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डिग्री है, रोजगार नहीं : एक व्यंग्य

सुबह-सुबह चाय का प्याला लेकर अख़बार खोला, तो एक विज्ञापन पर नजर पड़ी —”MBA, B.Tech, PhD. पास बेरोज़गार युवक-युवतियों के लिए सुनहरा मौका! चपरासी, ड्राइवर और चौकीदार की सरकारी भर्ती.” मैंने आँखें मलीं, दोबारा पढ़ा. कोई गलती नहीं थी. वाकई, नौकरी वही पा सकता है जो पहले ये साबित कर दे कि वह ‘अति-योग्य’ है.

घर के बाहर नजर डाली तो देखा, पड़ोसी शर्मा जी का बेटा, जो इंजीनियरिंग में गोल्ड मेडलिस्ट था, गली के नुक्कड़ पर पकौड़े बेच रहा था. पास ही गुप्ता जी का लड़का, जो एमए इंग्लिश कर चुका था, ऑटो चलाने की ट्रेनिंग ले रहा था और वर्मा जी की बिटिया, जिसने एमबीए किया था, वह अपने पापा की किराने की दुकान पर बैठी थी और ग्राहकों से बार्गेनिंग में फँसी थी —”भैया, दो रुपये और कम करो, MBA की कसम!”.

बचपन से हमें सिखाया गया कि “बेटा, पढ़-लिखकर कलेक्टर बनना.” पढ़ाई के नाम पर चार किलो किताबें, आठ घंटे ट्यूशन, और दस साल की कोचिंग झेली. स्कूल में टीचर ने कहा, “बेटा, नंबर अच्छे लाओगे तो अच्छी नौकरी मिलेगी. “हमने बात मानी. माँ-बाप ने भी कान खड़े किए, लोन लिया और हमें इंजीनियरिंग-मैनेजमेंट करवा दिया. मगर जब डिग्री हाथ में आई, तो मार्केट से नौकरियाँ गायब थीं.

अब कलेक्टर बनने का सपना तो दूर, नौकर बनने की उम्मीद भी धुँधली हो गई थी. कंपनियों में इंटरव्यू दिया तो जवाब मिला —”आपकी योग्यता अच्छी है, लेकिन एक्सपीरियंस नहीं है.” अरे भाई, पहले नौकरी दोगे, तभी तो एक्सपीरियंस आएगा!  फिर सोचा, सरकारी नौकरी ट्राई करें. फॉर्म भरा, फीस दी, परीक्षा दी. परिणाम आया —”पद: 5, उम्मीदवार: 5 लाख!” मतलब एक सीट के लिए लाखों युवाओं की भीड़. अब भगवान से ज्यादा किस्मत वाला ही चयनित होता है. बाकी सब बेरोज़गारी की गंगोत्री में डुबकी लगाने चले जाते हैं.

कोई 10वीं पास की नौकरी के लिए एमए, एमबीए, बीटेक लेकर लाइन में खड़ा है. इंटरव्यू लेने वाला भी चौंक जाता है —”भाईसाहब, आप तो ज्यादा पढ़े-लिखे हो, आपको यह नौकरी क्यों चाहिए?” बेरोज़गार प्रत्याशी उत्तर देता है —”सर, भूख लगती है, इसलिए.”

बेरोज़गारी के नए विकल्प: –

अब जब सरकारी नौकरी, प्राइवेट जॉब सब हाथ से गया, तो नए विकल्प तलाशे.

यूट्यूब चैनल:  “बेरोजगार की आवाज” नाम से चैनल बनाया, मगर वहाँ भी कमाई से ज्यादा कॉपीराइट स्ट्राइक मिली.

टेम्पो चलाना: पढ़ाई के दौरान सीखी ‘स्ट्रेस मैनेजमेंट’ की कला अब जाम में फँसे ग्राहकों को झेलने में काम आ रही है.

पकौड़े बेचने का आइडिया: हमारे प्रधानमंत्री जी ने सही कहा था — पकौड़ा बेचो. मगर जैसे ही ठेला लगाया, नगर निगम वाले आ गए —”तुम्हारे पास लाइसेंस है?”

समस्या यह है कि हमारे देश में डिग्री की बहुत इज़्ज़त है, लेकिन कौशल की कोई कद्र नहीं. कोई पूछता नहीं कि आपको काम क्या आता है, बस पूछा जाता है — “डिग्री कितनी मोटी है?”. डॉक्टर इंजीनियर बन गए, लेकिन मोबाइल ठीक करवाने के लिए आज भी चौराहे वाले “मोबाइल रिपेयरिंग” की दुकान पर जाना पड़ता है.

आजकल डिग्री लेना वैसा ही है जैसे 5 लाख की घड़ी पहनकर भूखे रहना. पढ़ाई के नाम पर लोन चढ़ जाता है, मगर जॉब नहीं मिलती. अब बेरोज़गार युवा दो ही रास्तों पर जाता है — या तो “संघर्षशील युवा” बनकर PHD करता रहता है, या फिर “समाज-सेवा” के नाम पर चुनाव लड़ने की तैयारी करता है.

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