
गंगा किनारे बसा छोटा सा गाँव, मधुपुर, अपनी शांत और धीमी गति वाली ज़िंदगी के लिए जाना जाता था. यहाँ, इंसानों के साथ-साथ बेजुबान जानवर भी अपनी दुनिया में मगन रहते थे. इन्हीं में से एक थी ‘गौरी’, एक खूबसूरत भूरी गाय, जिसकी बड़ी-बड़ी, गहरी आँखें हर भाव को व्यक्त करने में सक्षम थीं, भले ही उसकी ज़ुबान खामोश थी.
गौरी का जीवन गाँव के बाहरी छोर पर बने छोटे से गौशाला में बीतता था. वह राम खेलावन की प्यारी गाय थी, एक बूढ़ा और दयालु चरवाहा, जिसकी अपनी कोई संतान नहीं थी. राम खेलावन गौरी से अपनी औलाद की तरह प्यार करता था. वह उसकी पीठ सहलाता, उसे हरी घास खिलाता और उसकी आँखों में झाँककर उसके ‘चोचलों’ को समझने की कोशिश करता.
गौरी भी राम खेलावन को अच्छी तरह समझती थी. उसकी आवाज़ की टोन, उसके हाथों का स्पर्श, उसके चेहरे के भाव – गौरी के लिए ये सब एक भाषा थे. जब राम खेलावन उदास होता, तो गौरी अपना सिर उसके कंधे पर टिका देती, मानो उसकी उदासी को बाँट रही हो. जब वह खुश होता, तो गौरी अपनी पूंछ हिलाती और उसके चारों ओर चक्कर लगाती.
गाँव के बच्चे अक्सर गौरी के पास खेलने आते थे. वे उसकी पीठ पर चढ़ते, उसकी पूंछ खींचते और उसे तरह-तरह के नाम से पुकारते। गौरी कभी नाराज़ नहीं होती थी. वह शांति से उनकी शरारतों को सहती रहती, बस कभी-कभी अपनी बड़ी आँखों से उन्हें देखती, मानो कह रही हो, “थोड़ा धीरे, प्यारे बच्चों!”
लेकिन गौरी की शांत दुनिया में भी कुछ अनकही कहानियाँ थीं. उसकी आँखों में कभी-कभी एक उदासी झलकती थी, एक ऐसी बेबसी जो शब्दों में बयान नहीं की जा सकती थी. वह दूर खेतों को देखती रहती, मानो किसी बिछड़े हुए साथी को याद कर रही हो.
शेष भाग अगले अंक में…,