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व्यक्ति विशेष

भाग – 478.

सिक्खों के नौवें गुरु गुरु तेग़ बहादुर

गुरु तेग़ बहादुर सिख धर्म के नौवें गुरु थे जिन्हें अपनी धार्मिक सहिष्णुता और बलिदान के लिए याद किया जाता है. उनका जन्म 21 अप्रैल 1621 को अमृतसर में हुआ था, और वे गुरु हरगोबिंद के पुत्र थे. गुरु तेग़ बहादुर ने वर्ष 1665 में गुरुगद्दी संभाली. उनके गुरुकाल के दौरान, उन्होंने अनेक यात्राएँ कीं और धार्मिक शिक्षाएँ दीं.

मुगल शासक औरंगजेब ने सिखों के नवें गुरु, गुरु तेग बहादुर पर मुस्लिम धर्म अपनाने का दबाव बनाया था लेकिन उन्होंने जब औरंगजेब की बात नहीं मानी तो औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर का सिर 24 नवंबर, 1675 को कटवा दिया था.

गुरु तेग़ बहादुर का सबसे प्रमुख कार्य था उनका बलिदान, जो उन्होंने वर्ष 1675 में दिल्ली में दिया. उन्होंने कश्मीरी पंडितों की मदद के लिए आगे आए थे, जो उस समय मुगल सम्राट औरंगजेब के धर्म परिवर्तन के दबाव में थे. गुरु तेग़ बहादुर ने उनकी धार्मिक स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन बलिदान किया, जिससे वे ‘हिन्द की चादर’ के नाम से भी विख्यात हुए.

उनका यह बलिदान सिख धर्म में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है और यह सिखों की धार्मिक स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए उनके संघर्ष का प्रतीक है. उनके बलिदान के बाद, उनके पुत्र गुरु गोबिन्द सिंह ने गुरुगद्दी संभाली, जो खालसा पंथ के संस्थापक बने.

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धोंडो केशव कर्वे

धोंडो केशव कर्वे जिन्हें महर्षि कर्वे के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय समाज सुधारक और महिला शिक्षा के प्रणेता थे. उनका जन्म 18 अप्रैल 1858 को महाराष्ट्र में हुआ था और उन्होंने अपना पूरा जीवन महिलाओं की शिक्षा और सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए समर्पित कर दिया था.

कर्वे ने वर्ष 1896 में पुणे में ‘हिंगणे स्त्री शिक्षण समिति’ की स्थापना की, जो विधवाओं और अन्य उपेक्षित महिलाओं के लिए शिक्षा प्रदान करती थी. इस संस्था का नाम बाद में बदलकर महाराष्ट्र महिला विद्यालय हो गया. कर्वे ने महिलाओं के लिए कॉलेज की शिक्षा तक पहुँच सुधारने के लिए वर्ष 1916 में श्रीमती नाथीबाई दामोदर ठाकरसी महिला विश्वविद्यालय (SNDT) की स्थापना की. यह भारत का पहला महिला विश्वविद्यालय था.

धोंडो केशव कर्वे को उनके योगदान के लिए वर्ष 1958 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया. उनका निधन 9 नवंबर 1962 को हुआ था. उनकी विरासत आज भी महिला शिक्षा और सामाजिक सुधार के क्षेत्र में प्रेरणा का स्रोत है.

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राजनीतिज्ञ चन्देश्वर प्रसाद नारायण सिंह

 चन्देश्वर प्रसाद नारायण सिंह भारतीय राजनीति के प्रमुख व्यक्तित्व थे, जिन्होंने विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर काम किया। वे भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के एक प्रमुख राजनीतिक और सामाजिक व्यक्तित्व थे और उन्होंने अपने जीवनकाल में विभिन्न राजनीतिक और प्रशासनिक भूमिकाएँ निभाईं.

चन्देश्वर प्रसाद नारायण सिंह का जन्म 18 अप्रैल 1901 को पारसगढ़, बिहार में हुआ था. वर्ष 1927 में उन्हें बिहार की विधान परिषद का सदस्य नियुक्त किया गया. वर्ष 1945 में वे संयुक्त पटना विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुए. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने वर्ष 1950 में उन्हें नेपाल में भारत का राजदूत बनाया गया. राजदूत बने रहने के दौरान  नेपाल के राजा ने भारतीय दूतावास में शरण ली थी.

चन्देश्वर प्रसाद नारायण सिंह का सबसे उल्लेखनीय कार्यकाल बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में था. उन्होंने वर्ष 1961- 63 तक बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया और इस दौरान उन्होंने विभिन्न विकासात्मक और सामाजिक कल्याण की योजनाओं को लागू किया।

चन्देश्वर प्रसाद नारायण सिंह का निधन 1993 में हुआ था. उनका  राजनीतिक जीवन उनके द्वारा किए गए विकासात्मक कार्यों और सामाजिक उत्थान के लिए उनकी प्रतिबद्धता के लिए याद किया जाता है. उनकी योगदान भारतीय राजनीति में विशेष महत्व रखता है.

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अभिनेत्री ललिता पवार

ललिता पवार भारतीय सिनेमा की एक अभिनेत्री थीं, जिन्होंने लगभग सात दशकों तक अपनी अद्वितीय अभिनय क्षमता से हिंदी और मराठी फिल्मों में अपनी छाप छोड़ी. उनका जन्म 18 अप्रैल, 1916 को महाराष्ट्र में हुआ था, और उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत बहुत ही कम उम्र में की थी.

ललिता पवार को विशेष रूप से उनकी खलनायिका और माँ की भूमिकाओं के लिए जानी जाती है. उन्होंने 700 से अधिक फिल्मों में काम किया था, जिसमें उन्होंने विभिन्न तरह के पात्र निभाए। उनकी सबसे प्रसिद्ध फिल्मों में से कुछ हैं “श्री 420”, “अनारी”, “मिस्टर & मिसेज 55”, और “सौदागर”.

ललिता पवार के अभिनय कैरियर में एक उल्लेखनीय घटना वर्ष 1942 में हुई थी, जब एक फिल्म के दृश्य के दौरान एक अभिनेता ने गलती से उन्हें बहुत जोर से थप्पड़ मार दिया, जिससे उनकी एक आँख को स्थायी रूप से नुकसान पहुंचा. इस घटना ने उनके कैरियर को एक नई दिशा दी, जिसमें उन्होंने अधिकतर प्रौढ़ और खलनायिका की भूमिकाएँ निभाईं.

ललिता पवार का निधन 24 फरवरी, 1998 को हुआ था, लेकिन उनकी फिल्में और उनका अभिनय आज भी दर्शकों के बीच लोकप्रिय हैं. उनका योगदान भारतीय सिनेमा के इतिहास में स्थायी रूप से दर्ज है.

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अभिनेत्री दुलारी देवी

 दुलारी देवी भारतीय सिनेमा की एक लोकप्रिय चरित्र अभिनेत्री थीं, जिन्होंने वर्ष 1940 के दशक से वर्ष 1990 के दशक तक कई हिंदी फिल्मों में काम किया. उनका असली नाम अंबिका गौतम था और वे प्रमुख रूप से सहायक भूमिकाओं में नजर आईं. उन्हें अक्सर मातृ या पारिवारिक मित्र की भूमिकाओं में देखा गया.

दुलारी देवी का जन्म 18 अप्रैल 1928 को नागपुर, महाराष्ट्र में हुआ था. उनके पिता का नाम विट्ठलराव गौतम था जो डाक-तार विभाग में नौकरी करते थे, लेकिन अभिनय का उन्हें इतना शौक़ था कि नौकरी छोड़कर नाटक कंपनी के साथ मुंबई आ गए. दुलारी अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी और उनका नाम अंबिका रखा गया लेकिन, सभी उन्हें प्यार से राजदुलारी कहकर पुकारते थे जो आगे चलकर सिर्फ़ ‘दुलारी’ रह गया.

दुलारी ने अपने कैरियर में 200 से अधिक फिल्मों में काम किया, जिसमें कुछ प्रमुख फिल्में जैसे कि “देवर”, “मैं चुप रहूँगी”, “जब जब फूल खिले”, और “अनुपमा” शामिल हैं. उनकी उपस्थिति ने कई फिल्मों में पारिवारिक और भावनात्मक दृश्यों को गहराई प्रदान की.

उनकी विशिष्ट भूमिकाएँ अक्सर ऐसी माँ की थीं, जो अपने परिवार की भलाई के लिए समर्पित होती थीं, और इस तरह की भूमिकाओं में उनका अभिनय प्रशंसनीय था. दुलारी देवी का निधन 18 जनवरी 2013 को मुंबई में हुआ था. उनकी अभिनय क्षमता और उनकी स्क्रीन उपस्थिति ने उन्हें हिंदी सिनेमा में एक यादगार चरित्र अभिनेत्री के रूप में स्थान दिलाया.

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अभिनेत्री पूनम ढिल्लों

पूनम ढिल्लों भारतीय सिनेमा की एक प्रमुख अभिनेत्री हैं, जिन्होंने वर्ष 1980 के दशक में अपने अभिनय कैरियर की शुरुआत की. वह वर्ष 1978 में “मिस इंडिया” खिताब जीतने के बाद फिल्म जगत में आईं और उन्होंने अपनी पहली फिल्म “त्रिशूल” में सहायक भूमिका निभाई. उसके बाद, उन्होंने “नूरी” (1979) में मुख्य भूमिका निभाई, जिसके लिए उन्हें काफी प्रशंसा मिली और यह फिल्म उनके कैरियर की एक मील का पत्थर साबित हुई.

पूनम ढिल्लों ने “सोहनी महिवाल”, “रेड रोज”, “एक चादर मैली सी”, और “तेरी मेहरबानियाँ” जैसी अन्य सफल फिल्मों में काम किया। उनकी ऑन-स्क्रीन उपस्थिति और अभिनय क्षमता ने उन्हें वर्ष 1980 के दशक की एक लोकप्रिय अभिनेत्री बना दिया.

पूनम का अभिनय कैरियर उतार-चढ़ाव से भरा रहा, लेकिन उन्होंने समय के साथ विभिन्न प्रकार की भूमिकाएँ निभाईं। फिल्मों के अलावा, पूनम ढिल्लों ने टेलीविजन शोज में भी काम किया और उन्हें “बिग बॉस” जैसे रियलिटी शो में भी देखा गया.

पूनम ढिल्लों का जन्म 18 अप्रैल 1962 को कानपूर, उत्तर प्रदेश में हुआ था. उनके पिता का नाम अमरीक सिंह है जो कि एक एयरोनॉटिक्‍स इंजीनियर थे, तथा उनकी मां का नाम गुरचरण कौर है. पूनम का एक भाई और एक बहन भी है. पूनम ढिल्लों ने वर्ष 1988 में फिल्म निर्माता अशोक ठाकेरिया से विवाह किया. उनके दो बच्चे हैं अनमोल और पलोमा ठाकेरिया.

उन्होंने राजनीति में भी कदम रखा और सामाजिक कार्यों में सक्रिय रही हैं. पूनम ढिल्लों ने अपनी विविध भूमिकाओं और योगदानों के माध्यम से अपने प्रशंसकों और आलोचकों से सम्मान प्राप्त किया है और भारतीय मनोरंजन जगत में एक सम्मानित स्थान बनाए रखा है.

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तात्या टोपे

 तात्या टोपे जिन्हें रामचंद्र पांडुरंग यावलकर के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महत्वपूर्ण क्रांतिकारी थे. वे वर्ष 1857 की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख सेना-नायकों में से एक थे. तात्या टोपे मराठा वंश से थे और उन्होंने अपने मिलिटरी कौशल और रणनीतिक योगदान से विद्रोह में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

तात्या टोपे का जन्म 16 फरवरी 1814 को  महाराष्ट्र में नाशिक के निकट येवला नामक गाँव में एक देशस्थ ब्राह्मण परिवार में हुआ था. तात्या का वास्तविक नाम रामचंद्र पाण्डुरंग राव था, परंतु लोग स्नेह से उन्हें तात्या के नाम से पुकारते थे. तात्या टोपे ने मुख्य रूप से कानपुर और ग्वालियर क्षेत्रों में सक्रिय थे. वे नाना साहेब पेशवा के सहयोगी थे और उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ कई महत्वपूर्ण लड़ाईयां लड़ीं. तात्या की युद्ध कौशल और गुरिल्ला युद्ध तकनीक ने ब्रिटिश सेनाओं को कई बार चुनौती दी और वे लंबे समय तक ब्रिटिश सेना से बचने में सफल रहे.

आखिरकार, तात्या टोपे को वर्ष 1859 में धोखे से पकड़ लिया गया और उन्हें शिवपुरी में मुकदमा चलाया गया. 18 अप्रैल 1859 को उन्हें फांसी की सजा दी गई. उनकी मृत्यु ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक नायक के रूप में उनकी स्थिति को मजबूत किया और वे भारतीय इतिहास में एक प्रेरणादायक आकृति के रूप में स्मरण किए जाते हैं.

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क्रांतिकारी दामोदर हरी चापेकर

दामोदर हरी चापेकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख क्रांतिकारी थे, जिन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाफ संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्हें उनके दो भाइयों, बालकृष्ण और वासुदेव चापेकर के साथ मिलकर वर्ष 1897 में पुणे में वॉल्टर चार्ल्स रैंड, प्लेग कमिश्नर की हत्या के लिए जाना जाता है.

दामोदर हरी चापेकर का जन्म 24 जून, 1869 को महाराष्ट्र में पुणे के ग्राम चिंचवाड़ में हुआ था. उनके पिता का नाम हरिपंत चापेकर था. बचपन से ही सैनिक बनने की इच्छा दामोदर हरी चापेकर के मन में थी और उनके आदर्श महर्षि पटवर्धन और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक थे.

चापेकर भाईयों ने यह हत्या तब की थी जब पुणे में प्लेग की महामारी फैली हुई थी और ब्रिटिश प्रशासन द्वारा इसके नियंत्रण के लिए अपनाई गई कठोर नीतियों के कारण जनता में बहुत रोष था. रैंड की हत्या का मकसद ब्रिटिश प्रशासन को एक सख्त संदेश देना था कि भारतीय जनता उनकी दमनकारी नीतियों को सहन नहीं करेगी. इस घटना के बाद चापेकर भाई और उनके सहयोगी गिरफ्तार किए गए और उन्हें मुकदमे के बाद फाँसी की सजा सुनाई गई. दामोदर और बालकृष्ण दोनों को वर्ष 18 अप्रैल 1898 को फाँसी दी गई थी.

दामोदर हरी चापेकर और उनके भाईयों का बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक प्रेरणा के रूप में देखा जाता है. उनकी कहानी ने कई अन्य क्रांतिकारियों को भी प्रेरित किया और यह घटना ब्रिटिश राज के खिलाफ भारतीय प्रतिरोध के इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण के रूप में याद की जाती है.

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विद्वान् पंडित पांडुरंग वामन काणे

पंडित पांडुरंग वामन काणे एक प्रसिद्ध भारतीय विद्वान, इंदोलॉजिस्ट और संस्कृत विद्वान थे. उनका जन्म 07 मई 1880 को महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में हुआ था. पंडित काणे को उनके विशेषज्ञता क्षेत्र में विशेष रूप से धर्मशास्त्र और धार्मिक इतिहास में उल्लेखनीय योगदान के लिए जाना जाता है. उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य “हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र” है, जिसमें वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक के धर्मशास्त्र का व्यापक और विस्तृत विश्लेषण किया गया है. यह कार्य अपनी व्यापकता और गहराई के लिए विश्व स्तर पर प्रसिद्ध है.

पंडित काणे ने अपनी शिक्षा मुंबई विश्वविद्यालय से प्राप्त की और वहीं पर उन्होंने अध्यापन भी किया. उनकी विद्वता को देखते हुए उन्हें कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से नवाजा गया, जिनमें से सबसे प्रमुख 1963 में प्राप्त भारत रत्न है. इसके अलावा, उन्हें पद्म भूषण भी प्रदान किया गया था.

पंडित काणे की विद्वानता ने उन्हें साहित्य, दर्शन, इतिहास, और धर्मशास्त्र के क्षेत्र में एक विशेष स्थान प्रदान किया. पंडित पांडुरंग वामन काणे का निधन 18 अप्रैल 1972 को हुआ था. उनकी विद्वता और योगदान का महत्व संस्कृति और अध्ययन के क्षेत्र में बना हुआ है.

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