. बी. तारापोरे) भारतीय सेना के एक वीर अधिकारी थे, जिन्हें 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में उनके अद्वितीय साहस और वीरता के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था. यह भारत का सर्वोच्च सैन्य सम्मान है, जो असाधारण वीरता के लिए दिया जाता है.

अर्देशिर तारापोरे का जन्म 18 अगस्त, 1923 को बम्बई (अब मुम्बई), महाराष्ट्र में हुआ था और उनकी मृत्यु 16 सितंबर 1965, फिल्लौरा, पाकिस्तान (वर्तमान में पंजाब, पाकिस्तान) में हुआ था. लेफ्टिनेंट कर्नल ए. बी. तारापोरे 17वाँ हॉर्स (पोएना हॉर्स) के कमांडिंग ऑफिसर थे. वर्ष 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान, उन्हें पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में फिल्लौरा क्षेत्र पर हमला करने का आदेश दिया गया था.

11- 16 सितंबर 1965 के बीच, लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोरे ने अपने टैंक रेजिमेंट को प्रभावी ढंग से नेतृत्व किया. उन्होंने अपनी टुकड़ी को अद्वितीय साहस और दृढ़ता के साथ फिल्लौरा क्षेत्र पर कब्जा करने का निर्देश दिया. इस दौरान उन्होंने दुश्मन के कई टैंकों को नष्ट कर दिया और अपनी टुकड़ी को भारी नुकसान से बचाया. लड़ाई के दौरान उन्हें गंभीर रूप से चोटें आईं, लेकिन उन्होंने अपने सैनिकों का नेतृत्व करना जारी रखा.उनके साहसिक और अदम्य नेतृत्व के कारण भारतीय सेना ने फिल्लौरा में महत्वपूर्ण जीत हासिल की.

16 सितंबर 1965 को, पाकिस्तान द्वारा भारी गोलाबारी में लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोरे शहीद हो गए, लेकिन उन्होंने अंतिम क्षण तक अपनी टुकड़ी का नेतृत्व किया और दुश्मन को भारी नुकसान पहुँचाया. लेफ्टिनेंट कर्नल ए. बी. तारापोरे को उनकी असाधारण वीरता और बलिदान के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. यह सम्मान उन्हें भारतीय सेना में उनकी उत्कृष्ट सेवा और देश के प्रति उनके सर्वोच्च बलिदान के लिए दिया गया.

लेफ्टिनेंट कर्नल ए. बी. तारापोरे का नाम भारतीय सेना के सबसे वीर और समर्पित सैनिकों में शामिल है. उनका साहस, नेतृत्व, और देशभक्ति आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा बने रहेंगे. उनकी वीरता को न केवल भारतीय सेना में बल्कि पूरे राष्ट्र में सम्मानित किया जाता है.

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