
वर्तमान समय का दौर महानायकों का दौर है. यहाँ हर कोई ‘सेल्फ-मेड’ मैन बनने का सपना देखता है. हर दूसरा व्यक्ति खुद को चन्द्रगुप्त मौर्य समझता है – जो एक साधारण बालक से सम्राट बना. सोशल मीडिया की हर प्रोफाइल पर ‘एम्पायर बिल्डर’, ‘विजनरी’, ‘सेल्फ स्टार्टर’ जैसे टैग चस्पाँ हैं. गली-गली में, ऑफिस के क्यूबिकल में, और स्टार्ट-अप के ऑफिस में करोड़ों चन्द्रगुप्त अपना साम्राज्य बनाने में जुटे हैं. लेकिन एक बेहद जरूरी सवाल यह है कि जब चन्द्रगुप्तों की इतनी भीड़ है, तो फिर चाणक्य कहाँ गायब हो गए हैं?
आज का चन्द्रगुप्त I.I.T. से है, आई.आई.एम. से है, या फिर ‘मोटर गारेज’ से निकला है. उसके पास एक ‘डिस्रप्टिव आइडिया’ है, एक शानदार ‘पिच’ है, और वेंचर कैपिटलिस्ट्स से फंडिंग लेकर ‘एम्पायर’ (रीड: स्टार्ट-अप) बनाने का सपना है. उसकी नजर सिर्फ ‘एग्जिट’ पर है – या तो आई.पी.ओ. के जरिए या किसी बड़ी कंपनी द्वारा अधिग्रहण के जरिए. उसका साम्राज्य भौतिक नहीं, डिजिटल है. उसकी प्रजा उसके ऐप के यूजर्स हैं और उसकी सेना उसकी मार्केटिंग टीम है.
ये आधुनिक चन्द्रगुप्त ‘अर्थशास्त्र’ नहीं, ‘इकोनॉमिक्स’ पढ़कर आए हैं. इन्हें राज्य चलाने का ‘नीति’ से कोई लेना-देना नहीं, बल्कि ‘नेटवर्क इफेक्ट’ और ‘वायरलिटी’ से मतलब है. ये ‘साम, दाम, दंड, भेद’ नहीं जानते, ‘एसईओ, एसएमओ, पीपीसी, और कंटेंट मार्केटिंग’ जानते हैं. और चाणक्य…? The Missing Mentors तो फिर वे लोग कहाँ हैं जो इन अनगढ़ चन्द्रगुप्तों को तराश सकते थे? वे चाणक्य, जो न सिर्फ रणनीति बनाते थे बल्कि चरित्र भी गढ़ते थे?
चाणक्य अब ‘मेंटर्स’ बन गए हैं: असली चाणक्य अब ‘को-फाउंडर’ की हैसियत से काम करते हैं. उनका लक्ष्य सिर्फ ‘वैल्यू क्रिएशन’ नहीं, ‘वैल्यूएशन’ बढ़ाना है. वे चन्द्रगुप्त को ‘धर्म’ और ‘नीति’ नहीं सिखाते, बल्कि ‘बिजनेस मॉडल’ और ‘फंडिंग राउंड्स’ की बारीकियाँ समझाते हैं. उनका ‘अर्थशास्त्र’ अब एक ‘पावरपॉइंट प्रेजेंटेशन’ है.
चाणक्य ‘इन्फ्लुएंसर्स’ बन गए हैं: – कुछ चाणक्य ने तपस्या छोड़ दी है. अब वे लिंक्डइन पर ‘थॉट लीडर्स’ बन गए हैं. वे ‘चाणक्य नीति’ के कोट्स लगाकर, मोटिवेशनल कोट्स पोस्ट करके और वेबिनार्स में पैसे कमा रहे हैं. उन्होंने ‘गुरुकुल’ की जगह ‘पर्सनल ब्रांडिंग’ चुन ली है. उनकी नीति का मकसद अब साम्राज्य नहीं, ‘इंप्रेशन’ बनाना है.
चाणक्य ‘एग्जिट’ ले चुके हैं: – सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि जिन्हें असली चाणक्य बनना था, वे या तो सिस्टम से ऊब चुके हैं या फिर रिटायरमेंट के बाद अपनी ‘पेंशन’ का आनंद ले रहे हैं. उन्होंने ‘एग्जिट’ ले लिया है. उनकी जगह अब ‘कंसल्टेंट्स’ ने ले ली है, जो घंटे के हिसाब से सलाह देते हैं और बिल भेजते हैं. वे चन्द्रगुप्त का चरित्र नहीं, उसका ‘एक्सपेंस शीट’ देखते हैं.
चाणक्य बनने के लिए धैर्य चाहिए. आज का जमाना ‘इंस्टेंट नूडल्स’ और ‘इंस्टेंट फेम’ का है. कोई भी चाणक्य की तरह वर्षों तक एक अनाथ बालक को तराशना नहीं चाहता, सबको ‘क्विक रिजल्ट’ चाहिए. आज हर कोई खुद को हीरो बनना चाहता है, किसी का ‘मेंटर’ नहीं. सबका अपना ‘स्टार्ट-अप’ है, अपना ‘साम्राज्य’ बनाना है. चाणक्य बनना, यानी पर्दे के पीछे रह जाना, वर्तमान समय की ‘सेल्फी जनरेशन’ को यह मंजूर नहीं. चाणक्य का सम्मान था वहीं, आज ‘मेंटर’ को ‘रिसोर्स’ समझा जाता है. जब तक उससे कुछ सीखना है, तब तक सम्मान, काम निकल गया, तो ‘अनफॉलो’ और ‘अनफ्रेंड’ कर दो. चाणक्य की तरह आजीवन सम्मान? अब भूल जाइए……
सच तो यह है कि चाणक्य गए नहीं हैं, बस उनकी भूमिका बदल गई है. वे अब ‘पेड मेंटरशिप प्रोग्राम’ ऑफर कर रहे हैं. वे ‘चाणक्य नीति’ पर कोर्स सिखा रहे हैं, जिसका फीस स्ट्रक्चर EMI पर उपलब्ध है. गली-गली में चन्द्रगुप्त हैं, जो बिना चाणक्य के ही साम्राज्य बनाने निकल पड़े हैं. नतीजा? ये साम्राज्य ‘अनस्टेबल एप्स’ की तरह हैं – एक ‘बग’ आया और पूरी एम्पायर क्रैश हो गई. ये चन्द्रगुप्त ‘ट्विटर’ पर तो ‘सम्राट’ लगते हैं, लेकिन असल जिंदगी में ये ‘इन्फ्लुएंसर’ हैं.
तो अगली बार जब आपको कोई चन्द्रगुप्त अपने ‘यूनिकॉर्न स्टार्ट-अप’ की कहानी सुनाता नजर आए, तो उससे एक सवाल जरूर पूछिएगा: – “भाई, तुम्हारा चाणक्य कहाँ है? या फिर तुम्हारे ‘बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स’ में उनके लिए कोई जगह है भी या नहीं?” शायद तभी इन चन्द्रगुप्तों को एहसास हो कि बिना चाणक्य के, उनका सफर मगध के सिंहासन तक नहीं, बल्कि अगले ‘फंडिंग राउंड’ तक ही सीमित होगा.