
रवि के बचपन की मासूमियत उसकी दुनिया को एक अलग नजरिए से देखने में मदद करती थी. वह समुद्र के किनारे दौड़ता, लहरों से बातें करता और कभी-कभी पानी में छलांग लगाकर खुद को मछली की तरह महसूस करता. उसके लिए समुद्र कोई चुनौती नहीं था, बल्कि एक खेल का मैदान था जहाँ वह बिना किसी डर के दौड़ता-भागता.
हर सुबह रवि अपनी छोटी सी लकड़ी की नाव लेकर किनारे पर जाता, जहाँ वह अपने पिता और अन्य अनुभवी नाविकों को मछली पकड़ते देखता. जब उसके पिता लहरों से जूझते, वह सोचता कि यह बस एक खेल है—जो ज्यादा ताकतवर होगा, वही जीतेगा. उसे नहीं पता था कि यह संघर्ष केवल मछली पकड़ने का नहीं, बल्कि जीवन का भी था.
रवि के लिए समुद्र एक दोस्त था, जो कभी उसके पैरों को गुदगुदाता तो कभी तेज़ लहरों से उसे सराबोर कर देता. लेकिन वह इस दोस्त की असली ताकत से अनजान था। उसे नहीं मालूम था कि वही लहरें कभी-कभी जानलेवा भी बन सकती हैं.
उसकी मासूमियत तब टूटी जब एक दिन उसने देखा कि उसके पिता और उनके साथी एक अचानक उठे तूफान से जूझ रहे थे. रवि किनारे पर खड़ा रहा, आंखों में डर और मन में सवाल—समुद्र इतना क्रूर भी हो सकता है? उस दिन उसके मन में पहली बार भय ने जन्म लिया.
यह वही क्षण था जब रवि की मासूमियत खत्म हुई और उसने समुद्र को केवल एक दोस्त नहीं, बल्कि एक चुनौती के रूप में देखना शुरू किया. उसने जाना कि यह जीवन भी ऐसा ही है—शुरुआत में सरल और सुंदर, लेकिन समय के साथ संघर्षों से भरा हुआ.
शेष भाग अगले अंक में…,