
धुप-छांव -13.
आईने में लौटा चेहरा “आईने कभी चेहरा नहीं दिखाते, वे भाव लौटाते हैं—जैसे कोई भूली हुई आवाज़ स्मृति में फिर से बोले.”
शहर की हल्की सी रोशनी कमरे में झांक रही है। अर्पिता अपनी लिखी डायरी बंद कर खड़ी होती है—सामने वही पुराना, धुंधला-सा आईना। उसने बरसों पहले इसे गाँव से लाकर एक कोने में रखा था। तब से वह उसमें खुद को देखती रही… लेकिन कभी कुछ “पूरा” नहीं दिखाई दिया।
आज… कुछ अलग है। आईना बस चेहरा नहीं, भाव लौटाता है।
आत्म-दर्शन का आभास — एक मौन संवाद
आईना (कल्पित स्वर): “तुम अब भी वही हो… पर अब तुम्हारी आँखें सवाल नहीं, उत्तर देती हैं।”
अर्पिता: “मैं डरती थी… कि अगर मैं खुद से आँख मिलाऊँ, तो कहीं वो सब न दिख जाए जो मैंने पीछे छोड़ दिया था।”
आईना: “तुमने कुछ छोड़ा नहीं, तुमने वह गहराई चुनी जो चेहरे से परे थी। और अब… वो गहराई खुद तुम्हारा चेहरा बन गई है।”
डायरी की अगली पंक्ति
“आईना कभी झूठ नहीं बोलता, पर वह देर से सच दिखाता है—जब हम खुद को उस तरह देखना सीख जाते हैं।”
उस पंक्ति के नीचे अर्पिता धीरे से लिखती है—
“मैं अब भी वही हूँ… लेकिन अब मैं खुद से डरती नहीं।”
आईने में लौटा चेहरा: कौन था वो?
वो चेहरा जो लौटा—क्या प्रभात था? या वह स्वयं अर्पिता थी, अपनी संपूर्णता में?
शायद दोनों।
क्योंकि कोई भी प्रेम जब स्मृति से होकर लौटता है, वह हमारे भीतर का एक टुकड़ा लेकर आता है—और आईना, उस टुकड़े को जोड़ देता है.
संकेतात्मक समापन
अब आईना सिर्फ दर्पण नहीं, एक खिड़की है—जहाँ से अर्पिता खुद को देखती नहीं, पहली बार समझती है।
आवाज़ जो उत्तर नहीं माँगती” या एक प्रतीकात्मक संग्रह, जिसमें प्रत्येक वस्तु अब स्वयं में एक अध्याय हो!
शेष भाग अगले अंक में…,