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मानसिक वेदना…

दबी हुई आवाजें

कार्यालय पहुँचकर विकाश ने अपने चेहरे पर एक हल्की मुस्कान लाने की कोशिश की. रिसेप्शन पर बैठी मालती ने उसका अभिवादन किया, “सुप्रभात, विकाश!”

“सुप्रभात, मालती,” उसने जवाब दिया, उसकी आवाज थोड़ी दबी हुई थी.

अपने डेस्क पर बैठकर उसने कंप्यूटर खोला, लेकिन स्क्रीन पर तैरते हुए अक्षर धुंधले लग रहे थे. उसका ध्यान भटक रहा था. पिछली रात के अधूरे सपने, मन में उठते अनगिनत सवाल, और भविष्य की एक अनिश्चित धुंध – सब कुछ मिलकर उसके विचारों को उलझा रहा था.

बैठक शुरू हुई और विक्रम ने ध्यान देने की कोशिश की, लेकिन उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह एक कांच की दीवार के पीछे बैठा हो, जहाँ आवाजें तो आ रही थीं, पर उनका अर्थ पूरी तरह से समझ में नहीं आ रहा था. जब उससे उसकी राय पूछी गई, तो उसे लगा कि उसका गला सूख रहा है.

” विकाश?” उसके बॉस, मिस्टर शर्मा ने पूछा.

उसने हाँफते हुए कहा, “जी… मैं… मुझे थोड़ा और समय चाहिए इस पर सोचने के लिए.”

कमरे में कुछ पल की चुप्पी छा गई. मिस्टर शर्मा ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “ज़रूर, विकाश. जब तुम तैयार हो तो बताना.”

बैठक के बाद विकाश अपने केबिन में लौट आया. उसे अपनी इस कमजोरी पर गुस्सा आ रहा था. वह क्यों नहीं दूसरों की तरह सामान्य रूप से बातचीत कर पाता? क्यों उसके मन में हमेशा इतना उथल-पुथल मची रहती है?

लंच ब्रेक में वह कैंटीन नहीं गया. उसे लोगों के बीच बैठने और उनसे बातचीत करने का मन नहीं था. वह अपनी डेस्क पर ही बैठा रहा, एक सैंडविच को बिना मन के चबाता रहा.

तभी उसके फोन की घंटी बजी. उसकी बहन, रीना का फोन था.

“हेलो, भैया! क्या हाल है?” रीना की आवाज हमेशा ऊर्जा से भरी होती थी.

विकाश ने एक गहरी साँस ली. “मैं ठीक हूँ, रीना. तुम कैसी हो?”

“मैं बिल्कुल ठीक! तुम्हें याद है, अगले हफ्ते मेरा जन्मदिन है?”

“हाँ, हाँ, मुझे याद है,” विकाश ने कहा. उसे रीना का जन्मदिन याद था, लेकिन इस समय उसे किसी भी तरह के उत्सव में शामिल होने की कल्पना करना भी मुश्किल लग रहा था.

“तुम आ रहे हो ना?” रीना ने पूछा, उसकी आवाज में थोड़ी अनिश्चितता थी. विकाश कुछ देर चुप रहा. “मैं कोशिश करूँगा, रीना. अभी थोड़ा काम में व्यस्त हूँ.”

“ठीक है, भैया. अपना ख्याल रखना.”

फोन रखने के बाद विकाश को और भी अकेला महसूस हुआ. वह जानता था कि रीना को उसकी ज़रूरत है, लेकिन उसे खुद ही नहीं पता था कि वह अपनी इस मानसिक स्थिति से कब बाहर निकल पाएगा.

शाम को घर लौटते समय रास्ते भर उसके मन में यही सब चलता रहा. उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह एक दलदल में फँसता जा रहा है, जहाँ से निकलने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था.

घर पहुँचकर उसने दरवाजा बंद कर लिया और कमरे की बत्तियाँ नहीं जलाईं. वह अंधेरे में ही बैठा रहा, अपनी सोचो के शोर को सुनता रहा.

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई…

” विकाश? क्या तुम ठीक हो?” यह उसकी पड़ोसी, अनिता की आवाज थी.

विकाश ने कोई जवाब नहीं दिया.

” विकाश, मुझे पता है तुम अंदर हो. क्या मैं आ सकती हूँ?”

वह कुछ देर चुप रहा, फिर धीरे से कहा, “हाँ.”

अनिता अंदर आई. कमरे के अंधेरे को देखकर वह समझ गई कि कुछ ठीक नहीं है. वह बिना कुछ कहे उसके पास बैठ गई.

कुछ देर तक कमरे में खामोशी छाई रही. फिर अनिता ने धीरे से कहा, “तुम अकेले नहीं हो, विकाश.”

शेष भाग अगले अंक में…,

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